view all

वन बेल्ट वन रोड : इतिहास चीन के साथ नहीं है

सीपीईसी जैसी सैद्धांतिक वजह से भारत ने बैठक का विरोध किया है

Prakash Nanda

क्या भारत ने 14 मई को बीजिंग में शुरू हुए चीनी वन बेल्ट वन रोड (ओबोर) के दो दिनों तक चलने वाले समागम में भाग न लेकर खुद को नुकसान पहुंचाया है ?

इस सवाल का भारत में बहुत सारे लोगों का जवाब 'हां' में होगा. जाने माने पत्रकार प्रेम शंकर झा, शायद इसी विचार को सबसे अच्छा मानते हैं, जब वो मामले को लेकर ये तर्क देते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजिंग नीति 'चीन के चेहरे से चिढ़े भारत की नाक कटाने' जैसी है.


हालांकि ओबीओआर के लिए इन उत्साही लोगों को अपने रुख पर दोबारा विचार करना चाहिए, क्योंकि कई चीनी विशेषज्ञ तक इस ऊहापोह की स्थिति में हैं कि आखिर ओबीओआर किस तरह आगे बढ़ेगा?

शी जिनपिंग के दिमाग की उपज

मूल रूप से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दिमाग की उपज ओबीओआर 68 से अधिक देशों में फैले यूरेसिया और प्रशांत महासागर में व्यापार-कारोबार और आधारभूत संरचना वाली परियोजनाओं का एक संग्रह है. इसकी परिधि में 4.4 अरब लोग और वर्ल्ड डीजीपी का 40% हिस्सा आता है.

लेकिन, किसी के भी विचार इस बात को लेकर साफ नहीं हैं कि आखिर ये परियोजना किस तरह कार्य करेगी. जैसा कि पेकिंग यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर क्रिस्टोफर बाल्डिंग कहते हैं, 'इसका मतलब है एक ही समय में सब कुछ और कुछ भी नहीं.'

च्युंग कांग स्थित ग्रेजुएट स्कूल ऑफ बिजनेस में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर चेन्ग्गैंग ज़ू ने सीएनएन को बताया कि यह ओबीओआर किसी भी 'ठोस' के बजाय 'दर्शन' या 'पार्टी लाइन' के रूप में कुछ सोचने में मदद करता है.

सीएनएन के मुताबिक चीन में यूरोपीय संघ चैंबर ऑफ कॉमर्स के जेग वुटके ने चेतावनी दी है कि इस पहल का बहुत तेजी के साथ 'चीनी' कंपनियों द्वारा अपहरण कर लिया गया है, जिन्होंने इसे पूंजी नियंत्रण से बचने के लिए एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया है. साथ ही अंतर्राष्ट्रीय निवेश और भागीदारी के रूप में इसे छिपाते हुए देश के बाहर पैसे की तस्करी कर ली है.

भारी तामझाम और जोर-शोर से हुए प्रचार के बीच बीजिंग के इस समागम की सच्चाई यही है कि सिर्फ 29 सरकारों के राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें भाग लिया, जबकि ओबीओआर में 68 देश शामिल हैं.

इस समागम में भाग नहीं लेने के पीछे भारत की सैद्धांतिक वजह साफ है. ओबीओआर में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) शामिल है, जो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरता है. ये गलियारा भारत का हिस्सा है और इसलिए भारत की संप्रभुता के लिए यह एक चुनौती है.

इस पक्ष की जबरदस्त विशेषताएं भी हैं और जिन्हें शी ने खुद कबूला है. यह अजीबोगरीब लग सकता है, लेकिन जैसा कि शी ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा है 'सभी देशों को एक दूसरे की संप्रभुता, सम्मान और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए और एक-दूसरे के अहम हितों और चिंताओं का भी ख्याल करना चाहिए.'

सिर्फ खुद के बारे में सोचता है चीन

वन बेल्ट वन रोड बैठक की तस्वीर

चीन हमेशा अपने अंतरराष्ट्रीय बर्ताव को अपने मूल हितों से जोड़ते हुए अपने सम्मान को ज्यादा तरजीह देता रहा है. सीपीईसी के मामले में यही तर्क भारत के साथ भी लागू होना चाहिए. यह सिद्धांत का सवाल है, जिसे आर्थिक लाभ और हानियों के नजरिये से नहीं तौला जा सकता है.

संक्षेप में कहा जाए तो ओबीओआर कार्यक्रम से पैदा होने वाले जवाबों की तुलना में सवालों की संख्या कहीं ज्यादा हैं. जैसे कि शी जिनपिंग ने पहले चरण में 124 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया है. बाद के चरणों में, परियोजना में ट्रिलियन डॉलर जोड़े जाएंगे. लेकिन सवाल है कि इसके बदले क्या मिलने वाला है ?

यहां ये विचार करने की जरूरत है कि करीब एक दशक पहले आई उस वैश्विक वित्तीय मंदी के बाद ही ओबीओआर की जरूरत सामने आई थी, जिसने निर्यात केंद्रित चीनी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया था.

हालांकि, आर्थिक विकास की दुनिया की सर्वोच्च दर को बनाए रखने के लिए चीनी सरकार ने विदेशी जमीन पर पूंजी, उद्यमों और परियोजनाओं को उड़ेलने की सोची थी ताकि चीनी उत्पादों के लिए मांग पैदा की जा सके.

इस प्रक्रिया में चीनियों ने कई तरह की चीजों का उत्पादन कुछ ज्यादा ही कर लिया. इनमें आयरन, सीमेंट, एल्यूमीनियम, कांच, कोयला, जहाज निर्माण और सौर पैनल शामिल हैं. इस तरह, ओबीओआर को इस समस्या के जल्द समाधान के रूप में देखा गया था ताकि ओबीओआर की आधारभूत संरचना के निर्माण में अतिरिक्त उत्पादों को खपाया जा सके.

