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नोटबंदी: जेडीयू सांसद हरिवंश ने विपक्ष के विरोध को बताया बेतुका

नोटबंदी का अंधा विरोध करने की बजाय, यह मौका है जब विपक्ष को इस बारे में बहस शुरू हो.

Harivansh

नोटबंदी पर खेमेबाजी परेशान करने वाली है. सदन में विपक्ष की सीटों पर बैठे हुए आमतौर पर सरकार का विरोध करना स्वाभाविक हो जाता है.

लेकिन कुछ ऐसे फैसले होते हैं, जिन्हें पार्टी पॉलिटिक्स का चश्मा हटाकर देखा जाना चाहिए. ऐसे फैसलों का उद्देश्य और उसे हासिल करने के लिए अपनाए जा रहे तरीकों के लिहाज से देखा जाना चाहिए. दोनों को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता.


नोटबंदी का विश्लेषण भी इसी परिपेक्ष्य में करने की जरूरत है.

आज भारत के सामने बेशुमार चुनौतियां हैं. अंदरूनी भी और बाहरी भी. बाहरी चुनौतियों में से एक बड़ी चुनौती है, चीन की बढ़ती हुई ताकत.

चीन, जिसने अपने विकास का सफर हमारे साथ ही शुरू किया था, आज वो दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका को चुनौती दे रहा है. इस बारे में दो राय नहीं कि आर्थिक महाशक्ति बनने के बाद ही विश्व मंच पर चीन की दमदार मौजूदगी का अहसास होना शुरू हुआ.

13 नवंबर को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ग्वादर बंदरगाह का उद्घाटन किया और वहां कामकाज शुरू हो गया. यह बंदरगाह पश्चिमी चीन को अरब सागर से जोड़ने वाला महत्वपूर्ण व्यापारिक लिंक है.

इसके क्या रणनीतिक परिणाम होंगे, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, बल्कि यह भारत के लिए चिंता का कारण है. चीन और पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के रिश्तों में हाल के महीनों जो नजदीकियां दिखाई दीं, उनके कारण हमारे रक्षा मंत्री को बांग्लादेश के साथ नए संबंध कायम करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. जिस तरह से हिंद महासागर में भारत को घेरा जा रहा है, उससे भी गंभीर रणनीतिक चिंताएं पैदा होती हैं.

सुधार जरूरी

इन मुद्दों की बारीकियों में जाए बिना, यह तो कहा ही जा सकता है कि बाहरी चुनौतियां भी अंदरूनी चुनौतियों से कम नहीं होतीं.

ये युवाओं का देश है. वे हमारी पूंजी और शक्ति, दोनों हैं. अगर हम उन्हें रोजगार मुहैया नहीं करा सकते हैं तो राष्ट्र निर्माण संभव नहीं होगा. यह एक साफ तथ्य है. तेजी से बढ़ रही हमारी जनसंख्या की जरूरतों का भी ध्यान रखना होगा.

पर्यावरण की चुनौती हमारे सामने खड़ी है. हमने हवा में जहर खोल दिया है और इसे अपने सांसों से अंदर ले जा रहे हैं. विभिन्न रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि पर्यावरण की दुर्दशा से होने वाले बीमारियों के कारण भारत में होने वाले मौतें चीन से कितनी ज्यादा हैं. इससे सिर्फ हमारे स्वास्थ्य पर असर नहीं पड़ रहा है बल्कि हमारा समाज और हमारी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है. अगर हमने मजबूत आर्थिक कदम नहीं उठाए तो फिर देश की मौजूदा दशा में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती.

नोटबंदी और इसकी जरूरत

मार्क्स की कही यह बात बिल्कुल सही है कि आर्थिक फैसलों से ही ऐतिहासिक बदलाव आते हैं और चीन इसका जीता जागता उदाहरण है. आजादी के बाद, इस देश को महान बनाने का जो सपना स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था, उसे पूरा करने में कई बाधाएं आईं और इसमें भी सबसे बड़ी मुश्किलें आर्थिक क्षेत्र में आईं.

इन बाधाओं को दूर करने के लिए सिर्फ दो मौकों पर निर्णायक कदम उठाए गए- पूरे संकल्प के साथ, मूलभूत बदलाव के लिए.

