view all

चीन की तरह सख्ती क्यों नहीं दिखाता इंडिया !

चीन की तरह भारत को भी डिफॉल्टर्स के खिलाफ कड़े कदम उठाने चाहिए

Dinesh Unnikrishnan

क्या होता है जब कोई अमीर प्रमोटर भारतीय बैंकों का करोड़ों रुपए लेकर भाग जाता है ? और तो और तब क्या होता है जब यही गलती कोई छोटा कर्जदार करता है?

इन दोनों परिस्थितियों में क्या फर्क होता है इसे समझना हो तो इसे देखें. दरअसल अपने देश में इस बात की तमाम संभावनाएं हैं कि डिफॉल्ट कर चुके अमीर प्रमोटर के मुकाबले सामान्य कर्जदार को कानूनी तौर पर सबक सिखाया जा सकें. साथ ही बैंक डिफॉल्टर की संपत्ति नीलाम करके अपना पैसा वापस पा सकें.


ऐसे में कर्ज देने वाली संस्था अगर सरकारी बैंक है तो डिफॉल्टर्स से पैसा वापसी की आशंका और घट जाती है.

क्योंकि तब यह कह पाना कठिन हो जाता है कि आखिर ये लड़ाई है किसकी? क्योंकि पॉलिटिकल-कॉरपोरेट गठजोड़ पूरी ताकत से अपना काम करती है. तो भाई-भतीजावाद और सत्ता की ताकत के आगे तर्क की एक नहीं चलती.

क्या हैं मुश्किलें 

लेकिन यही कर्ज देने वाली संस्था अगर प्राइवेट है तो कुछ हद तक उन्हें अहसास हो जाता है कि आगे क्या कठिनाइयां आने वाली हैं.

लिहाजा वो अपनी तैयारी उसी तरह करते हैं और कई बार उसमें कामयाब भी हो जाते हैं.

जबकि चालाक प्रमोटर गडबड़ी करते हैं और बाद में बैंक पर उनके पीछे पड़ने का आरोप भी लगाते हैं. यह सब इसलिए करते हैं ताकि बैंको को पैसा वापस करने में देरी हो सके.

लेकिन एक स्थिति ऐसी आती है कि प्रमोटर के पास बैंकों को टालने का कोई रास्ता नहीं बचता है. तब यही प्रमोटर विदेश भाग जाते हैं जहां वो सुरक्षित रह सकें.

प्रमोटर बने पीड़ित

इसके बाद प्रमोटर खुद को पीड़ित बताने का खेल खेलते हैं और मामले को दशकों तक एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट में घसीटते रहते हैं.

इतने समय में बैंकों का कर्ज और उस पर मिलने वाला ब्याज एक तरह से डूब ही जाता है. लिहाजा एसेट वैल्यू आंकलन के परे हो जाता है.

जब सरकारी बैंकों को यह अहसास होता है कि उनका खेल खत्म हो गया है तो वे पैसों के लिए सरकार के पास जाते हैं.

सरकार भी एक तरह से टैक्सपेयर्स के पैसे देकर बैंकों को वित्तीय कठिनाई से बाहर निकालती है.

छोटे कर्जदारों के लिए मुश्किल

ये क्रम लगातार चलता रहता है. लेकिन सामान्य कर्जदार के लिए ये सब इतना आसान नहीं होता.

कई बार उन्हें पैसे वापस नहीं देने पर बैंकों के शोषण का शिकार होना पड़ता है. तो कई बार उन्हें परिवार के सदस्यों के सामने ही जलील होना पड़ता है.

ऐसे में सामान्य कर्जदार अपने जीवन भर की बचत से वो पैसे लौटाने को बाध्य हो जाता है. और इस तरह सामान्य कर्जदार की कहानी आगे बढ़ती है.

बैंकिंग सिस्टम को क्या मिलता है?

लेकिन ऐसी सच्ची कहानियों से बैंकिंग सिस्टम को क्या मिलता है? डूबे हुए कर्ज के पैसे और बैंकरों और सामान्य कर्जदारों के बीच घटता भरोसा चिंता का कारण हैं. कैपिटालाइन डाटा के मुताबिक दिसंबर के अंत तक 42 बैंकों के एनपीए की कुस रकम 7.32 लाख करोड़ रुपए थी.

जबकि एक साल पहले ये आंकड़ा 4.51 लाख करोड़ था. जबकि सितंबर चौमाही में ये आंकड़ा 7.05 लाख करोड़ पर पहुंच गया.

हद तो यह है कि इनमें से 88 फीसदी कर्ज का पैसा पब्लिक सेक्टर बैंक का डूबा हुआ है. जबकि बैंकों ने ज्यादातर कर्ज कॉरपोरेट्स को दिया है. जैसा कि इकनॉमिक टाइम्स में रिपोर्ट किया गया था.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पब्लिक सेक्टर बैंक के पास ऐसे 2,071 बैंक अकाउंट हैं जिनकी कर्ज की रकम 50 करोड़ से ज्यादा की है.

