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झारखंड में बीजेपी की चुनावी तैयारी शुरू, यूपी फॉर्मूला पर जा सकती है पार्टी

राज्य में 26 प्रतिशत आदिवासियों के बजाय 74 प्रतिशत गैर-आदिवासी मतदाताओं को बीजेपी अपना टारगेट बनाएगी

Anand Dutta

झारखंड में अंदर ही अंदर चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है. वह भी पूरी गंभीरता के साथ. सत्तारूढ़ दल बीजेपी बाकि अन्य दलों से चार कदम आगे बढ़कर तैयारी की राह पर है. साल 2019 में केंद्र के साथ विधानसभा के चुनाव भी होने जा रहे हैं. पूरी संभावना इस बात की है कि बीजेपी यूपी विधानसभा चुनाव फार्मूले पर भी यहां चुनाव तैयारी करेगी. यानी राज्य में 26 प्रतिशत आदिवासियों के बजाय 74 प्रतिशत गैर – आदिवासी मतदाताओं को अपना टारगेट बनाएगी.

तैयारी यूं तो अभी किसी को नजर नहीं आ रही, लेकिन अंदर ही अंदर एक बड़ी टीम इस काम में लगी हुई है. तो ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर यह कर कौन रहा है. इस वक्त पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का तीन दिन के दौरे पर पहुंचना क्या इशारा कर रहा है. उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू और केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का पहुंचना यूं ही नहीं है.


दरअसल सबकुछ पर्दे के पीछे चल रहा है. चुनावी रणनीति के माहिर माने जाने वाले रजत सेठी के नेतृत्व में पूरी कवायद चल रही है. यह वही रजत सेठी हैं जिन्होंने बीजेपी के असम विधानसभा चुनाव जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

हो चुका है सर्वे, दुबारा सरकार बनती दिख रही है बीजेपी की 

तैयारी से जुड़े एक सूत्र के मुताबिक एक महीना पहले राज्यभर में सर्वे कराए गए हैं. इसमें लगभग 25 हजार से अधिक लोगों के वीडियो सैंपल लिए गए हैं. बात निकल कर आई है कि मास वोटर सरकार से नाराज नहीं है. बीजेपी अगर इसको आधार बनाती है तो फिलहाल वह लीड ले रही है. रही सही कसर बचे हुए डेढ़ साल में सरकार पूरा करने के लिए जोर लगा चुकी है. अमित शाह कैंप करने 15 सितंबर को पहुंच रहे हैं. सीएम रघुवर दास जिला दर जिला घूमना शुरू कर चुके हैं.

हार की थोड़ी आशंका दिखी, हटा देंगे सिटिंग कैंडिडेट

सर्वे में कमजोर और मजबूत विधायकों का पता चल रहा है. यानी पार्टी नेतृत्व को समय रहते पता चल चुका है कि कौन से सिटिंग एमएलए कमजोर हैं, जिनपर ध्यान देने के बाद भी जीतने की संभावना कम है, उनको देरी किए बिना बाहर कर देगी. वहीं जिनके साथ हार जीत में 50-50 की संभावना है, उनके लिए क्षेत्र में रणनीति तैयार किए जा रहे हैं. फिलहाल बीजेपी के पास राज्य में कुल 38 सीट हैं. इसमें कुछ सीटों पर उसके सिटिंग एमएलए हारते दिख रहे हैं. कुल 15 सीटों पर सिंटिंग एमएलए को हटाया जा सकता है.

जमीनी हकीकत है अलग

अब सवाल यह उठता है कि आखिर चुनाव किन मुद्दों पर लड़े जाएंगे. बीजेपी की रणनीति क्या होगी. जनता किन मुद्दों पर वोट करने जा रही है. सर्वे में यह सवाल भी जनता से टटोले गए हैं. केवल आदिवासी इलाकों में सीएनटी एसपीटी का मुद्दा बीजेपी को परेशान कर सकती है. शहरी मतदाताओं को को नहीं. गैर आदिवासी मतदाताओं को नहीं. ऐसे में अगर ध्यान दिया जाए तो गैर आदिवासी मतदाता 74 प्रतिशत हैं. बीजेपी 26 प्रतिशत आदिवासी मतदाताओं पर ध्यान देने के बजाय दूसरे वोटरों पर पूरा जोर लगाने जा रही है. यानी यूपी विधानसभा चुनाव फॉर्मूला यहां भी अपनाया जा रहा है. हालांकी पूरी तरह इग्नोर करना मुश्किल होगा. क्योंकि इस समय बीजेपी के पास कुल 10 आदिवासी विधायक हैं. और 81 सदस्यों वाली विधानसभा में 10 की संख्या खासा महत्व रखती है.

ग्रामीण मतदाताओं के लिए इस वक्त भी बिजली, सड़क, सरकारी कार्यालयों में बिना समय गंवाए काम, तत्काल स्वास्थ्य सेवा का लाभ ही प्रमुख मुद्दा है. इसमें बिजली, मोबाइल और सड़क के मामले में बेहतर स्थिति मे है. आनेवाले समय में सरकारी कार्यालयों को ग्रामीण जनता के लिए इजी एवलेबल बनाने पर फोकस कर सकती है. ग्रामीण इलाकों के लिए 240 एंबुलेंस मुहैया कराए गए हैं. हालांकि इससे ज्यादा सरकार केवल घोषणा कर सकती है. तत्काल मुहैया नहीं करा सकती है.

