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पंच-परमेश्वर उर्फ किस्सा जालिम-बोर्ड और सताई हुई औरत का

‘पर्सनल-लॉ-बोर्ड’ कुरआन और हदीस की सभी दलीलों को दरकिनार करके ‘तीन-तलाक’ के चलन को ही जारी रखने पर ही क्यों अड़ा हुआ है?

Nazim Naqvi

अगर आमलोगों कि समझ में आने वाली बहुत ही आम-जबान का इस्तेमाल करते हुए, एक वाक्य में पूरा किस्सा बयान किया जाय तो कहा जाएगा, ‘यह किस्सा एक जालिम बोर्ड और सताई हुई औरत के बीच फंसे पंच-परमेश्वर का है जिन्हें ‘तीन-तलाक’ पर अपना फैसला सुनाना है.’

‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ को जालिम कि संज्ञा आपत्तिजनक हो सकती है लेकिन इसे गलत नहीं कहा जा सकता. लेखक अपनी बात के समर्थन में उन भावार्थों में जाना चाहता है जो बहस के दौरान कही गयी बातों और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा अदालत में पेश किए गए, शपथ-पत्र में छुपी हुई हैं.


मामले की नजाकत को देखते हुए, इस सुनवाई के लिए, अदालत ने पांच-परमेश्वरों वाली अनूठी और बहुधर्मी पीठ (जिसमें एक सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम जज शामिल है) का चयन किया था जिसने 18 मई को सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित कर लिया है.

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इसमें कोई शक नहीं कि सुप्रीम-कोर्ट को किसी फैसले तक पहुंचने के लिए तलवार कि धार पर चलना होगा क्योंकि दोनों पक्षों ने अपनी प्रखर-बुद्धि के वकीलों के जरिए अकाट्य दलीलों के साथ अपनी बातें रखी हैं.

अब आइए हम ‘जालिम और मजलूम (जिस पर जुल्म हुआ हो)’ के अपने किस्से पर वापिस लौटते हैं.

क्या है यह ‘बिअदत’ जिस पर अड़ा है बोर्ड?

पर्सनल-लॉ बोर्ड कि ओर से बोलते हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने अदालत को बताया, ‘मैंने बोर्ड से बात की है और उन्हें इस बात पर राजी कर लिया है कि बोर्ड निकाह कराने वाले काजियों को निर्दिष्ट करेंगे कि वह निकाहनामा में इस बात का प्रावधान करें कि ‘क्या दुल्हन अपने होने वाले पति को तीन-तलाक के माध्यम से तलाक देने का अधिकार देती है या नहीं?.’

गोया ये जालिम-बोर्ड ने अपनी मजलूम औरतों पर एक तरह से एहसान किया है. लेकिन ‘तीन-तलाक’ जिसे वह ‘बिदअत’ कहता है, से मुकरने के लिए तैयार नहीं है. यहां ‘बिदअत’ शब्द का मतलब भी समझ लीजिए. ‘बिदअत’ उसे कहते हैं, जो बात या तरीका, इस्लाम के दिशा-निर्देशों के मुताबिक न हो और उसे बाहर से जोड़ा गया हो. इस्लाम के सभी आलिम के बीच एक-राय हैं कि ‘तीन-तलाक’, तलाक-ए-बिदअत है लेकिन, इसे खत्म क्यों न कर दिया जाय? इस सवाल पर खामोश हैं.

सवाल तो ये भी उठता है कि जब निकाह के वक्त लड़के और लड़की दोनों की रजामंदी लेना जरूरी होता है तो यही अनिवार्यता तलाक देते समय लागू क्यों नहीं होती? लेकिन तलाक देने वाला जालिम और उसकी हिमायत में खड़े जालिम-बोर्ड से, किसी जवाब कि उम्मीद कैसे कि जा सकती है.

आखिर तीन तलाक को जारी रखने पर क्यों अड़ा है बोर्ड?

सारे मुस्लिम विद्वान या आलिम, ये भी मानते हैं कि शरीयत के अनुसार कोई पति अपनी पत्नी को एक साथ तीन बार तलाक बोल दे, तो उसका तलाक हो जाता है. गुस्से में, नशे में, फोन पर, एसएमएस से, ई-मेल से, साधारण या रजिस्टर्ड डाक से, चिट्ठी भेज कर, इंटरनेट पर चैंटिंग करते-करते, स्काइप या फेसबबुक पर, मतलब तलाक देने में मर्द को जो आजादी हासिल है, उसकी कल्पना भी शायद नहीं कि जा सकती.

