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जेपी का सिद्धांत था, अमीरों से चंदा जरूर लीजिए लेकिन...

आज की राजनीतिक स्थिति में जयप्रकाश नारायण की बात मायने रखती है

Surendra Kishore

जयप्रकाश नारायण ने सत्तर के दशक में कहा था कि ‘कोई भी पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता, जिसका आय का अपना कोई स्रोत नहीं हो,अपने संपन्न व्यक्तिगत मित्रों की सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता.’

जेपी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आरोप का जवाब दे रहे थे.


1974 के बिहार आंदोलन के, जिसे जेपी आंदोलन भी कहा गया, दौरान प्रधानमंत्री ने भुवनेश्वर में कहा था कि ‘जो लोग पैसे वालों से मदद लेते हैं, उनसे रिश्ता जोड़े रहते हैं, वे कैसे भ्रष्टाचार के बारे में बोलने का दुःसाहस करते हैं?’

इंदिरा गांधी के इस बयान पर जेपी सख्त नाराज थे. उसका जेपी ने जवाब भी दिया था.

याद रहे कि जेपी के नेतृत्व में जारी बिहार आंदोलन के मुख्य मुद्दे थे भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और गलत शिक्षा नीति. जेपी ने अपने गुजारे के लिए अमीर लोगों से पैसे जरूर लिए थे,पर उन्होंने उन पैसों में से अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं बनाई. जेपी का जीवन आंदोलनकारियों के लिए संदेश था. पर कुछ ही आंदोलनकारियों ने उस संदेश को ग्रहण किया.

जेपी पटना के कदमकुआं मुहल्ले के जिस चरखा समिति भवन में रहते थे, वह भवन भी जेपी की निजी संपत्ति नहीं थी. दूसरी ओर तब तक इंदिरा गांधी के दिल्ली के पास मेहरौली के फार्म हाउस और संजय गांधी के मारूति कार कारखाने की चर्चा आम लोगों की जुबान पर थी. तब का राजनीतिक संघर्ष भी इन दो राजनीतिक शैलियों वाले नेताओं के बीच था.

इंदिरा की शैली को 1977 के चुनाव में जनता ने नामंजूर कर दिया था. ऐसे आज जब एक बार फिर इस देश में भ्रष्टाचार और नेताओं की निजी संपत्ति का विवाद चर्चा में है तो चंदे के बारे में इंदिरा -जेपी विवाद-संवाद का जिक्र मौजूं होगा.

जेपी के पैसे वालों से संबंध को लेकर इंदिरा गांधी के भुवनेश्वर भाषण से पहले भी जेपी के निजी खर्चे पर विवाद उठा था.

जेपी ने उसका जवाब भी दिया था. ‘एवरीमेंस’ नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के 13 अक्तूबर 1973 के अंक में जेपी ने इस संबंध में लेख लिखा था.  ‘टू द डिट्रेक्टर’ शीर्षकांतर्गत अपने लेख में जयप्रकाश नारायण ने विवरण के साथ साफ-साफ यह लिख दिया कि उन्होंने पिछले वर्षों में अपना निर्वाह कैसे किया.

उधर इंदिरा गांधी के भाषण के जवाब में जेपी ने यह भी कहा था कि ‘यदि इंदिरा जी के मापदंड से मापा जाए तो महात्मा गांधी ही सबसे भ्रष्ट व्यक्ति माने जाएंगे. क्योंकि महात्मा जी के सभी सहयोगियों का पोषण उनके धनी प्रशंसकों द्वारा किया जाता था.'

जेपी ने यह भी कहा था कि ‘मुझे आश्चर्य है कि कब तक इस देश के लोग अपने उच्चपदस्थ और शक्तिशाली व्यक्तियों की ऐसी उटपटांग बकवास को सहन करते रहेंगे? मैं अवश्य कहूंगा कि वह उस स्तर पर उतर रही हैं जिस स्तर पर मैं नहीं उतर सकता. मैं विनम्रतापूर्वक यह भी कहना चाहूंगा कि मैं उस संस्कृति का व्यक्ति हूं ,जो कभी मुझे यह अनुमति नहीं देती कि मैं किसी व्यक्ति के निजी और व्यक्तिगत मामलों पर बोलूं. मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैं देश के शक्तिशालियों और उच्चपदस्थों के सार्वजनिक अन्यायों के खिलाफ खुलकर बोलता रहूंगा. इसके लिए मैं कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हूं.’

जेपी जब यह बात कह रहे थे कि उनके दिमाग में यह बात भी रही होगी कि महात्मा गांधी के कहने पर घनश्याम दास बिड़ला ने जेपी को अपने निजी सचिव की नौकरी दी थी. साथ ही जेपी यह बात भी नहीं भूले होंगे कि आजादी की लड़ाई के दिनों में महात्मा गांधी अपने पूंजीपति मित्रों से राजनीतिक कामों के लिए खर्च जुटाते थे. याद रहे कि उस राजनीतिक कामों में जवाहरलाल नेहरू भी सक्रिय थे.

हालांकि जवाहरलाल नेहरू पर यह आरोप कभी नहीं लगा कि उन्होंने नाजायज तरीके से पैसे कमा कर अपनी निजी संपत्ति बढ़ाई हो. एक बार उनकी पुस्तकों कीं राॅयल्टी के पैसों पर आयकर चुकाने में देरी हुई तो नेहरू ने दंड के साथ चुका दिया था.

हां, आजादी के बाद इलाहाबाद के स्वराज भवन की मरम्मत के लिए नेहरू ने जीडी बिड़ला से एक लाख रुपए जरूर स्वीकार किए. हालांकि बिड़ला जी उस काम के लिए उन्हें दो लाख देने को तैयार थे. पर नेहरू ने कहा कि एक लाख पर्याप्त होगा. नेहरू जी की तरह आज का कोई नेता होता तो एक लाख स्वराज भवन में लगाता और दूसरे लाख से अपना मकान बनवा लेता. नेहरू के निजी सचिव रहे एमओ मथाई ने पचास के दशक के इस प्रकरण का विवरण अपनी किताब में लिखा है. पचास के दशक के एक लाख रुपए की कीमत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

स्वराज भवन मोतीलाल नेहरू का निजी मकान था. उन्होंने आजादी की लड़ाई के दिनों उस मकान को कांग्रेस को दान कर दिया था. बाद में उन्होंने अपने लिए आनंद भवन बनवाया. स्वराज भवन को ट्रस्ट संचालित करता है.

क्या सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन में शामिल छात्र-युवा नेताओं के बारे में तब यह कल्पना की जा सकती थी कि कुछ दशक बाद इसी आंदोलन के कुछ नेता इंदिरा गांधी की लाइन पर भी चल पड़ेंगे?

याद रहे कि बिहार के आज के सत्ताधारी दलों के कुछ नेता तो यह सवाल भी उठा रहे हैं कि राजनीति में आज कौन हरिश्चंद्र है? पर दूसरा पक्ष यह दावा भी कर रहा है कि उसके नेता के पास तो संपत्ति के नाम पर सिर्फ टूटा-फूटा पुश्तैनी मकान भर है. देखना दिलचस्प होगा कि आज जारी बिहारी महाभारत का कैसा हश्र होता है!