सीएनटी की परेशानी से निकालेगा धर्मांतरण बिल

सूत्र बताते हैं कि रघुवर अगर जिद पर अड़े रहते तो अभी तस्वीर बदल चुकी होती. जिस तरीके से सरकार सीएनटी – एसपीटी एक्ट पास कराने के मुद्दे पर फंस चुकी थी. विपक्ष तो विपक्ष, पार्टी के अंदर ही बीजेपी दो धरे में बंट चुकी थी. मामले को फंसता देख रजत सेठी ने बात राम माधव और बीजेपी मुख्यालय तक पहुंचाई. हाई कमान ने तत्काल निर्देश दिया कि इसे वापस लीजिए. बाद में देखते हैं कि क्या किया जा सकता है. हाल यह था कि बीते सालों में जो आदिवासी मतदाता बीजेपी के खाते में आए थे, वह छिटकने को तैयार थे. बीजेपी के जो आदिवासी नेता थे, उनके पास मुंह छुपाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था.

धर्मांतरण बिल से मिला सहारा

इसके तुरंत बाद धर्मांतरण बिल पास किया गया. सरना आदिवासियों के लिए यह राहत की खबर थी. बीते 40 सालों में धर्मांतरण का सबसे अधिक असर सरना आदिवासियों पर ही पड़ा है. सकारात्मक या नकारात्मक, यह बहस का एक अलग मुद्दा हो सकता है. इस बिल के आर में बीजेपी के पास एक बड़ा मौका है कि वह अपने लिए एक सरना नेता को खड़ा करे. जिसका कद राज्य स्तर का हो, फिलहाल 12 प्रतिशत सरना धर्मावलंबियों वाले इस राज्य में एक भी बड़ा सरना नेता नहीं हैं. धर्मगुरु बंधन तिग्गा ही राज्य में उनका प्रतिनिधित्व करते हैं. हालत यह है कि धर्मगुरु के साथ वह खुद को नेता भी मानते हैं. हालांकि नेता तैयार करने का काम बीजेपी के बूते का नहीं, यह संघ ही कर सकता है.

भविष्य के लिए भी तैयार हो रहा खाका, तलाशे जा रहे सीएम कैंडीडेट

संघ और बीजेपी नेतृत्व इस बात पर भी विचार कर रहा है कि रघुवर दास के अलावा दूसरा चेहरा भी तैयार रखना होगा. क्योंकि गैर आदिवासी चेहरे के बदौलत अधिक दिनों तक यहां सरकार नहीं चलाया जा सकता है. एक गैर आदिवासी सीएम देने के बाद उसे राज्यपाल, बीजेपी अध्यक्ष आदिवासी समुदाय से बनाने पड़े. ऐसे में सवाल उठता है कि किन चेहरों पर ऩजर है.

बाबूलाल को वापस लाने की एक बार फिर होगी पुरजोर कोशिश

इसके लिए सबसे पहली च्वाइस बाबूलाल मरांडी हो सकते हैं. लेकिन इसके लिए पहली शर्त यह है कि वह बीजेपी में शामिल होने को तैयार हों. बाबूलाल जब से पार्टी से अलग हुए हैं, हर एक महत्वपूर्ण मौकों पर उनको मनाया गया. पिछले विधानसभा में जब उनके पास आठ विधायक थे, उस वक्त सबकुछ तय होने के बाद भी वह शामिल नहीं हुए, अंततः पार्टी के छह विधायकों ने ही बीजेपी ज्वाइन कर लिया. नेतृत्व क्षमता, संघ की समझ, आदिवासी राज्य की जरूरतों की समझ और एक मास लीडर की छवि बाबूलाल को मजबूत बनाती है. हां इसके पीछे उनका बीजेपी में होना पहली शर्त है. क्योंकि संगठन से बाहर होने पर बड़ा से बड़ा नेता कमजोर दिखता और होने लगता है.

दूसरी पसंद के तौर पर खूंटी के विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा पर नजर है. जनमानस में उनकी पहुंच, आदिवासी चेहरा, बेदाग होना मजबूत पक्ष है. लेकिन प्रशासनिक तौर पर मुखर ना होना, उनके लिए भारी पड़ रहा है. तीसरा अगर अर्जुन मुंडा अगला विधानसभा जीत जाते हैं तो वह एक मजबूत दावेदार बनकर उभर सकते हैं. लेकिन आडवाणी कैंप का ठप्पा लगने की वजह से इसकी संभावना कम ही दिखती है कि वह राज्य बीजेपी में अगले चुनाव में कुछ बड़ा प्रभाव छोड़ पाएंगे.

अपने काम में लगा यह रणनीतिकार 

रजत सेठी इस समय झारखंड के सीएम के सलाहकार पद पर तैनात हैं. वह मई 2016 में हुए असम चुनाव से वक्त चर्चा में आए थे. वह राम माधव के कहने पर अमेरिका से भारत लौटे थे. बीजेपी का यह रणनीतिकार अपना काम कर रहा है. जिसकी रिपोर्ट राम माधव के अलावा अमित शाह के पास भेजी जा रही है. यही वजह है कि सर्वे हो चुका है, प्रत्याशियों पर नजर रखनी शुरु हो चुकी है, मुद्दों की लिस्ट तैयार की जा रही है. रजत सेठी को पिछले साल नवंबर में झारखंड भेजे गए थे. तत्काल बाद जो उन्होंने रिपोर्ट दी, उसके मुताबिक बीजेपी झारखंड में लोस और विधानसभा दोनों चुनाव हार रही थी. रघुवर दास की लोकप्रियता का ग्राफ हर दिन गिर रहा था. इसके बाद से वह एक एक मामले पर नजर रखे रहे हैं.