कुरआन में तीन दर्जन से ज्यादा ऐसी आयतें हैं जिनमें तलाक का वर्णन है लेकिन किसी में भी ‘तीन तलाक’ का जिक्र तक नहीं है. लेकिन पता नहीं क्यों, मुस्लिम-उलेमाओं की आवाजें तीन-तलाक की मुखालफत करते समय घुट जाती हैं.

पाकिस्तान, बांग्लादेश, इराक और ईरान जैसे कई मुस्लिम देश में तीन-तलाक पर कानूनी पाबंदी हैं तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं? आप इसे औरतों पर होने वाला जुल्म नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? ‘पर्सनल-लॉ-बोर्ड’ कुरआन और हदीस की सभी दलीलों को दरकिनार करके ‘तीन-तलाक’ के चलन को ही जारी रखने पर ही क्यों अड़ा हुआ है?

पर्सनल लॉ बोर्ड के उलजलूल तर्क

‘मुस्लिम पर्सनल-लॉ बोर्ड’ तीन-तलाक के नियम की रक्षा करते हुए कुछ भी कह सकता है, इसकी एक मिसाल 2 सितम्बर 2016 को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए उसके शपथ-पत्र से उजागर होती है.

बोर्ड कहता है, ‘अगर दंपति एक ऐसे मोड़ पर आ गए हैं जहां, पति, किसी भी हाल में पत्नी के साथ नहीं रहना चाहता है. ऐसे में कानूनी या धार्मिक तरीके से अलगाव करने में समय और पैसे, दोनों की बर्बादी है, और उसके बाद भी मनचाहा फैसला न मिलने का डर, पति को अवैध-तरीके अपनाने पर मजबूर कर सकता है. ऐसे में वो हत्या या जिंदा जलाने जैसे अपराधी कदम भी उठा सकता है.’

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अगर ऐसा है तो फिर कुरान के आदेश का क्या होगा? सूरा ‘अत-तलाक’ में अल्लाह कहता है, ‘(1) ऐ नबी, जब तुम लोग औरतों को तलाक दो तो उन्हें उनकी ‘इद्दत’ (अवधि) के लिए तलाक दिया करो और इद्दत के समय की ठीक-ठीक गिनती करो, और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है. (2) फिर जब वे अपनी (इद्दत की) अवधि के अंत पर पहुंचें तो या तो उन्हें भले तरीके से (अपने निकाह में) रोक रखो, या भले तरीके पर उनसे अलग हो जाओ. और दो ऐसे आदमियों को गवाह बना लो जो तुममें से इंसाफ करने वाले हों और (ऐ गवाह बनने वालों) गवाही ठीक-ठीक अल्लाह के लिए अदा करो (सूरा अत-तलाक 1-2).’

तस्वीर: पीटीआई

लेकिन लगता है जालिम-बोर्ड का अल्लाह के निर्देशों से कोई लेना-देना नहीं है. अल्लाह के आदेश और शौहर की मानसिक स्थिति के बीच, बोर्ड को लगता है कि अल्लाह का आदेश मानने में खतरे ज्यादा हैं.

यहां तीन-तलाक ही ठीक है, कम से कम इस तरह, औरत, हत्या या जिंदा जलने से तो बच जाएगी, बोर्ड इतने पर ही नहीं रुकता, अपने शपथ-पत्र में वह आगे कहता है कि तीन तलाक के बजाय कानूनी-रूप से तलाक लेने में जो लंबी कार्यवाही चलेगी वह, एक महिला के लिए उसके पुनर्विवाह के अवसर भी खत्म कर देती है. इसमें एक डर ये भी है कि अगर पति यह साबित करने में कामयाब हो गया कि उसकी पत्नी बदचलन है, तो औरत के दुबारा घर बसाने की संभावनाओं पर एकतरफा प्रश्न-चिह्न लग जाएगा.

एक बड़ी समस्या के निदान में ये दलीलें बचकानी ही कही जाएंगी. और तब तो हद ही हो जाती है जब बोर्ड कहता है, ‘मुसलमानों में विवाह एक अनुबंध है जिसमें दोनों पक्ष शारीरिक रूप से बराबर नहीं हैं. पुरुष बलशाली है और औरत कमज़ोर. मर्द अपनी सुरक्षा के लिए औरत पर निर्भर नहीं है, जबकि इसके विपरीत औरत को मर्द से हिफाजत चाहिए.’

मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक के मुद्दे पर देश भर में राजनीतिक बहस छिड़ गई है (फोटो: पीटीआई)

आखिर चाहता क्या है बोर्ड?

पहली बात तो यह कि जिस युग में औरत के समान-अधिकारों कि बात कि जा रही हो वहां मर्द के मुकाबले औरत को कमजोर समझना एक अनपढ़ सोच से ज्यादा कुछ नहीं है, और अगर इस दलील को मान भी लिया जाय, तब तो तलाक के मामले में मर्द पर और अधिक अंकुश लगाने कि जरूरत है क्योंकि वह जब चाहे (क्रोध या नशे में) अपनी पत्नी को तलाक देकर उसे पहले से भी ज्यादा बेसहारा कर सकता है.

ये सब कहने के बाद बोर्ड सुप्रीम कोर्ट से कहता है कि आप इस मामले में न पड़ें, ये विषय संविधान द्वारा हमारे सामुदायिक-अधिकार क्षेत्र में आते हैं. जिन्हें कोई अदालत नहीं छू सकती, ये हमारे मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप माना जाएगा.

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मतलब बोर्ड जब चाहे अल्लाह का आदेश ठुकरा दे, जब चाहे कुरान का हवाला दे, जब चाहे मानव-जनित मानसिकता को तरजीह दे. जब चाहे तीन-तलाक को बिदअत कहे और फिर भी उसे अपनाए, विवाद कि स्थिति में किसी भी नैतिकता की चाहे जैसी व्याख्या करें, लेकिन किसी को ये हक नहीं है की उसमें दखल दे, क्योंकि यह शरिया-कानून है. वह शरिया जिसमें कोई सुधार नहीं किया जा सकता.

बोर्ड चाहता है की अगर कोई औरत (मुसलमान है तो) अदालत में फरियाद करे तो अदालत उसके बुर्के को देखते ही या उसका नाम पढ़ते ही हाथ जोड़ ले कि ‘बहन जी आप हमें कहां फंसा रही है, आपके साथ जो जुल्म हो रहा है उसे सुनकर, हम आंसू तो बहा सकते हैं, लेकिन बहन जी आपको खुदा का वास्ता, अपनी समस्या लेकर किसी मुल्ला के पास ही जाएं, वो जो कहता है वैसा ही करें, क्योंकि संविधान ने (आपको नहीं) उस मुल्ला को ये अधिकार दिया है की मुसलमानों के विवाद वही निपटाएगा.’

तीन तलाक का कोई हल नहीं है बोर्ड के पास 

अगर गलती से आपके जेहन में ये सवाल उठ रहा है की फिर इसका क्या हल है? तो इस सवाल को ‘जमीन में इतने नीचे दफना दीजिये की फिर कभी ये बहार न आ सके’ क्योंकि बोर्ड जो (अल्लाह के कानून का) रखवाला है फौरन कह देगा कि इसका कोई हल नहीं है ‘समाज-सुधार के नाम पर ‘पर्सनल लॉ’ को दुबारा से नहीं लिखा जा सकता.’

हमारा दिल चाहा कि हम भी पूछ ही लें कि ‘भाईसाहब अगर अल्लाह चाहे तब भी इसमें किसी बदलाव कि गुंजाईश नहीं है?’

अजब नहीं कि बोर्ड का कोई आलिम-फाजिल अधिकारी भड़क उठे, ‘हमें बेवकूफ समझा हुआ है क्या...अल्लाह अगर ऐसा कोई बदलाव चाहेगा तो हमारे पास आएगा या सुप्रीम कोर्ट जाएगा?... क्या अल्लाह को पता नहीं कि उसके वारिस कौन हैं? और तुम जो ये बक-बक कर रहे हो... तुम अपना मजहब छोड़ चुके हो... तुम पर फतवा लगेगा... बिलकुल वैसा ही जैसा सर सैय्यद अहमद पर लगा था.'

'वह शख्स दाढ़ी रखता था लेकिन काम शैतानों वाले करता था...ये जो मुट्ठी भर मुसलमान तुम्हें अंग्रेजी बोलते हुए और साइंस कि वकालत करते हुए नजर आते हैं, उसी शैतान की वजह से हैं.’