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बीजेपी से अलग कैसे है कांग्रेस और सिद्धारमैया की झंडा राजनीति?

सिद्धारमैया झंडा राजनीति को प्राथमिक मुद्दा बनाने पर तुले हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि बीजेपी की 'राष्ट्रवादी' राजनीति कहीं कर्नाटक में भी लहर पैदा न कर दे

Ravi kant Singh

कर्नाटक में चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं. दंगल में पार्टियां तो कई हैं लेकिन असली जंग कांग्रेस और बीजेपी में ही है. राष्ट्रीय स्तर की इन दोनों पार्टियों के अपने-अपने मुद्दे हैं. कोई विकास की बात कर रहा है तो कोई राजनीतिक हिंसा और प्रतिहिंसा की. कोई टीपू सुल्तान के विरोध में खड़ा है तो कोई उनके पक्ष में. इस बीच प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एक अलग सुर अलापा है.

मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को अचानक ‘कन्नड़ स्वाभिमान’ की याद आई है जिसमें उन्होंने कर्नाटक के लिए एक अलग झंडे का मसला छेड़ दिया है. आनन-फानन में एक झंडे का अनावरण भी कर दिया गया. लेकिन सवाल है कि उनका झंडा बीजेपी के उस झंडे से अलग कैसे है जिसे लेकर पूरे देश में सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती रही हैं कि बीजेपी राष्ट्रीय झंडे का बेजा इस्तेमाल कर लोगों के जज्बात से खेलती है. क्या सिद्धारमैया से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपकी राजनीति बीजेपी की झंडा राजनीति से अलग कैसे है?


सिद्धारमैया की अजब मांग

चौंकाने वाली बात तो ये है कि कांग्रेस और सिद्धारमैया फिलहाल झंडा राजनीति को प्राथमिक मु्द्दा बनाने पर तुले हैं. ऐसा इसलिए कि उन्हें पता है कि बीजेपी की 'राष्ट्रवादी' राजनीति कहीं कर्नाटक में भी लहर पैदा न कर दे. तो फिर क्यों न कन्नड़ झंडे की राजनीति को स्थानीय गौरव से जोड़कर लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया जाए?

इसके लिए बिसात भी तगड़ी बिछी है. बीजेपी को हर हाल में घेरने के लिए कांग्रेस ने यह भी पूछ लिया कि क्या प्रदेश पार्टी प्रमुख बी एस येदियुरप्पा सहित बीजेपी सांसद झंडे के लिए केंद्र पर दबाव बनाएंगे? सिद्धारमैया को भलीभांति पता है कि केंद्र चुनाव से पूर्व झंडा मामले में उड़ता तीर मोल नहीं ले सकता. तब फिर क्यों सवाल उठाए जा रहे हैं?

इसलिए कि चुनाव मैदान में यह कहा जा सके कि बीजेपी को कर्नाटक के ‘गौरव’ से क्या लेना-देना जो झंडे को मंजूरी दिलवाए. अब हमें उस दिन का इंतजार करना चाहिए जब चुनावी मौकापरस्ती को भांपते हुए सिद्धारमैया झंडे की मंजूरी का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजें और केंद्र इस पर अपनी प्रतिक्रिया दे.

फोटो रॉयटर से

क्या कर्नाटक को कश्मीर बनाना चाहते हैं सिद्धारमैया

जम्मू कश्मीर को छोड़कर देश में किसी भी राज्य में अलग झंडे की परंपरा नहीं है और संविधान में मुहैया कराने का प्रावधान भी नहीं. तब क्या जरूरी है जो स्थानीय स्तर पर चुनावी जीत-हार के लिए झंडा मामले को घसीटा जाए. इसलिए कि भारत राष्ट्र-राज्य के जहन में झंडे की भावना काफी अंदर तक रची बसी है जिसे पार्टियां भुनाने का कोई कसर नहीं छोड़तीं. कर्नाटक का मामला भी कुछ ऐसा ही है.

यह हमें जान लेना चाहिए कि भारतीय ध्वज संहिता और भारतीय आधिकारिक प्रतीक (अनुचित इस्तेमाल पर पाबंदी) कानून में केवल तिरंगे का संदर्भ है और किसी भी अन्य झंडे की बात नहीं है. ऐसे में सवाल वाजिब है कि सिद्धारमैया किस कानून और संदर्भ के हवाले से चुनावी राजनीति में ‘झंडा’ उठा रहे हैं. अगर वे कर्नाटक को कश्मीर बनाना चाहते हैं तो क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं कि जम्मू कश्मीर का झंडा इसलिए है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत उसे विशेष दर्जा प्राप्त है.

तब तो सिद्धारमैया को सबसे पहले कर्नाटक के लिए स्पेशल स्टेटस की मांग करनी चाहिए न कि स्पेशल झंडे की. जब कई राज्य स्पेशल स्टेटस के लिए केंद्र के माथे पर तबला अड़ाए बैठे हैं तो सिद्धारमैया भी यही करते, फिर झंडे की बात अभी क्यों. पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें ‘कन्नड़ स्वाभिमान’ को भुनाना है.

कर्नाटक के सीएम को कोई ये तो बताए कि एक राष्ट्र के तौर पर भारत में केवल एक झंडा है और अगर कुछ राज्य या कुछ जिले या कोई गांव अलग झंडे की मांग करने लगे तो अव्यवस्था पैदा होगी. फिर उस अव्यवस्था के शिकार होंगे निर्दोष लोग न कि नेता या हुक्मरान. लेकिन जब चुनाव सिर पर हो तो इसकी फिक्र कौन करता है.