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नोटबंदी के विरोध से क्या गुजरात, हिमाचल जीत जाएंगे राहुल

गुजरात चुनाव में यदि राहुल को सफलता मिलती है तो हालिया राजनीति बिलकुल बदल जाएगी

Sanjay Singh

राहुल गांधी को शायद लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी कर देश को सन्न कर देने वाले फैसले के एक साल बाद यह मुद्दा हिमाचल प्रदेश और गुजरात असेंबली इलेक्शंस में कांग्रेस को जीत दिलाने वाला फॉर्म्यूला साबित होगा.

अगर वह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को बरकरार रखने में कायम होते हैं और गुजरात से बीजेपी को सत्ता से बाहर कर पाते हैं तो वह खुद को एक लीडर के तौर पर स्थापित कर पाएंगे और 2019 में मोदी को चुनौती देने की हैसियत में होंगे.


गुजरात चुनाव के नतीजे राजनीति और मीडिया की भविष्य की बहस की शक्ल तय करेंगे. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए इन चुनावों की कितनी बड़ी अहमियत है. ऐसा इस वजह से भी है क्योंकि गुजरात पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का गृह राज्य है. बीजेपी ने गुजरात में 1995 से कोई इलेक्शन नहीं हारा है.

राहुल और उनके मुख्य रणनीतिकारों का सोचना है कि नोटबंदी और जीएसटी को लेकर हो रही शुरुआती दिक्कतों से उनके और कांग्रेस के पक्ष में हवा बन सकती है. कांग्रेस उपाध्यक्ष ने सोमवार को केंद्र और राज्य के पार्टी नेताओं के साथ बैठक की. इस बैठक में नोटबंदी की सालगिरह 8 नवंबर को ब्लैक डे के तौर पर मनाने के लिए कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने और कार्यक्रमों की रूपरेखा तय की गई. इनमें जिला और राज्य मुख्यालयों पर नोटबंदी के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करना शामिल है.

इस बैठक के बाद राहुल गांधी ने मीडिया से बात की और नोटबंदी को एक भयंकर तबाही बताया. कुछ देर बाद पार्टी के प्रवक्ता ने नोटबंदी को अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बताया. उन्होंने मनमोहन सिंह के पिछले शीत सत्र में राज्यसभा में दिए गए बयान को भी दोहराया जिसमें सिंह ने कहा था कि यह एक संगठित लूट और कानूनी तरीके से लोगों से संपत्ति छीनने का मामला है.

किसकी नोटबंदी सालगिरह होगी सफल

कांग्रेस के नोटबंदी की सालगिरह को ब्लैक डे के तौर पर 8 नवंबर को मनाने और सभी राज्यों में विरोध-प्रदर्शन ऐसे वक्त पर होंगे जबकि पूरे हिमाचल प्रदेश में और गुजरात के कुछ हिस्सों में पहले चरण के चुनाव के लिए कैंपेन समापन पर होगा. कांग्रेस की उम्मीद होगी कि वह वोटिंग पैटर्न को प्रभावित कर पाए. हिमाचल प्रदेश में 9 नवंबर को चुनाव हैं और गुजरात की 89 सीटों पर भी इसी दिन वोट डाले जाएंगे. लेकिन, कांग्रेस की योजना को चुनौती भी मिलेगी. बीजेपी ने 8 नवंबर को एंटी-ब्लैक मनी डे के तौर पर मनाने का ऐलान किया है और वह इसी तरह से इस दिन कार्यक्रम मनाएगी. बीजेपी को उम्मीद है कि कांग्रेस के ब्लैक डे और उसके एंटी-ब्लैक मनी डे के बीच वोटर उसके साथ आएंगे.

अब पॉपुलर सेंटिमेंट्स के हिसाब से इस तथ्य पर विचार करते हैं. इसी सेंटिमेंट को अपने पक्ष में लाने के लिए राहुल गांधी ने नोटबंदी के फैसले का कड़ा विरोध करने की राह चुनी है. नोटबंदी आई और चली गई. अब इसकी कुछ धुंधली यादें बाकी रह गई हैं और इसको लेकर अनुभव इस बात पर निर्भर करता है कि आप सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्पेक्ट्रम में कहां मौजूद हैं. 8 नवंबर 2016 से जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रात 8 बजे देश को नोटबंदी के फैसले से चौंका दिया था, उसके बाद से मार्च मध्य तक हर कोई इसके गुणों और अवगुणों के बारे में चर्चा करते रहे. इस अवधि में यूपी समेत पांच राज्यों में असेंबली इलेक्शंस हुए और बैंक और एटीएम में फिर से पैसा आ गया.

राहुल गांधी, उनके नए दोस्त और गठजोड़ पार्टनर अखिलेश यादव की उत्तर प्रदेश के चुनावों में हुई बुरी हार और बीजेपी की जबरदस्त जीत ने नोटबंदी की बहस को पीएम मोदी के पक्ष में तय कर दिया. बीजेपी की सरकार चार राज्यों में बनी जबकि कांग्रेस एक राज्य पंजाब में सरकार बनाने में सफल रही. लेकिन, पंजाब का मामला कुछ अलग था, वहां नोटबंदी के मुकाबले बादल के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर ज्यादा बड़ी वजह थी.

बीजेपी ने नोटबंदी के बाद देशभर में हुए हर चुनाव जीते या स्थानीय निकाय, म्यूनिसिपल और पंचायत चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया. गरीबों ने मोदी को समर्थन दिया और मध्य वर्ग के बड़े तबके ने भी ऐसा ही किया. इन वर्गों ने ब्लैक मनी, करप्शन और टेरर और ड्रग फंडिंग के खिलाफ उठाए गए बड़े कदम का समर्थन किया. साथ ही कमजोर तबके द्वारा इसे गरीबों के लिए और अमीरों के खिलाफ कदम के तौर पर देखा गया. निश्चित तौर पर मोदी इस बहस में जीतकर उभरे हैं. लोगों का मूड और पॉपुलर राय निश्चित तौर पर उनके पक्ष में रही है.

नए इंडिया में नए राहुल

सात-आठ महीने बाद राहुल गांधी एक ऐसे मसले को फिर से उठा रहे हैं जिसमें उन्हें पहले ही हार का सामना करना पड़ा है. वह अब सोच रहे हैं कि नोटबंदी और कारोबारियों और ट्रेडर्स को जीएसटी के चलते जिन दिक्कतों को उठाना पड़ रहा है उन्हें मिलाकर एक मुद्दा बनाया जाए और इसका फायदा चुनावी राजनीति में लिया जाए. राहुल गांधी इसे लेकर काफी आशावादी हैं. कोई एक नाकामी या नाकामियों की श्रंखला कांग्रेस को उसी रास्ते पर उसी नेतृत्व के साथ आगे बढ़ने से नहीं रोक पा रही है. अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस राहुल गांधी को अपनी मां सोनिया गांधी से पार्टी प्रेसिडेंट का पद लेने के लिए बार-बार उत्साहित नहीं करती.

नवंबर 2016 से मार्च 2017 और अक्टूबर 2017 के बीच एक बदलाव हुआ है. कुछ एनालिस्ट्स और तथाकथित सेक्युलर-लिबरल्स को राहुल गांधी में फिर से उम्मीद दिखाई देने लगी है. उन्हें लग रहा है कि राहुल इस बार मोदी को चुनौती देने की हैसियत में हैं. स्तंभकार एजाज अशरफ ने फर्स्टपोस्ट में न्यू इंडिया की बदौलत नए राहुल गांधी हैः कांग्रेस वीपी का आइडिया देश के सेंटिमेंट को बयान करता है’ नाम से एक लेख में लिखा है, ‘बीजेपी इस बात से नर्वस है कि उसके हिंदुत्व पर हक को चुनौती मिल रही है. गुजरात चुनाव कांग्रेस जीते या हारे, राहुल को अब से गंभीरता से लिया जाने लगा है. ऐसा इस वजह से है क्योंकि राजनीतिक संदर्भ बदल गया है. लोगों को लग रहा है कि सरकार की मुखालिफत करने की ताकत राहुल में है. अगर राहुल गुजरात का चुनाव जीत जाते हैं तो निश्चित तौर पर कहानी पूरी तरह से बदल जाएगी.’