उन्हें नॉनपरफॉर्मिंग असेट या बैड लोन की श्रेणी में रखा गया है. रिपोर्ट के मुताबिक इन अकांउट्स धारकों को 3.88 लाख करोड़ रुपए बैंकों को वापस करने हैं.

बड़े डिफॉल्टर ज्यादा चालाक

लेकिन हैरानी तो इसी बात को लेकर है कि इनमें से ज्यादातर कर्ज लेने वाले चालाक डिफॉल्टर हैं.

ये वो प्रमोटर हैं जिनके पास पैसे वापस करने की क्षमता है लेकिन वो ऐसा करना नहीं चाहते. इसका एक उदाहरण तो लिकर किंग विजय माल्या खुद हैं. जिनकी कंपनी किंगफिशर एयरलाइंस-जो अब जमीन पर खड़ी है, उस पर कई बैंकों का कुल 9000 करोड़ का कर्ज बाकी है.

माल्या जिनके बारे में कहा जाता है कि वो फिलहाल इंग्लैंड में हैं लेकिन बैंकों, जांचकर्ताओं के साथ उनकी कानूनी लड़ाई जारी है.

उन पर बैंको के पैसे के साथ गड़बड़ी करने का आरोप है. लेकिन जो विवाद एक लोन डिफाल्टर और बैंक का है वो अब भारत और इंग्लैंड की सरकारों के बीच डिप्लोमेटिक मुद्दा बन गया है.

जिसमें भारत सरकार माल्या के प्रत्यर्पण की कोशिशों में लगी हुई है. जबकि माल्या के प्रत्यर्पण को लेकर इंग्लैंड के कानून और उनकी कानूनी लड़ाई लड़ने की मंशा को देखते हुए नहीं लगता है कि उनका प्रत्यर्पण इतनी आसानी से होगा.

अकेले नहीं हैं माल्या

लेकिन याद रखिए माल्या अकेले नहीं हैं. कई डिफाल्टर हैं जो बैंकों का पैसा लेकर बैंकिंग व्यवस्था को चकमा दे रहे हैं.

सच यही है कि भारतीय कानून और डेट रिकवरी मेकनिज्म में इतनी खामियां हैं कि अमीर डिफाल्टर बैंकों के साथ लुका छिपी का खेल आसानी से खेल लेते हैं.

जबकि बैंक पब्लिक मनी का गार्जियन होता है. लेकिन इसी सिलसिले में ये जानना दिलचस्प होगा कि आखिर दुनिया भर में डिफाल्टरों की समस्या के साथ कैसे निपटा जाता है.

इस सिलसिले में चीन में एक दिलचस्प उदाहरण मिलता है. फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, चीन की सुप्रीम पीपुल्स कोर्ट ने 67.3 लाख डिफॉल्टरों को काली सूची में डाल दिया.

यहां तक कि उन्हें हवाई जहाज और रेल टिकट खरीदने से भी मोहताज कर दिया गया है.

ये लोग न ही कर्ज और क्रेडिट कार्ड के लिए कहीं अप्लाई कर सकते हैं. न ही इन्हें नौकरियों में प्रमोशन दिया जाएगा.

एसपीसी ने डिफाल्टरों के ऑफिशियल आईडी और पासपोर्ट की मदद से एयरलाइन्स और रेलवे कंपनियों के साथ मिलकर इन लोगों को प्रतिबंधित किया है.

पासपोर्ट पर पाबंदी लगाने की प्रक्रिया तब से शुरू की गई जब कि ज्यादा से ज्यादा डिफॉल्टर प्रतिबंधित आईडी कार्ट नंबर के जरिए हवाई जहाज की टिकट खरीदने लगे थे.

भारत भी उठाए ऐसे कदम

अगर इतनी ही तत्परता से भारत में कदम उठाए गए होते तो निश्चित तौर पर माल्या जैसे डिफाल्टर देश छोड़कर भागने में सफल नहीं हो पाते.

इसका मतलब ये नहीं हुआ कि भारत को भी वैसा ही करना चाहिए जैसा कि चीन ने डिफॉल्टरों के साथ किया है.

लेकिन ये भी जरूरी है कि देश पुराने अनुभवों से सबक सीखे. और माल्या एपिसोड की छाया में खुद की व्यवस्था को चाक चौबंद करे.

ताकि ज्यादा से ज्यादा डिफाल्टरों पर कार्रवाई की जा सके. भारतीय बैंकों, राजनीतिक व्यवस्था और न्यायपालिका के लिए माल्या एपिसोड एक बेहतर सबक साबित हो सकता है.

बैंकों में मौजूदा एनपीए की समस्या के लिए ये जरूरी है कि डिफाल्टरों के खिलाफ ये तीनों संस्थाएं एकजुट होकर कार्रवाई करें.

हालांकि डिफॉल्टरों के खिलाफ जैसे चीन ने कार्रवाई की है उससे भी पब्लिक सेक्टर बैंक चालाक डिफाल्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने का सबक सीख सकते हैं.