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2019 में कौन भारी: कांग्रेस के किसान या बीजेपी के भगवान?

2019 Fight between BJP and CONGRESS: किसान कर्ज माफी जैसे मामलों को बड़ा बनाकर कांग्रेस 2019 के लिए नई पटकथा गढ़ने में जुटी है. सवाल यह है कि बीजेपी इस रणनीति का मुकाबला किस तरह करेगी.

Rakesh Kayasth

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के आने से बाद से राजनीतिक विमर्श पूरी तरह बदल गया है. ऐसा बरसों बाद हुआ जब राजनीतिक चर्चा के केंद्र में दुनिया की सबसे बड़ी पॉलिटिकल पार्टी बीजेपी नहीं बल्कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस है. क्या राहुल गांधी अब विपक्षी एकता की धुरी बन चुके हैं?

क्या लोकप्रियता के पैमाने पर उनके और प्रधानमंत्री मोदी के बीच का फासला घट रहा है? क्या कांग्रेस पार्टी 2014 की कड़वी यादों को पीछे छोड़कर सशक्त विकल्प के रूप में दिल्ली के तख्त पर दावेदारी ठोकने को तैयार है? मीडिया में आजकल ऐसे ही सवाल छाए हुए हैं.


इन सवालों के बीच कांग्रेस ने कुछ ऐसा किया जिससे यह और साफ हो गया कि 2019 के लिए उसकी चुनावी रणनीति क्या होगी. कांग्रेस की जीत वाले राज्यों से शपथ ग्रहण समारोह के फौरन बाद कर्ज माफी की खबरें आनी शुरू हो गईं.

मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ लेने के बाद सबसे पहला काम लोन माफी की फाइल पर साइन करने का किया. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी ऐसी ही घोषणा की. साथ ही उन्होने किसानों से खरीदे जाने वाले धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने का ऐलान भी कर दिया.

यह तय माना जा रहा है कि राजस्थान से भी जल्द ही लोन माफी की खबर आएगी. राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार चुनौती दे रहे हैं कि वे पूरे देश में ऐसा करके दिखाएं. कांग्रेस के ताबड़तोड़ बयानों का जवाब देने के लिए बीजेपी ने भी बड़े नेताओं और प्रवक्ताओं फौज उतार दी है. यानी एक तरह से यह साफ हो गया है कि किसान 2019 के चुनावी कैंपेन का सबसे अहम किरदार होगा.

राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आया किसान

किसान राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में अचानक नहीं आया है. कांग्रेस और बाकी बीजेपी विरोधी पार्टियों की तरफ से इसकी कोशिशें लगातार चल रही थीं. 2104 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को परंपरागत शहरी मिडिल क्लास वोटरों के अलावा ग्रामीण इलाकों में भी अच्छे-खासे वोट मिले थे.

बीजेपी ने यह वादा किया था कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में लागत से पचास फीसदी अधिक का भुगतान किया जाएगा. लेकिन पार्टी यह वादा पूरा करने में नाकाम रही. लगातार हो रहे घाटे, कर्ज के बोझ और बढ़ती आत्महत्या के मामलों के बीच किसानों का गुस्सा बढ़ता गया. नतीजे में कई बड़े आंदोलन देखने को मिले.

किसानों के गुस्से का गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में देखने को मिला था. इन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी को खासा नुकसान उठाना पड़ा था. इसके बावजूद बीजेपी दोनों राज्यों में कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही थी लेकिन हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में सूरत पूरी तरह बदल गई. बीजेपी को तीन राज्य गंवाने पड़े.

अगर नतीजों का विश्लेषण करें तो साफ पता चलता है कि किसानों की नाराजगी इसकी बहुत बड़ी वजह थी. मध्य-प्रदेश के किसान मंदसौर में हुई फायरिंग का दर्द नहीं भूले थे. राजस्थान में किसानों के आंदोलन लगातार चल रहे थे.

लेकिन सबसे ज्यादा चौकाने वाले रहे छत्तीसगढ़ के नतीजे. छत्तीसगढ़ को 'चावल का कटोरा' कहा जाता है. राज्य की बहुत बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है. मुख्यमंत्री रमन सिंह के बारे में यह माना जाता था कि वे किसानों के बीच लोकप्रिय हैं.

मायावती और अजित जोगी के तालमेल से यहां कांग्रेस को भारी नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा था. लेकिन कांग्रेस छत्तीसगढ़ में प्रचंड बहुमत से जीती. इसकी सबसे बड़ी वजह किसानों को लेकर किए गए लंबे-चौड़े वायदे रहे और अब नई सरकार इन वायदों को पूरा करने में जुट गई है.

