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नेता पहले पार्टी बाद में, व्यक्तिपूजा से पीड़ित भारतीय लोकतंत्र

जयललिता की मौत लोकतंत्र और व्यक्तिवाद के बीच संघर्ष को जाहिर करने वाली त्रासदी है.

Bikram Vohra

भारतीय लोकतंत्र में व्यक्तिपूजा का कैंसर खत्म होने के बजाय बढ़ता जा रहा है. दशकों तक वंशवाद झेलने के बाद लगा था कि यहां पिता के बाद खाली हुए जगह को भरने के लिए बेटे और बेटी के अलावा भी विकल्प तैयार होंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. व्यक्तिपूजा अब राजनीति में जहर की तरह फैल गई है.

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की मौत लोकतंत्र और व्यक्तिवाद के बीच संघर्ष को जाहिर करने वाली त्रासदी है. अब शासनतंत्र को मूर्तिपूजा की बीमारी लग चुकी है और मतदाता इसका अंधभक्त हो चुका है.


पिछले हफ्ते ही मैंने लिखा था:  जयललिता के वारिस ओ.पन्नीरसेल्वस ने उनकी खुशामद करने के लिए कुर्सी पर तस्वीर रखकर शासन किया. पन्नीरसेल्वस की चापलूसी से साबित होता है कि इन नेताओं के पीछे काम करने वाले कार्यकर्ता कितने नाकारा हैं. नेता के न होने पर इनकी नाकाबिलियत  जाहिर होती है.

विस्फोटक स्थिति

पार्टी की नेता ने अपने पीछे कभी दूसरी पंक्ति के नेता तैयार ही नहीं होने दिए. अब एआईएडीएमके के पार्टी पदाधिकारियों और शशिकला के बीच टकराव हो रहा हैं. इसके कारण पार्टी में बिखराव के हालात बन गए है.

सोजन्य: पीटीआई

नेताओं की ताकत बढ़ती जा रही है. उनके पीछे चलने उनकी परछाई में ही खुश हैं. पिछलग्गु जिस नेता की परछाई में छिपे रहते हैं कई बार उसी नेता का बोझ भी उन पर आ गिरता है. ऐसे में नेता के विशालकाय व्यक्तित्व का बोझ उठा पाना इनके बूते में नहीं होता.

इस तरह के हालात हम चारों तरफ देख रहे हैं. फिर चाहे वह मायावती हो या फिर ममता बनर्जी, यूपी का यादव परिवार हो या फिर नई राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल. इन सभी की पार्टी दोयम दर्जे पर है और ये खुद पहले. इनकी राय ही पार्टी लाइन होती है.

ये नेता सनक की हद तक असहिष्णु हैं. इस मानसिक सोच के साथ ये राज्य को अपनी जागीर की तरह चलाते हैं. जो इनके साथ नहीं होता उसे ये अपने खिलाफ मानते हैं.

सवाल पूछना बंद

हालात बेकाबू हो चुके हैं. हमारे मतदाता भी यह मान चुके हैं कि पार्टियां ऐसे ही चलती हैं. जबकि मतदाता को कैंसर ठीक करने वाले रेडिएशन का काम करना चाहिए था.

इन्हें कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता. उल्टे जो सत्ता में हो उसे पूजा जाने लगता है.

कुछ दिनों पहले मैंने एक चर्चा के दौरान बताया था कि कैसे नरेंद्र मोदी की अपार सफलता भी अब एक व्यक्ति की होकर रह गई है.  मोदी के अश्वमेध यज्ञ के रथ में केवल एक ही सीट है. जिस पर वो खुद सवार हैं.

ऐसा लग रहा है जैसे 125 करोड़ देशवासी तमाशबीन बनें हर रोज उनके नए करतब देख रहे हों. मोदी का महिमामण्डन करने वाली तस्वीरों में शायद ही कोई और दिखे. अधिकतर उनकी तस्वीरें सेल्फी अंदाज में ही होती हैं.

आजकल पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए किसी की शख्सियत रातों रात गढ़ी जाती है. ये अचानक आयी एक बाढ़ की तरह होता है. जिसके बहाव में बहने से कोई खुद को रोक नहीं पाता.

हमारे यहां नेता या मंत्री होने का मतलब औसत दर्जे का होना माना जाने लगा है. यह हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात है. नेता अपनी नाकाबिलियत छिपाने के चक्कर में अहंकार से भर जाते हैं. उनके सनकी फैसले एकतरफा हो जाते हैं.

दोयम दर्जे के औसत नेताओं में जो थोड़ी बहुत काबिलियत बची होती वह विपक्ष का जवाब देने में जाया हो जाती है. अपने नेता पर लगाए गए आरोपों को देश का अपमान बताया जाने लगता है. ऐसे औसत नेता ही अपने नेता पर लगे आरोप के जवाब में दूसरों को देशद्रोही बताने लगते हैं.

कुचले जा चुके कीड़े की तरह धूल-मिट्टी में पड़े छटपटाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया बन गया है.