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म.प्र. नगर निगम चुनाव- जीत के बावजूद शिवराज के जादू को लग गई नजर?

चुनाव में शिवराज की सभा हो जाए तो सीट बीजेपी की झोली में आना लगभग तय होता था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ

Ashish Chaubey

अभी-अभी घोषित नगर निगम चुनाव के परिणामों ने बीजेपी सरकार की दरकती लोकप्रियता को स्पष्ट किया है तो साथ ही भविष्य के गढ़ते नवीन राजनैतिक समीकरणों की ओर भी संकेत दिया है. आशा से परे आए परिणामों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की धड़कनों को जरूर बढ़ा दिया होगा.

43 नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों में 14 कांग्रेस और 3 पर निर्दलीय ने कब्जा कर लिया. हालांकि 26 पर बीजेपी ने दम दिखाया लेकिन शिवराज ब्रांड और सत्ता हाथ में होने के बाद भी 17 सीट हाथ से निकल गई. जबकि दिलचस्प ये है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन चुनावों को गंभीरता से लेते हुए 27 सीटों पर धुआंधार प्रचार किया था. लेकिन परिणाम आए तो इनमें से 13 सीट पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है.


कहा जाता था कि चुनाव में शिवराज की सभा हो जाए तो सीट बीजेपी की झोली में आना लगभग तय होता था. लेकिन लगता है कि शिवराज के जादू को नजर लग गई. पहली बार शिवराज को इतना बड़ा झटका लगा है. बीजेपी को अब गंभीर मंथन की आवश्यकता है. अंदरखाने में मुख्यमंत्री बदलाव की कवायद और तेजी से शुरू हो गई है. बीजेपी के नेताओ का ही मानना है कि यदि बीजेपी फिर से सत्ता में आना चाहती है तो मुख्यमंत्री का चेहरे में भी बदलाव जरूरी है.

बदले समीकरणों के बीच मुख्यमंत्री बने थे, शिवराज

कुछ महीने पहले ही शिवराज ने सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड कायम किया है. सन् 2003 में दस सालाना मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के काम को सिरे से खारिज करते हुए मतदाताओं ने बीजेपी के हाथ में सत्ता सौपीं. बीजेपी सरकार में पहले साध्वी उमा भारती को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली और फिर बाबूलाल गौर के हाथ में सत्ता रही.

समीकरण तेजी से बदले और नए युवा चेहरे के तौर पर शिवराज सिंह नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. सत्ता हाथ में आते ही शिवराज का जादू पूरे प्रदेश में दिखने लगा. शिवराज महिलाओं के भैया तो बच्चो के मामा बन गए. कोई भी चुनाव हो तो लगभग जीत बीजेपी के पाले में ही होती.

शिवराज ने अपनी मुख्यमंत्री की पारी की शुरुआत तो शानदार अंदाज में की. विनम्र, सहज, सरल संवेदनशील मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज का ग्राफ एक दम आसमान छूने लगा. सफलता की ऐसी झड़ी लगी कि शिवराज के सामने दिग्गज से दिग्गज नेता शून्य होते दिखे. शिवराज के विकल्प के रूप में दूर-दूर तक कोई चेहरा नही था. लेकिन शिवराज अफसरशाही से बचे न रह पाए.

डंपर मामला, व्यापम घोटाला, उज्जैन कुंभ जैसे कई भ्रष्टाचार के मामलों का सच सामने आने लगा. पार्टी के नेताओ से लेकर कार्यकर्ताओं का आक्रोश अब सार्वजनिक होने लगा है. पिछले दिनों किसान आंदोलन ने तो मानो शिवराज सरकार की सारी छवि को तार-तार कर दिया.

बदलाव की आहट

बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह  की भोपाल में चौपाल जम चुकी है.पहले ही कयास लगाए जा रहे थे कि चौपाल में शिवराज के विरोध में सुर गूंज सकते हैं लेकिन नगर निकाय के नतीजों के बाद अब तय है बैठक में शिवराज विरोधी भारी पड़ने वाले हैं. संघ और मोदी-शाह की टीम के द्वारा जमा की गई रिपोर्ट में भी शिवराज का ग्राफ तंदरुस्त नहीं है. वैसे भी शिवराज मोदी-शाह की गुडबुक में सार्वजनिक तौर पर शामिल हो सकते है लेकिन ‘वेवलेंथ’ मैच नहीं होती है.

पहले ठोस तौर पर माना जाता था कि एमपी में बीजेपी का चेहरा शिवराज के अलावा अन्य कोई हो ही नहीं सकता. लेकिन अब जिस तरह माहौल बना हुआ है, उसमें चेहरा कोई खास हो यह कोई मायने नही रखता. बहुत मुमकिन है कि जल्द शिवराज की कर्मभूमि दिल्ली बन जाए और आने वाले समय में मुख्यमंत्री निवास में आयोजित अन्य कोई चेहरा 'दिवाली मिलन समारोह' का मेजबान हो.