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यूपी: विपक्ष के तौर पर समाजवादी पार्टी में नहीं दिख रहा कोई दम

अब देखना है कि विपक्ष खुद को 2019 के चुनाव के लिए कैसे तैयार करता है?

Badri Narayan

समाजवादी पार्टी चुनाव से पहले हुए आपसी अन्तर्विरोध का आज परिणाम झेल रही है. इधर मात्र दस दिनों में उसके तीन एमएलसी जयबीर सिंह, भुक्कल नबाब एवं सरोजिनी अग्रवाल ने पार्टी छोड़ी. इनमें से पहले दो ने बीजेपी की सदस्यता ग्रहण कर ली है. तीसरी सरोजिनी अग्रवाल के कदम भी बीजेपी की तरफ बढ़ रहे हैं.

शिवपाल सिंह यादव की भी बीजेपी से नजदीकियां बढ़ने की खबरें मीडिया में लगातार आती हैं. मुलायम सिंह यादव भी एक बार पब्लिक मीटिंग में सबके सामने नरेंद्र मोदी के कान में बात कर चुके हैं. वे गाहे-बगाहे नरेंद्र मोदी की तारीफ भी करते रहते हैं.


विकास से क्यों नहीं बनती बात!

अखिलेश यादव ने अपनी छवि ‘विकास पुरुष’ की बनाने की कोशिश की है. एक जातीय नेता की छवि में उन्होंने खुद को कैद नहीं होने दिया है. लेकिन यही उनकी समस्या भी है. भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में विकास एक खाली शब्द की तरह है. विकास सब चाहते हैं पर मात्र विकास के नाम पर कोई वोट नहीं देना चाहता.

‘विकास प्लस’ बनाने की जरूरत बीजेपी, नीतीश कुमार या आज जो भी विकास की राजनीति का दावा करते हैं, उन्हें करना ही पड़ता है. 'विकास प्लस' का मतलब है विकास की आकांक्षा के साथ जाति, धर्म एवं क्षेत्रीय आकांक्षाओं को जोड़कर एक पैकेज तैयार करना. फिर इस पैकेज के आधार पर विकास की राजनीति करना. पिछले चुनाव के दौरान अखिलेश पर वैसे तो प्रशासन में यादवों को ज्यादा महत्व देने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन साफ तौर पर 'जातीय आधार' की राजनीति करने की छवि उनकी अभी नहीं है.

अखिलेश यादव के पास क्या हैं विकल्प?

मुलायाम सिंह की छवि समाजवादी लेकिन जातीय नेता की है. यह मुलायम सिंह की सीमा है. लेकिन अखिलेश यादव के पास ऐसी कोई सीमा नहीं है. उन्हें शायद अपनी अगली राजनीति के लिए विकास एवं जातीय आधार वाले नेता की छवि बनाने की जरूरत पड़ सकती है. अखिलेश यादव ‘धर्म निरपेक्षता’ की राजनीति करते हैं. धर्म निरपेक्षता के नाम पर आज मत आधार की व्याख्या करें तो वह मात्र मुस्लिम, सिविल सोसायटी, पढ़े- लिखे मध्यमवर्ग का एक तबका एवं प्रगतिशील जन समूह तक सिमट कर रह गया है.

इस प्रकार धर्म निरपेक्षता जो आजादी की लड़ाई के बाद नेहरुवादी कांग्रेसी राजनीति में एक बहुत प्रभावी राजनीतिक स्लोगन एवं प्रतिबद्धता माना जाता था. उसकी सीमा और प्रभाव आज काफी सिमट गया है. बीजेपी ने हिंदू मतों में एकता को बढ़ावा देकर मुस्लिम मतों को सीमित कर दिया है.

इसलिए पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में 100 से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर मुसलमानों को आकर्षित करने की राजनीति करने वाली बीएसपी और प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी का बुरा हाल हुआ. इस पर अगर चुनावी सन्दर्भ में देखें तो और प्रतीकों में कहें तो जनतांत्रिक राजनीति के बाजार में धर्म निरपेक्षता का बाजार मूल्य काफी कम हो गया है. संघ एवं बीजेपी ने उसे आज चलन से बाहर हो चुके पुराने नोटों की तरह कर दिया है.

राजनीति को धार देना जरूरी

देखना यह है कि अखिलेश यादव कैसे पुराने सिक्कों को नया बनाकर एक कुंद हथियार को नई धार देंगे. देखना यह भी रोचक होगा कि वे कैसे ‘धर्म निरपेक्षता’ की राजनीति की पुरानी सीमा को बढ़ाते हैं. विपक्षी राजनीति करने वाले हर दल की समस्या भी है और चुनौती भी कि किस प्रकार घिसेपिटे और एकरस हो चुके धर्मनिरपेक्षता के विमर्श को चमकदार एवं वजनदार बनाकर आगामी राजनीति में लाते हैं.

अभी तो यूपी में विपक्ष पिछली हार के शॉक से उबर नहीं पाया है. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि उनमें पिछली हार से उबरने का कोई प्रयास भी नहीं दिखता. विपक्षी दलों में कोई अनुपस्थित है तो किसी की राजनीति मात्र बयानबाजी तक ही दिख रही है.

अखिलेश यादव का भी कभी-कभार सैटारिकल से लगने वाले एक दो बयान आ जाते हैं. इन बयानों के न तो योगी सरकार की सार तत्वपूर्ण कोई गंभीर आलोचना दिखती है, न ही कोई कड़ा प्रतिरोध. जनतांत्रिक राजनीति में विपक्ष के विमर्श का सिर्फ ‘मसखरे’ विमर्श में बदल जाना काफी चिंताजनक लगता है.

क्या होगा 2019 में?

समाजवादी पार्टी को तो राममनोहर लोहिया की गंभीर आलोचनात्मक धार लिए विपक्ष की राजनीति परंपरा में मिली है. उनके मुख्यमंत्री रहते ‘भईया-भईया’ कहकर उनके आस-पास मंडराने वाले सत्ता की लालच करने वाले युवाओं की भक्ति भी आज नहीं दिखती. अभी तक न तो उनकी साइकिल यात्राओं का कोई कार्यक्रम सुनाई पड़ा है न ही रथयात्राओं का.

देखना है विपक्ष की राजनीति उत्तर प्रदेश में किस प्रकार खुद को समोजित कर एक आक्रामक राजनीति विकसित करती है और आने वाले उप चुनाव में अपनी उपस्थिति दिखाती है और 2019 के चुनाव के लिए खुद तो तैयार करती है.