1969 में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण आर्थिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम था. प्रिवी पर्स को खत्म करना और (1971-1973 में) कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण भी निर्णायक कदम था जिससे लोगों में मजबूत संदेश गया.

एक बार फिर, दशकों तक आर्थिक कुप्रबंधन ने अर्थव्यवस्था को इस स्थिति में ला दिया कि पीवी नससिंह राव की सरकार को 1991 में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी और अर्थव्यवस्था को खोलना पड़ा.

भाजपा सरकार की तरफ से 8 नवंबर को 500 और 1000 रुपए के नोट बंद करने का फैसला भी इन्हीं बड़े सुधारों की श्रेणी में आता है. इसके क्या नतीजे होंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा. इतना जरूर कहा जा सकता है कि इससे अर्थव्यवस्था को समग्र रूप से फायदा होगा, बशर्ते अन्य सुधारों के साथ इसे इसकी तार्किक परिणिति तक ले जाया जाए.

कालेधन का जहर

यह इस देश का बड़ा दुर्भाग्य है कि जिस फैसले ने देश को एक दिशा दी है और जो उसके भाग्य को निर्धारित करेगा, उस फैसले को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है. बहुत से राजनीतिक दलों के लिए राजनीति 24 घंटे वाला पेशा हो गया है. हर कदम को निजी और राजनीतिक फायदे के तराजू में तौला जाता है.

बेशक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे कुछ अपवाद भी हैं जो इस फैसले को अलग नजरिए से देखते हैं और अपने विचारों पर अदूरदर्शी विपक्षी राजनीति का रंग नहीं चढ़ने देते. नोटबंदी की घोषणा के अगले ही दिन उन्होंने इस कदम का समर्थन किया. उनके समर्थन का कारण बिल्कुल सीधा था: भारतीय व्यवस्था को काले प्रभाव से मुक्त करना.

संसद में होने वाली बहुत सी चर्चाओं में मैंने 1993 के मुंबई बम धमाकों की बात की है. और मैंने इस बात को भी उठाया है कि उसी साल एनएन वोहरा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इस कमेटी ने भारत में राजनीति के अपराधीकरण और अपराधियों, राजनेताओं और नौकरशाहों के बीच साठगांठ होने की समस्या की तरफ ध्यान दिलाया था. कमेटी ने बताया कि किस तरह ये बेईमान गिरोह देश को बर्बाद कर रहा है. इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि इस गिरोह को ताकत कालेधन से मिलती है. इस रिपोर्ट को पूरी तरह भुला दिया गया. हमें इस रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने के लिए बारे में विचार करना चाहिए.

लोकतंत्र की खातिर

हम कालेधन को नियंत्रित करने की बात लगातार करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ पोंटी चड्ढा, मतंग सिंह और अभिषेक वर्मा जैसे सत्ता के दलालों की नई जमात उभरी है. इन लोगों को अलग अलग राजनीतिक दलों में अहम पद मिले हुए हैं. उनका इकलौता मकसद काला धन जमा करना है, जिस पर वो फलते फूलते हैं. सत्ता के इन दलालों की पैंठ रक्षा सौदों, बड़े नीतिगत फैसलों और यहां तक कि न्याय व्यवस्था में भी होती है.

नोटबंदी इस चलन को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण लेकिन छोटा कदम है. इसे इसकी तार्किक परिणिति तक ले जाने के लिए सरकार को बेनामी संपत्तियों को भी निशाना बनाना होगा, जिनमें ज्यादातर काला धन निवेश किया जाता है.

लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए सख्त आर्थिक फैसलों की जरूरत होती है. नीतीश कुमार के शराबबंदी के फैसले से हजारों करोड़ के राजस्व घाटे का अनुमान था, लेकिन इससे समाज के सबसे निचले तबके को फायदा होना था. और जब निचले तबके को फायदा होता है तो इससे देश का लोकतंत्र मजबूत होता है.

