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रेल यात्रियों की मौत को आंकड़ों में नहीं उलझा सकते सुरेश प्रभु

सुरेश प्रभु को बहुत ज्यादा उम्मीदों से लाया गया था. हालिया हादसों की कीमत उन्हें चुकानी पड़ सकती है

Sanjay Singh

पिछले पांच दिन में दो रेल दुर्घटनाओं के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विश्वास भारतीय रेल के मौजूदा नेतृत्व ढांचे, अधिकारियों और मंत्रियों पर डगमगा गया है. बुधवार को घटनाएं तेजी से घटीं. रेलवे बोर्ड के चेयरमैन एके मित्तल का इस्तीफा. हादसों की 'पूरी नैतिक जिम्मेदारी' लेते हुए रेल मंत्री सुरेश प्रभु की इस्तीफे की पेशकश.

एयर इंडिया के अध्यक्ष अश्विनी लोहानी को रेलवे बोर्ड का नया चेयरमैन नियुक्त करना. ये सभी घटनाएं चार घंटे से भी कम समय में हुईं. ये घटनाएं स्पष्ट संकेत हैं कि प्रधानमंत्री रेलवे में नरम रवैया अख्तियार करने के मूड में कतई नहीं हैं. वो रेलवे की पुरानी समस्याओं से निपटने पर पूरा ध्यान लगाना चाहते हैं. आने वाले दिनों और सप्ताहों में रेलवे में कई बड़े बदलाव दिखेंगे.


लोहानी को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन नियुक्त करने वाली अप्रत्याशित अधिसूचना ऐसे वक्त आई, जब मित्तल के इस्तीफे को लेकर अटकलों का बाजार गर्म था. अटकलें हैं कि मित्तल ने रेलवे बोर्ड के चेयरमैन पद से खुद इस्तीफा नहीं दिया. उनसे इस्तीफा मांगा गया या फिर उन्हें कार्यकाल खत्म होने से एक साल पहले ही बर्खास्त कर दिया गया. इंडियन रेलवे स्टोर सर्विस के अधिकारी मित्तल अगले साल जुलाई मे रिटायर होने वाले थे. उन्हें पिछले वर्ष दो साल का सेवा विस्तार मिला था.

परिस्थितियों के अनुसार, प्रभु का प्रधानमंत्री मोदी को इस्तीफे की पेशकश की अलग-अलग व्याख्या हो सकती है. रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने फर्स्टपोस्ट को बताया, ' प्रभु ईमानदार और काम के प्रति समर्पित थे लेकिन वो व्यावहारिक नहीं हैं. वो निरीक्षण के लिए ट्रेन से यात्रा करना पसंद नहीं करते हैं.

वो विस्तार से चीजों को समझने के इच्छुक भी नहीं हैं. ऐसे में रेलवे मंत्रालय प्रधानमंत्री की अपेक्षाओं को कैसे पूरा कर सकता है? अगर मदद करने वाला मंत्री और रेलवे बोर्ड का चेयरमैन व्यावहारिक दृष्टिकोण से दूर हो तो ऐसा लंबे वक्त तक नहीं चल सकता था. और अब ठीक ऐसा ही हुआ है.'

प्रभु ने कई ट्वीट कर बताया कि वो प्रधानमंत्री से मिले और इस्तीफे की पेशकश की. लेकिन दिल्ली की सत्ता के गलियारों में इसे लेकर किसी को हैरानी नहीं हुई.

प्रभु के ट्वीट इस प्रकार हैं: मैं आदरणीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला और पूरी नैतिक जिम्मेदारी ली. आदरणीय प्रधानमंत्री ने मुझसे इंतजार करने को कहा है.'

'मैं इन दुर्भाग्यपूर्ण हादसों, यात्रियों को चोट लगने और बेशकीमती जिंदगी जाने से बेहद दुखी हूं, इससे मुझे बेहद पीड़ा हुई है.'

'प्रधानमंत्री ने जिस न्यू इंडिया का सपना देखा है, उसके लिए कुशल और आधुनिक रेलवे जरूरी है. मैं वादा करता हूं कि इस रास्ते पर रेलवे आगे बढ़ रहा है.'

'प्रधानमंत्री के नेतृत्व में, मैंने सभी क्षेत्रों में दशकों की उदासीनता से पार पाने के लिए चरणबद्ध सुधार की कोशिश की. इसेस निवेश बढ़ा और नए कीर्तिमान स्थापित हुए.'

'तीन साल से कुछ कम समय में मंत्री के रूप में मैंने रेलवे की बेहतरी के लिए अपना खून-पसीना लगाया है.'

पिछले कुछ समय से सुरेश प्रभु को हटाने या उन्हें रेल मंत्रालय से बाहर करने की अटकलें सत्ताधारी बीजेपी के प्रभावशाली मंडलियों और सरकार के उच्च गलियारों में लगातार लग रही थी. प्रभु ट्वीटर पर खासे सक्रिय हैं. उन्होंने अपनी छवि कुछ यात्रियों को तुरंत मदद पहुंचाने वाली बनाई थी. इनमें चलती ट्रेन में बच्चों को दूध से लेकर मेडिकल मदद उपलब्ध कराना शामिल है. हालांकि कई स्तरों पर उनका प्रदर्शन लचर था.

मंत्रालय से प्रभु को हटाने की अटकलें पिछले कुछ दिनों में और परवान चढ़ीं. ऐसा लगने लगा कि अगले कुछ दिनों में कैबिनेट का विस्तार और उसमें फेरबदल संभव है. बुधवार सुबह जब ट्रेन हादसे की एक और खबर आई तो ये अटकलें लगभग सही हो गईं.

रेलवे प्रधानमंत्री मोदी के दिल और दिमाग के बेहद करीब है. लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने रेल सुविधाओं और रेलवे से जुड़ी अन्य चीजों में सुधार को बड़ा मुद्दा बनाया था. रेलवे से उनकी कई पुरानी यादें जुड़ी हैं. इनमें युवा चायवाले के रूप में उनका अनुभव भी है कि क्यों रेलवे में बेहतर सुविधाओं की जरूरत है. कैसे रेलवे में सुधार से भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव संभव होगा. केंद्र में सत्ता संभालने के तीन साल बाद भी रेलवे में सबकुछ कछुए की चाल से चल रहा है.

पिछले तीन साल में रेलवे ने कितना कुछ हासिल किया ये बड़ी बहस का विषय है. लेकिन ट्रेन से सफर करने वालों के लिए सबसे बड़ी चिंता सेफ्टी और समय की पाबंदी है. भारतीय रेल नेटवर्क एशिया में सबसे बड़ा है. दुनिया में ये दूसरे स्थान पर आता है. पूरी भारतीय रेल एक मैनेजमेंट के तहत आती है. पटरियों की लंबाई 115,000 किलोमीटर है. पूरे देश में हर दिन 12,617 ट्रेनों में 23 लाख यात्री सफर करते हैं. ट्रेनों में सफर करने वाले यात्री अगर अपनी जान को लेकर खतरा महसूस करने लगे तो प्रधानमंत्री के लिए इससे बड़ी पब्लिक रिलेशन आपदा कुछ नहीं हो सकती. ऐसा तब हो रहा है, जब प्रधानमंत्री मोदी ने रेलवे और इसके यात्रियों के लिए अपने दिल के सभी दरवाजे खोल रखे हैं.

रेल मंत्रालय से प्रभु की आसन्न निकासी प्रधानमंत्री मोदी की ओर से एक व्यक्ति में दिखाए गए विश्वास और भरोसे की गलत कहानी है, जिसके बारे में सोचा गया था कि वो रेलवे में अब तक के सबसे बड़े आधुनिकीकरण को अमलीजामा पहनाएगा और यात्री व माल ढुलाई में एतिहासिक बदलाव लाएगा.

नवंबर 2014 में अपने कैबिनेट के पहले बदलाव में रक्षा और रेल मंत्रालय में नए चेहरों को लाकर मोदी ने सबको चौंका दिया था. मनोहर पर्रिकर को गोवा से लाकर रक्षा मंत्री बनाया गया था. सुरेश प्रभु को बीजेपी के बाहर से लाया गया और रेल मंत्रालय का जिम्मा दिया गया. ये मंत्रालय ऐसा है, जो लगभग सभी भारतीयों को प्रभावित करता है. प्रभु तब शिवसेना के नेता थे. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ऊर्जा मंत्री के रूप में उनका प्रदर्शन काबिलेतारीफ था. उन्हें ईमानदार, समपर्ति और सुर्खियों से दूर रहने वाला माना गया. सदानंद गौड़ा (मई 2014 से नवंबर 2014 तक रेल मंत्री) के मुकाबले प्रभु का आना स्वागतयोग्य बदलाव था.

मंत्रालय में प्रभु के एक खास अधिकारी ने कहा, 'एक और दुर्घटना की खबर से मंत्री बुधवार सुबह से ही आहत थे। कैबिनेट बैठक के बाद वो प्रधानमंत्री से मिले और अपनी भावनाएं और फैसले के बारे में बताया.'

अब एक रोचक पहलू पर विचार करें: मंगलवार शाम पत्र सूचना कार्यालय और रेल मंत्रालय ने एक बयान जारी किया। इसका शीर्षक था “ क्या रेलवे नागरिकों के लिए असुरक्षित बनता जा रहा है: मिथक बनाम वास्तविकता.'

यह विस्तृत बयान इस प्रकार था

'मिथक नंबर एक: सुरेश प्रभु के कार्यकाल में ट्रेन दुर्घटनाएं और जानमाल का नुकसान बढ़ा. वास्तविकता: इस दौरान ट्रेन हादसों में लगातार कमी आई है. 2014-15 में 135 के मुकाबले 2015-16 में ये घटकर 107 रह गईं जबकि 2016-17 में ये और कम होकर 104 पर आ गईं. तुलना करने पर पता चलता है कि यूपीए एक के दौरान हर साल औसत दुर्घटनाएं 207 थी.'

'यूपीए दो में ये आंकड़ा 135 पर था. वर्तमान सरकार में ये घटकर हर साल 115 रह गया है. हालांकि हर मानव जीवन बेशकीमती है और हमारे लिए अपूर्णीय क्षति है फिर भी मृतकों की संख्या में भी कमी आ रही है. यूपीए एक के दौरान पहले तीन साल में 759 लोगों की जान गई. यूपीए दो में ये आंकड़ा बढ़कर 938 पर पहुंच गया जबकि इस सरकार के पहले तीन साल में इसमें कमी दर्ज की गई और ये 652 है.'

यह निश्चित नहीं है कि क्या अब भी प्रभु इस बयान पर टिके रहेंगे.