ऐ कातिब तकदीर मुझे तू इतना बता दे,
क्यों मुझसे खफा है, क्या मैंने किया है...
तकदीर जिंदगी से ज्यादा मौत के वक्त अपना रंग दिखाती है. कुछ लोग अपनों के बीच दम तोड़ते हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो अकेले ही कयामत का सफर पूरा करते हैं. मुर्दाघरों में पड़ी बेशुमार लाशें, जिनकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता, उनका निशुःल्क दाह संस्कार जितेंदर सिंह शंटी करवाते हैं.
शंटी ने पूर्वी दिल्ली के राम बोध घाट को चलाने का जिम्मा उठाया है. घाट पर एक शिव मंदिर है. एक लकड़ियों का गोदाम है. और एक अस्थियों का कमरा है. शंटी के वॉलेंटियर महीने में एकबार इन अस्थियों को हरिद्वार गंगा में बहाने ले जाते हैं.
कौन करता है मौत के बाद इंतजाम?
शंटी के एक दर्जन से ज्यादा शव वाहन सरकारी अस्पताल और पुलिस के मुर्दा घरों के चक्कर लगाते रहते हैं. उनकी संस्था शहीद भगत सिंह सेवा दल 5,000 से भी ज्यादा दाह संस्कार करवा चुकी है. इसकी शुरुआत 1996 में हुई थी.
शंटी कहते हैं, 'कभी एक मृत लड़के का बाप, कभी एक मृत बाप का लड़का, यही मेरे जीवन का सत्य है.' वह धर्म से सिख हैं.
मौत ही नहीं जिंदगी बचाना भी है काम
जब भी दिल्ली में दुर्घटना होती है. मसलन 2005 में सरोजिनी नगर और पहाड़गंज में बम धमाके, 2010 में विश्वास नगर का फैक्ट्री विस्फोट या ललिता पार्क में इमारत गिरने से हुई लोगों कि मौत का मामला हो. शंटी के वॉलेंटियर्स हर बार आकर लोगों की जान बचाते हैं. जबकि सरकार लावारिस लाशों के लिए कुछ खास नहीं कर पाती है.
दिल्ली के हर बड़े अस्पताल में मुर्दाघर हैं. लेकिन, सरकारी अस्पतालों में लाशों की तादाद ज्यादा है और जगह काम. भारत में आज भी यह कानून है कि अस्पताल में इलाज के दौरान अगर मौत हुई को पोस्टमार्टम किया जाएगा.
मुर्दाघरों में काम का बढ़ता बोझ
इसका दबाव मुर्दाघरों में काम करने वालों पर पड़ता है. गुरु तेग बहादुर अस्पताल की मॉर्चरी का मुआयना करने से यह पता चला कि ग्रेड IV के वर्कर ही पोस्टमार्टम का काम संभाल रहे हैं. ये कर्मचारी कॉन्ट्रैक्ट पर होते हैं.
फोर्थ ग्रेड के ये कर्मचारी ही सूई और धागों से लाशों की चीर-फाड़ यानी पोस्टमार्टम करते हैं. एंबुलेंस चलाने वाले जितेंदर का कहना है कि ऐसा काम करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए.
दिल्ली के नार्थ कैंपस के पास सब्जी मंडी मॉर्चरी में काम करने वाले लड़कों ने बताया कि उन्हें हर महीने 10,000 से भी काम वेतन मिलता है. कई बार महीनों तक सैलरी नहीं मिलती. अंधेरे बंद कमरों में लाशों के बीच काम करते लोगों पर सरकार की नजर तक नहीं पड़ती.
कब्रगाहों पर भी मजदूरों की जेब पर मार
दिल्ली के मुस्लिम और ईसाई कब्रगाहों पर काम करने वाले मजदूरों का हाल भी बेहाल है. दिल्ली गेट पर मुसलमानों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान है. यहां एक लाश को दफनाने के लिए मजदूरों को सिर्फ 100 रुपए मिलते हैं.
मजदूर बताते हैं कि जनाजा कभी भी आ सकता है. लिहाजा उन्हें हर वक्त कब्रिस्तान में रहना पड़ता है. ये कहते हैं, 'जो अच्छा आदमी था, जो बुरा आदमी था, हमारे लिए सब बराबर हैं, हम सबको मिट्टी में दफनाते हैं.' यहां शाहरुख खान के माता पिता की भी कब्र है.
वहीं लोदी रोड पर स्थित पंच पीरन कब्रिस्तान को गुलाम मोहम्मद चलाते हैं. उनका बताया कि वक़्फ़ बोर्ड ने यहां उनके घर को 2007 में अतिक्रमण करार कर दिया था. अब वे एक झोपड़ी में रहते हैं.
उत्तरी दिल्ली की निकल्सन सिमेट्री को चलाने वाले मजदूरों का ठिकाना कब्रिस्तान ही है. इनका कहना है कि सरकार को बिजली-पानी का खास ख्याल रखना चाहिए. जगह की कमी के कारण एक कब्र में दो शव दफनाए जा रहे हैं.
यहां काम करते लोगों का कहना है कि कब्र की खुदाई में जहरीली गैस निकलती है. मजदूरों की मांग है कि इससे बचाव के लिए कुछ सुविधा मिलनी चाहिए.