कायापलट

2005 में इकॉनोमिस्ट, टाइम और न्यूजवीक जैसे दुनिया भर के नामी मीडिया संस्थानों ने बिहार को लाइलाज केस मान लिया था. लेकिन फिर उसी इकॉनोमिस्ट पत्रिका ने 2010 में लिखा कि कैसे बिहार का कायापलट हुआ है. यह नतीजा कुछ बहुत ही मजबूत कानूनी और आर्थिक कदमों का है, जिनमें स्पीडी ट्रायल यानी से तेजी से मुकदमों की सुनवाई करना भी शामिल था. रिकॉर्ड समय में 90 हजार अपराधियों को दोषी करार दिया गया. साथ ही भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की बेनामी संपत्तियों के खिलाफ भी बिगुल बजाया गया.

माना जाता है कि लोकतंत्र में दृढ़ संकल्प के बिना मजबूत कदम नहीं उठाए जा सकते. लंबे समय से चली आ रही भारत की ‘सॉफ्ट स्टेट’ वाली छवि का फायदा उठाकर भ्रष्ट और ठग लोग खुले आम गलत काम करते है, उनमें साथ देते हैं और उनका समर्थन करते हैं.

आज बड़े अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि नोटबंदी के फैसले से कुछ समय के लिए परेशानी हो सकती है लेकिन दीर्घकालीन रूप से ये फायदा ही पहुंचाएगा. जरा ये सोचिए: छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ में लोग 29 साल बाद 50 लाख का टैक्स देने के लिए सामने आए. यह सिर्फ छत्तीसगढ़ के एक छोटे से जिले की कहानी है.

झारखंड की राजधानी रांची में नोटबंदी के बाद नगर निगम को एक हफ्ते में 1.16 करोड़ रुपए का टैक्स मिला जबकि सामान्य समय में एक हफ्ते में बीस लाख रुपए तक का टैक्स आता था.

जी हां, नोटबंदी बड़ी बात है

संसद में कांग्रेस के एक सदस्य ने पूछा कि नोटबंदी में क्या बड़ी बात है. ऐसा तो पहले भी हो चुका है.

यह सोचिए: 1945 में 1,235 करोड़ रुपए मूल्य की मुद्रा में से 143 करोड़ (11.57 प्रतिशत) का विमुद्रीकरण हुआ. 1978 में 9,512 करोड़ में से 146 करोड़ (1.53 प्रतिशत) का विमुद्रीकरण हुआ. लेकिन अब 16,41,500 करोड़ रुपए में से 14,21,539 करोड़ रुपए (86.6 प्रतिशत जो 500 और 1000 के नोटों में था) का विमुद्रीकरण हुआ है.

ये विशाल और अभूतपूर्व है. मौद्रिक मूल्य के हिसाब से देखें तो 1978 के विमुद्रीकरण की तुलना में अब 73.656 प्रतिशत मुद्रा को खत्म कर दिया गया है. जिन नोटों को हटाया जाना है, उनकी संख्या देखें तो और भी दिमाग चकराएगा. 1978 में 10 लाख नोट खत्म किए गए थे जबकि इस बार 2256,00,00,000 (दो हजार, दो सौ छप्पन करोड़) नोट वापस लिए जाएंगे. इसका मतलब ये प्रयास 22,56,000 प्रतिशत ज्यादा बड़ा है.

अब सरकार को यह जांच करनी चाहिए कि नोटबंदी से नक्सलियों और कश्मीर और उत्तर पूर्व में सक्रिय चरमपंथियों को मिलने वाले पैसे पर क्या असर पड़ा है. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि नोटों की जलाने की खबरें कितनी सही हैं और ये कौन लोग हैं. ऐसी एक खबर कोलकाता से आई थी. इस तरह की जानकारी सरकार के काम को उचित ठहराएगी. साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए प्रयास होने चाहिए कि अगर हम कैशलेस अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाना चाहते हैं तो इस सपने को पूरा करने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा जल्दी से तैयार कर लिया जाए.

विपक्ष को क्या करना चाहिए

इस मामले में विपक्ष की क्या भूमिका होनी चाहिए?

नेहरू की जीवनी में शंकर दास लिखते हैं कि अप्रैल 1963 में केंद्रीय मंत्री केडी मालवीय के खिलाफ कुछ छोटे-मोटे आरोप सामने आए. नेहरू ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज एसआर दास से यह पता लगाने को कहा कि क्या मालवीय के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला बनता है. वैसे नेहरू मालवीय को खूब पसंद करते थे क्योंकि उन्होंने भारत में तेल क्षेत्र को विकसित करने के लिए अच्छा काम किया था. जस्टिस दास की जांच सार्वजिनक तौर पर नहीं हुई थी. ये जांच गोपनीय तरीके से हुई. जस्टिस दास की जांच में पता चला कि छह में से दो आरोपों में मालवीय के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता था. मालवीय ने इस्तीफा दे दिया.

भ्रष्टाचार के खिलाफ अब इस तरह का रुख देखने को नहीं मिलता. इस बात पर तो कोई विवाद नहीं हो सकता कि काला धन भ्रष्टाचार का सीधा परिणाम है और दोनों का चोली दामन का संबंध है.

बस कमेटी बनाने में दिलचस्पी

पिछले 40 साल में, जब से मैंने सामाजिक और आर्थिक घटनाक्रम पर नजर रखनी शुरू की है, तब से काले धन का आधार और प्रभाव कई गुना बढ़ गया है. विपक्षी सदस्य होने के नाते हमें यह देखना चाहिए कि पिछले कुछ दशकों में भ्रष्टाचार और काले धन को रोकने के लिए कितनी कमेटियां बनीं और यह सवाल उठाना चाहिए कि उनकी सिफारिशों को लागू करने के लिए क्यों कदम नहीं उठाए गए.

हमें पूछना चाहिए कि क्या अभी तक की सरकारों की दिलचस्पी सिर्फ कमेटियां बनाने में रही.

विश्व बैंक का कहना है कि भारत में चल रही समांतर अर्थव्यवस्था उसकी जीडीपी के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से के बराबर है. 2014 और 2009 के आम चुनाव स्पष्ट तौर पर काले धन से ही लड़े गए. रामदेव,राम जेठमलानी और प्रोफेसर आर वैद्यनाथन जैसे लोग काले धन के बारे में खूब बोलते हैं.

काले धन के जरिए समाज में फैल रही बुराइयां किसी के हित में नहीं हैं. अब सरकार ने धन का विमुद्रीकरण करने का फैसला किया है, तो बेतुके तरीके से इसकी आलोचना करने में कोई फायदा नहीं है.

बेशक सरकार से कुछ मुश्किल सवाल पूछे जाने चाहिए. लेकिन उससे पहले विपक्ष के तौर पर हमें ये देखना चाहिए कि सरकार सबसे दूर दराज के इलाकों में जल्द से जल्द लोगों तक नोट पहुंचा पा रही है या नहीं.

बहस, असंतोष

नोटबंदी के बाद जो भी खबरें आ रही हैं उन पर भी बहस होनी चाहिए. कुछ दिनों पहले एक बड़े बिजनेस अखबार ने खबर दी कि भारत-बांग्लादेश सीमा पर जाली नोट से जुड़े एक गिरोह को नोटबंदी के कारण बड़ा धक्का लगा है.

उसी दिन मिंट ने रिपोर्ट छापी जिसका शीर्षक था, 'कालेधन को सफेद करने के लिए जमाखोर अपने दोस्तों को लुभा रहे हैं.' इस रिपोर्ट के अनुसार बड़े राजनेता और सरकारी अफसर लोगों से मदद मांग रहे हैं और कमीशन पर उनसे काले पैसे को सफेद करने के लिए कह रहे हैं.

कुछ अन्य रिपोर्टों में दावा किया गया कि सरकार लगभग 400 बड़े ज्वैलर्स की आमदनी पर नजर रख रही है. चूंकि दस ग्राम सोने के एक सिक्के की कीमत 30 हजार रुपए है, ऐसे में, इस तरह के सिक्कों से भरा एक ब्रीफकैस करोड़ों रुपए के काले धन के बराबर हो सकता है.