राजस्थान की कहानी भी कुछ ऐसी है. हालांकि बहुमत आने के बावजूद यहां कांग्रेस को अनुमान से कम सीटें मिली हैं. लेकिन नतीजों के विश्लेषण से यह साफ है कि मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों के मुकाबले यहां किसानों के सवाल ने ज्यादा असर दिखाया है.

हिंदुत्व के पोस्टर बॉय योगी आदित्यनाथ ने जिन इलाकों में भी कैंपेन किया, वहां की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. अब सवाल यह है कि अगर राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ का ट्रेंड पूरे भारत में काम करने लगे तो क्या होगा?

अब मंदिर पीछे और किसान आगे

चुनाव नतीजों के बाद बीजेपी नेताओं के बयानों पर गौर करें तो साफ पता चलता है कि किसानों की नाराजगी का सवाल अब उन्हें चिंतित कर रहा है. विधानसभा चुनावों से पहले तक बीजेपी के तेवरों को देखकर लगता था कि वह रातों-रात अयोध्या में राम मंदिर बनवा देगी. कई बीजेपी नेता संविधान संशोधन जैसे विकल्पों की खुलकर बात कर रहे थे. संघ के कोटे से राज्यसभा सांसद बने राकेश सिन्हा ने तो यहां तक दावा किया था कि वे राम मंदिर को लेकर प्राइवेट मेंबर बिल लाएंगे.

लेकिन अब शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर तक सुर बदले हुए हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि 2019 में उनका चुनावी एजेंडा विकास है. बाकी बीजेपी नेता भी अब कह रहे हैं कि मंदिर का मामला अदालत में है, इसलिए संविधान संशोधन जैसे मुद्दों पर बात करना फिलहाल तर्कसंगत नहीं है.

बीजेपी के कई नेता सुप्रीम कोर्ट को लेकर हमलावर थे. अदालत को हिंदू विरोधी बताया जा रहा था और उस पर मामले को लटकाने का इल्जाम मढ़ा जा रहा था, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद बीजेपी की तरफ से ऐसे बयान आने लगभग बंद हो गए हैं.

इस बदलाव की दो वजहें हैं. पहली वजह यह है कि अयोध्या मुद्दे को लेकर किए गए अलग-अलग कार्यक्रमों में आरएसएस और उससे जुड़े दूसरे संगठनों को वैसा रिस्पांस नहीं मिला, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. कुछ कार्यक्रम तो पूरी तरह फ्लॉप हो गए. इसका संदेश यह है कि बेशक राम-मंदिर अब भी हिंदुओं के एक बड़े तबके के लिए एक भावात्मक मुद्दा हो लेकिन इसे उभारकर 1989 या 1991 जैसी हवा बना पाना आसान नहीं है.

दूसरी और ज्यादा बड़ी वजह चुनाव के नतीजे हैं. इनका संदेश साफ है. अर्थव्यवस्था, किसानों की स्थिति और रोजगार को लेकर केंद्र सरकार के कामकाज पर आम वोटर की राय बहुत अच्छी नहीं है. ऐसे में इन सवालों को छोड़कर अगर मंदिर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया गया तो संदेश यह जाएगा कि सरकार धार्मिक ध्रुवीकरण की आड़ में अपनी कमियों को छिपाना चाहती है. 2014 में विकास के नारे के साथ प्रचंड बहुमत हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी के लिए यह एक अच्छी स्थिति नहीं होगी.

अब सवाल यह है कि बीजेपी क्या करेगी? उसके लिए राम मंदिर का मुद्धा पूरी तरह से ठंडे बस्ते में डालना संभव नहीं है. अगर ऐसा हुआ तो कोर वोटरों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है. दूसरी तरफ मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार जैसे वोटरों को भी मनाना है जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव की जीत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. कुल-मिलाकर बीजेपी की चुनौती एक मुश्किल पहेली हल करने जैसी है.

क्या बीजेपी कांग्रेस के रास्ते पर चलेगी?

मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकारों की ओर से कर्ज माफी के एलान का असर बीजेपी शासित राज्यों में भी दिखने लगा है. असम की बीजेपी सरकार किसानों के लोन का 25 फीसदी हिस्सा तत्काल प्रभाव से माफ करने की घोषणा की है. यह कहा जा रहा है कि दूसरे बीजेपी शासित राज्यों में भी कुछ ऐसे कदम उठाए जाने की संभावना है, जिससे किसानों में अच्छा संदेश जाए.

लेकिन क्या किसानों की राष्ट्रव्यापी नाराजगी इन उपायों से दूर हो सकती है? आम वोटरों के बीच नरेंद्र मोदी की छवि एक चमत्कारी राजनेता की रही है. राजनीतिक गलियारों में यह ख़बर अफवाह की शक्ल में तैर रही है कि केंद्र सरकार 2019 से पहले राष्ट्रीय स्तर पर किसानों की कर्जमाफी की कोई स्कीम ला सकती है. प्रधानमंत्री मोदी जिस शैली के राजनेता हैं, उसे देखते हुए किसी बड़े या चौकाने वाले फैसले की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.

लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि मोदी के पास अब ना तो ज्यादा वक्त है और ना सरकारी खजाने में पैसा. उन्हें मिडिल क्लास वोटरों को भी खुश रखना है. कहीं ऐसा ना हो कि जल्दबाजी में उठाया गया कोई कदम बाकी वोटरों को नाराज कर दे और किसान भी खुश ना हों. एसटी-एसी एक्ट के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ था.

संविधान संशोधन करके भी प्रधानमंत्री मोदी दलितों का दिल जीत नहीं पाए उल्टे बीजेपी के परंपरागत सवर्ण वोटर दूर छिटक गए, जिसका नुकसान उन्हें विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ा. ऐसे में 2019 से पहले अलग-अलग वोटर समूहों को साधने के लिए कई तरह की कवायद देखने को मिल सकती है.

कट्टर हिंदू वोटरों का दिल जीतने का काम योगी आदित्यनाथ पर छोड़ा जा सकता है. प्रधानमंत्री मोदी विकास पुरुष की अपनी इमेज को बनाए रखने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे. वोटरों को यकीन दिलाया जाएगा कि देश नई आर्थिक बुलंदियों को छूने की दिशा में आगे बढ़ रहा है.

इन्हीं सबके बीच किसानों को मनाने के लिए भी केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक कोशिशें जारी रहेंगी. यह भी साफ है किसानों के मामले में सरकार के विकल्प सीमित हैं. सरकार का सबसे बड़ा दावा 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का है.

लेकिन इसका भी कोई बहुत सकारात्मक असर होना मुश्किल है. पहली बात यह है कि कृषि क्षेत्र के विकास की रफ्तार को देखते हुए ऐसा संभव नहीं लगता. दूसरा तथ्य यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय स्तर के मुकाबले पहले ही काफी कम है. अगर किसानों की आमदनी दोगुनी हो भी गई तब भी मामले उनकी स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आ पाएगा.

कांग्रेस पार्टी यह मान रही है कि देश का राजनीतिक परिदृश्य कुछ वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले थे. फीलगुड के शोर में बीजेपी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया था. इसका नतीजा यह हुआ कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री को एक हार का सामना करना पड़ा ऐसे में किसान मुद्दे को कांग्रेस पार्टी अपने लिए एक अचूक हथियार मान रही है.

वोट की राजनीति से आगे किसान समस्या

किसान समस्या का राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आना एक अच्छी बात है. लेकिन अगर गौर से देखें तो यह साफ होता है कि यह मामला चुनावी राजनीति से कहीं आगे का है. राहुल गांधी खुद स्वीकार कर चुके हैं कि कर्ज माफी किसानों के लिए राहत हो सकती है, उनकी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है. फिर स्थायी समाधान क्या है?

जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा का कहना है कि किसानों की समस्या सीधे-सीधे आर्थिक उदारीकरण से जुड़ी हुई है. 1991 के बाद से कांग्रेस और बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकारों ने जिस आर्थिक नीति को आगे बढ़ाया है, उसका एक मुख्य लक्ष्य तेज शहरीकरण है. इसका मतलब यह है कि गांवों से बड़ी संख्या में लोगों को पलायन हो ताकि शहरों में फल-फूल रही आर्थिक गतिविधियों के लिए सस्ते मजदूर मिल सकें.

बेशक उदारीकरण के बाद भारत ने बहुत आर्थिक प्रगति की है. प्रति व्यक्ति आय से लेकर जीवन स्तर तक हर जगह सुधार हुआ है. लेकिन कृषि क्षेत्र पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में रोजाना लगभग 30 किसान आत्महत्या करते हैं. कृषि छोड़कर शहरों की तरफ पलायन करने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर लोगों में गहरी नाउम्मीदी है.

राहुल गांधी अपने हर भाषण में कह रहे हैं कि रोजगार सृजन और किसानों की स्थिति में सुधार उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी. सुनने में यह बात अच्छी लग सकती है लेकिन ऐसा करने का मतलब यह है कि उन आर्थिक सुधारों को पीछे ले जाना, जिसकी शुरुआत वित्त मंत्री रहते हुए 1991 में मनमोहन सिंह ने की थी और कांग्रेस आज भी इसका श्रेय लेती है.

कृषि क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के सवाल पर अर्थशास्त्रियों की राय भी बंटी हुई है. लेकिन 2019 के चुनाव तक कृषि क्षेत्र को लेकर बहस अर्थशास्त्रियों नहीं बल्कि राजनेताओं के बीच होगी और मुमकिन है यही बहस तय करे कि दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठेगा.