view all

महबूबा की भ्रमित राजनीति कश्मीर को जलाए, दिल्ली के भी काम ना आए

जब तक कश्मीरियों को लोकतंत्र में उनका वाजिब हिस्सा नही मिलेगा वो यूं ही भटकता रहेगा

s. pandey

श्रीनगर में मंगलवार को हुई यूनिफाइड कमांड की बैठक से कुछ हासिल नही हो सका. जम्मू-कश्मीर सरकार और सेना के बीच पत्थरबाजों से निपटने को लेकर कोई खास रणनीति नही बन पाई.

पिछले कुछ समय से कश्मीर घाटी में आतंकी वारदातों और पत्थरबाजी की घटनाओं में जबर्दस्त इजाफा हुआ है. स्कूली छात्रों का सड़कों पर आना और पहली बार महिलाओं और छात्राओं का पत्थरबाजी में हिस्सा लेना चिंता का सबब बना हुआ है.


यूनिफाइड कमांड की बैठक में जहां राजनीतिक नेतृत्व ने भटके युवाओं को हीलिंग टच देने की बात कही. वहीं सेना ने जीप पर एक युवक को बांध कर ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल करने के मामले में दर्ज हुई एफआईआर का विरोध किया.

सरकार पर कश्मीरियों को ऐतबार क्यों नहीं?

दरअसल कश्मीर में राजनीतिक शून्यता की स्थिती बनी हुई है. कश्मीर घाटी के लोगों के लिए वर्तमान सरकार बीजेपी-पीडीपी की सरकार नही सिर्फ बीजेपी की सरकार है. और कश्मीरियों का इस सरकार पर जरा भी ऐतबार नही.

उधर बीजेपी और पीडीपी की कश्मीर पॉलिसी भी अलग अलग दिखती हैं. जहां बीजेपी मोदी की राष्ट्रवादी छवि के अनुकूल सख्त दिखना चाहती है. वहीं पीडीपी का स्टेंड बड़ा ही कन्फ्यूजिंग है.

वह केंद्र की कठपुतली सरकार दिखने से बचना चाहती है, पर केंद्र को नाराज भी नही करना चाहती. पीडीपी का अपना कोई एजेंडा नही और बीजेपी का एजेंडा वह लागू करते दिखना नही चाहती. साथ ही सरकार बचाए रखना भी महबूबा की टॉप प्रियोरटिज़ में शामिल है.

इस अवसरवादी राजनीति से कश्मीरी त्रस्त आ चुका है. राजनीतिक तौर पर पीडीपी कश्मीर में विफल हो चुकी है. पीडीपी की राजनीतिक विफलता ने लोकतंत्रिक सिस्टम के साथ सभी राजनीतिक दलों के जमीनी ढ़ाचें को तोड़ कर रख दिया है.

क्यों खत्म हो रहा है लोकतंत्र पर भरोसा?

एक-एक करके उनके कार्यकर्ता या तो मारे गए या चुप करा दिए गए. लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों की ताकत कम होती गई. इतनी कम की जहां 2014 के विधानसभा चुनावों में 65 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने शिरकत की थी वहीं 2017 के श्रीनगर लोकसभा चुनाव में सिर्फ 7 फीसदी वोट पड़े. और वो भी तब जब वहां से घाटी के सबसे बड़े नेता फारूख अब्दुला खुद चुनाव लड़ रहे थे.

16 महीनों में इतना बड़ा राजनीतिक, समाजिक बदलाव आखिर क्यों कर आया और इसके लिए कौन जिम्मेदार है. इसे समझना इतना मुश्किल नही. जब से बीजेप-पीडीपी सरकार सूबे में बनी है तभी से यह साफ है कि बीजेपी जम्मू की पार्टी है और पीडीपी कश्मीर की.

राजनीतिक तौर पर कश्मीर घाटी में शांतिपूर्ण माहौल और आमजन का भरोसा जीतने की जिम्मेदारी पीडीपी की बनती है. पर अपने लचर राजनीतिक विजन की वजह से पीडीपी इस मसले पर जबर्दस्त तरीके से फेल रही. इसका सीधा फायदा पाकिस्तानी सरपरस्ती में पैदा हुई हुर्रियत जैसी अलगाववादी ताकतों को मिला.

उन्होंने हड़ताल के कैलेंडर जारी किए. पत्थरबाजों का महिमामंडन शुरू किया. और एक बार फिर घाटी को आग के हवाले कर दिया.

महबूबा और मोदी के लिए गले की फांस बनता कश्मीर

 

मुफ्ती मोहम्मद सईद जब तक मुख्यमंत्री थे तब तक उनका जनता के साथ संवाद कायम था. उनको एक अमन पंसद और आम कश्मीरियों का दुख दर्द समझने वाला नेता समझा जाता था.

अलगाववादियों, दिल्ली दरबार और आम कश्मीरी सभी को मुफ्ती साहब ने साधा हुआ था. पर उनके निधन के बाद अनुभवी राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में सारी कड़ियां टूट कर बिखर गईं.

महबूबा वो राजनीतिक और रणनीतिक कौशल नही दिखा पाईं जो उनके पिता में था. दिल्ली दरबार भी इधर बेचैन है.

मोदी की दमदार और राष्ट्रवादी नेता की छवि पर कश्मीर की बिगड़ती हालात एक धब्बे जैसी है. वो जल्द से जल्द कोई हल चाहते हैं. जून में अमरनाथ यात्रा भी शुरू होनी है. उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी से केंद्र पल्ला नही झाड़ सकता.

आनन-फानन में राम माधव को श्रीनगर भेज कर महबूबा को संदेश पहुंचाया गया कि मोदी सरकार सख्त कदमों की अपेक्षा करती है. अभयदान पाने महबूबा दिल्ली भागी चलीं गईं. और वापसी में कुछ महीनों की मोहलत ले आईं और साथ ले आईं कठपुतली सरकार का तगमा.

इस मोहलत में महबूबा सरकार आम कश्मीरियों को मुख्यधारा में जोड़ पाएंगी यह असंभव सा काम है. हां वो मलहम लगाने का काम जरूर कर सकती हैं.

यूनिफाइड कमांड की बैठक में महबूबा ने जिस हीलिंग टच की बात कही थी उस हीलिंग टच पर सेना से पहले सरकार को खुद काम करना चाहिए.

आम कश्मीरी को यह भरोसा दिलाना होगा कि यह उनकी सरकार है. कोई कठपुतली सरकार नही. जब तक कश्मीरियों को लोकतंत्र में उनका वाजिब हिस्सा नही मिलेगा वो यूं ही भटकता रहेगा.