एक और चिंता जन धन योजना के तहत खुले खातों को लेकर है जिनका इस्तेमाल कालाधन रखने के लिए किया जा रहा है. टाइम्स ऑफ इडिया की एक रिपोर्ट (13 नवंबर) के अनुसार सिर्फ तीन के भीतर ऐस खातों में 170 करोड़ रुपए जमा हुए हैं. सरकार को इन खातों में होने वाले असामान्य लेन-देन की जांच करानी चाहिए.

आखिर काला धन है कितना

अनुमान है कि तीस हजार करोड़ से चालीस हजार करोड़ रुपए का हवाला पैसा आंतकवादी संगठनों के पास है. कुछ अनुमानों के अनुसार कश्मीर में आतंकवादियों को धन इसी से पहुंचाया जाता है और नोटबंदी के बाद इस पर बहुत असर पड़ा है.

इन सभी सकारात्मक और नकारात्मक खबरों पर विपक्ष को बहस करनी चाहिए, इनका विश्लेषण करना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित हो कि सरकार नोटबंदी के प्रक्रिया को इसके तार्किक अंजाम तक ले जाए.

कालाधन अपार है. विश्व बैंक के अनुसार ये जीडीपी के 20 प्रतिशत के बराबर है. सरकार का अनुमान है कि इसकी मात्रा लगभग 15-20 लाख करोड़ से ज्यादा है जो जीडीपी के 20 प्रतिशत से कम है. सही सही कालेधन की मात्रा बता पाना मुश्किल है. इस विषय पर एक महत्पवपूर्ण किताब लिखने वाले प्रोफेसर अरुण कुमार ने इकॉनोमिकल एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में लिखे अपने लेख में काले धन को जीडीपी का 63 प्रतिशत बताया है. और यह आंकड़ा 2013 का है.

यह सच है कि किसानों, छोटे कारोबारियों और व्यापारियों, मरीजों, यात्रियों और आम लोगों को बहुत परेशानी हो रही है. लेकिन जब इतना फैसला किया गया है तो ऐसा तो होगा ही. तर्क यह दिया जा रहा है कि नोटबंदी से पहले लोगों को कुछ समय दिया जाना चाहिए था. यह तो हम सब जानते हैं कि अगर इस तरह का फैसला घोषणा से 15 मिनट पहले भी लीक हो जाता तो यह अर्थव्यवस्था को तबाह करने की ताकत रखता है. यह स्वाभाविक है कि लगभग 1.3 अरब की आबादी वाले देश में चुनौती रहेंगी. सरकार को लोगों को राहत देनी चाहिए और तेजी से कदम उठाना चाहिए ताकि इस बड़े कदम का उनकी जिंदगी पर कम से कम दुष्प्रभाव हो.

इसलिए उठाया बड़ा कदम

यह संगठित भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई है. विदेशों में छिपा कर रखे गए काले धन के बारे में इस सरकार को बार बार जानकारी दी गई है. 2015 में काले धन को वापस लाने के लिए ब्लैक मनी बिल पेश किया गया. लेकिन सिर्फ 2,500 करोड़ रुपया ही हासिल किया जा सका.

इसके बाद आमदनी घोषणा योजना आई. सितंबर के आखिर तक सिर्फ 65 हजार करोड़ रुपया ही प्राप्त हो सका. अगर अनुमानित काला धन 10 से 15 लाख करोड़ है और उसमें से सिर्फ 65 हजार करोड़ ही प्राप्त हुआ है तो फिर निश्चित तौर पर गंभीर कदम उठाने की जरूरत है.

जो भी कहा गया और किया गया, उसमें इस बात से इनकार नहीं है कि नोटबंदी एक बहुत ही सकारात्मक फैसला है. लेकिन यह अपनी तार्किक परिणिति को तभी पहुंचेगा जब इसके साथ चुनाव सुधार होंगे,बेनामी संपत्तियों को जब्त किया जाएगा और उन लोगों के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएंगे जो अब भी अपने ज्ञात आय के स्रोतों से अत्यधिक पैसा दबाए बैठे हैं. अगर इन लक्ष्यों को हासिल कर लिया जाता है तो भारत एक अलग ही रास्ते पर होगा. राजनीति तो बाद में होती रहेगी.

(लेखक प्रभात खबर के पूर्व संपादक है और बिहार से राज्यसभा सांसद और जेडीयू के प्रवक्ता हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)