लेकिन इसके बाद जितना कहना आसान था, उतना ही उसे करना मुश्किल था. ओबीओआर को जब लागू किया जाएगा, तो वह दुनिया के राजनीतिक रूप से अस्थिर और आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्रों से होकर गुजरेगा. जिस तरह से बलूचिस्तान और गिलगिट और बाल्टिस्तान में सीपीईसी पर हमला किया जा रहा है, इससे तो यही लगता है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भागीदार देश इस परियोजना की सुरक्षा को सुनिश्चित करने में कितने कारगर होंगे.

जैसा कि अफ्रीका और चीन में देखा गया है कि चीन ने लगभग सभी विदेशी उद्यमों में चीनी श्रमिकों को लगाया हुआ है, जो स्थानीय लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं है. कई विकासशील देशों में, चीनी उत्पाद गुस्से और असंतोष का एक स्रोत हैं और यह नियमों को लागू करने वाले मुद्दों और कानूनी समस्याओं को दावत देते हैं.

ओबीओआर के असरदार होने को लेकर कई सवाल भी हैं. क्या यह व्यावसायिक रूप से व्यवहारिक है ? क्या चीनी कंपनियां अपने पैसे फिर से हासिल करना चाहती हैं ? क्या इन परियोजनाओं को पूरी तरह से चीनी कंपनियां वित्त पोषित करने जा रही हैं या क्या भाग लेने वाले देश ओबीओआर को फंड देंगे ? क्या अंतर्राष्ट्रीय ऋणदाता परियोजनाओं में पैसे लगाएंगे ? ये सभी ऐसे सवाल हैं जिनका कोई स्पष्ट जवाब भी नहीं है.

चीनी विदेश निवेश के अच्छे नहीं रहे परिणाम

हालिया इतिहास से संकेत मिलता है कि चीन ने जब भी राज्यों के माध्यम से और राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों के जरिए विदेशी निवेश किया है, तो परिणाम अच्छा नहीं रहा है. निवेश पर रिटर्न भी कम रहा है और यह चीन के खनन कारोबार में लगे करीब 80 प्रतिशत विदेशी कारोबार की कहानी है.

इस मामले में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और हाल में बनाए गए एशियाई बुनियादी ढांचा निवेश बैंक (एआईआईबी) जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के समर्थन को लेकर भी स्थिति साफ नहीं है. विवादित क्षेत्रों और संप्रभुता को शामिल करने वाली इन परियोजनाओं के लिए उनके जरिए ऋण देने पर गंभीर सवाल हो सकते हैं.

परंपरागत रूप से चीन ने हमेशा एडीबी की मदद से भारत के उत्तर-पूर्व में चल रही परियोजनाओं का विरोध किया है. उसी तरह, एआईआईबी में चीन के बाद दूसरी सबसे बड़ी वोटिंग हिस्सेदारी वाला देश भारत, ओबीओआर के एक महत्वपूर्ण घटक, सीपीईसी परियोजना के लिए धन मुहैया कराने की राह में मुश्किलें खड़ी कर सकता है.

पेकिंग विश्वविद्यालय के एक विद्वान रवीश भाटिया ठीक ही कहते हैं, 'एआईबी के समझौते के अनुच्छेदों पर जारी रिपोर्ट स्पष्ट रूप से बताती है, 'विवादित क्षेत्रों में ऑपरेशंस पर एक नीति ये साफ करेगी कि विवादित क्षेत्र में वित्तीय मदद के लिए अनुच्छेद 3 के तहत सदस्य की सहमति प्राप्त की गई है. साथ ही ये कि बैंक क्षेत्रीय दावों पर कोई ठोस कदम नहीं उठाता है.' अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर बैंक की संचालन नीति के खंड IV से ये बात साफ तौर से जाहिर होती है.

यह सब 1405 और 1435 के बीच उस चीनी अभियान की याद दिलाता है, जो दक्षिण पूर्व एशिया में बंगाल की खाड़ी, श्रीलंका, भारत, अरब, पूर्वी अफ्रीका, उत्तरी केन्या में मालिंदी जैसे करीब सभी महत्वपूर्ण बंदरगाहों से होकर गुजरा था.

चीनी अपने समुद्री इतिहास पर गर्व महसूस कर सकते हैं, लेकिन ये सामुद्रिक यात्रा अपनी प्रकृति में आर्थिक से कहीं अधिक राजनीतिक थीं. उनका मुख्य उद्देश्य 'मध्य साम्राज्य' की चीनी अवधारणा के माध्यम से छोटे और व्यापार-आधारित साझीदारों को प्रभावित करना था, जो खुद इस बात का बखान करता था कि चीन को ईश्वर ने चुना है और यह देश सबसे महान और बहुमूल्य देशों में से एक है. इसलिए सभी के भीतर उसके लिए सम्मान का भाव होना चाहिए.

लेकिन जैसा कि मंझे हुए टीकाकार फिलिप बॉरिंग का कहना है कि ये यात्राएं उनकी असाधारण उच्च लागत के कारण बीच में ही छोड़ दी गई थीं. उनका व्यापारिक लाभ और राज्य की सुरक्षा में योगदान बहुत मामूली था.

कई मायनों में, ओबीओआर उन्हीं 15 वीं शताब्दी की यात्राओं जैसा दिखता है. चीन दुनिया की सबसे प्रमुख शक्ति बनना चाहता है. लेकिन सवाल है कि क्या उसके पास इतने साधन हैं ?