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राष्ट्रपति चुनाव: दलितों के काल्पनिक उत्थान का आकर्षक नुस्खा है दलित उम्मीदवार

कांग्रेस, बीजेपी के राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार उतारने से दलित उनकी 'राजनीति' के शिकार हो सकते हैं

Tarushikha Sarvesh

प्रतीकात्मकता की कई परतें और अलग-अलग प्रभाव होते हैं. रणनीतिक प्रतीकात्मकता इस तरीके से इस्तेमाल की जा सकती है, जिससे कोई वास्तविक प्रभाव न पड़े.

एक दलित का गवर्नर या राष्ट्रपति बनना और एक दलित का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री होना, दोनों में बहुत अंतर है. प्रोफेसर फैजान मुस्तफ़ा ने एक रोचक विश्लेषण किया है कि राष्ट्रपति का पद वास्तव में प्रधानमंत्री की तुलना में ज़्यादा प्रतिनिधित्व वाला है. संभव है कि यह तर्क हमें राष्ट्रपति पद के प्रति आशावान बनाने के लिए दिया गया हो. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह प्रतिनिधित्व वास्तविक शक्ति प्रदान करता है?


भारत में शायद ही हम राष्ट्रपति की शक्तियों की झलक देख पाते हैं. अगर रामनाथ कोविंद चुन लिए जाते हैं तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समान पारिवारिक विचारधारा के होंगे और राज्य बीजेपी-आरएसएस-वीएचपी-बजरंग दल के पितृसत्तामक परिवार के शासन का आईना होगा. साथ में भारत विकास परिषद, शिक्षा बचाओ समिति, राम सेना जैसे दूर और नजदीक के रिश्तेदार होंगे.

यहां पितृसत्तात्मक शब्द के इस्तेमाल से दुविधा में ना आएं. इस शब्द का इस्तेमाल महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी के लिए नहीं, बल्कि लैंगिक पहचान से इतर उस विचारधारा के लिए किया गया है, जिसका यह हित साधता है.

एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरते हुए (फोटो: पीटीआई)

ऐसा प्रतीत होता है कि यह देश एक परिवार संचालित आकर्षक राज्य ‘कारोबार’ की ओर बढ़ रहा है. मोटे तौर पर तीन तरह के वंशज हो सकते हैं: पहला, जो अपने वंश के लिए वास्तविक ख़ून से संबंधित पूर्वज खोजते हैं. दूसरा, जो अपना वंश एक मनगढ़ंत या काल्पनिक पूर्वज में खोजते हैं. और तीसरा, जो वैचारिक रूप से जुड़े पूर्वज में अपना वंश तलाशते हैं.

बीजेपी-आरएसएस-वीएचपी परिवार को तीसरी श्रेणी के तहत रखा जा सकता है. यह एक परिवार का शासन होगा और हिंदू राष्ट्र के नाम पर लंबे संघर्ष के बाद हासिल लोकतांत्रिक अधिकारों को बदलना या पलटना बेहद आसान होगा.

हाशिए पर मौजूद समाज के लिए ज्यादा प्रतीकात्मक

अगर प्रतीकों के बीच ही चुनाव करना है तो मीरा कुमार हाशिए पर मौजूद समाज के लिए ज्यादा प्रतीकात्मक हैं. दलित महिला होने के नाते अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उन्होंने ज्यादा उतार-चढ़ाव झेला है. वह वर्णात्मक प्रतिनिधित्व की ज्यादा खासियतों को पूरी करती हैं. माना जाता है कि वर्णात्मक प्रतिनिधित्व को विस्तार देने में उनके प्रयासों से राज्य की संस्थाओं और सरकारों में भरोसा बढ़ा है.

वर्णनात्मक प्रतिनिधित्व लिंग, जाति, क्षेत्र, नस्ल और हाशिए पर मौजूद तबकों का समावेश कर के हासिल किया जाता है, जो निर्वाचित या मनोनीत प्रतिनिधियों में दिखाई पड़ता है. लेकिन यह समझना होगा कि कैसे वर्णनात्मक प्रतिनिधित्व राजनीतिक दलों की नीतियों और विचारधाराओं के प्रति लोगों की सोच बदलने का औजार बन सकता है.

दूसरी बात यह कि जनता और राष्ट्रपति की समान जाति या धार्मिक संबंध असली प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं हो सकती, जब संवैधानिक प्रावधानों के कारण पद की प्रकृति में कुछ करने की क्षमता बेहद सीमित हो.

यहां यह जिक्र करना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस और बीजेपी ने राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार दलित वोट बैंक को साधने के मकसद से उतारा है और दलित इस 'राजनीति' के शिकार हो सकते हैं.

कांग्रेस द्वारा बनाई गई राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मीरा कुमार को विपक्ष के 16 दलों का समर्थन हासिल है (फोटो: फेसबुक से साभार)

रामनाथ कोविंद को वर्णनात्मक प्रतिनिधित्व के तहत मैदान में उतारा गया है, लेकिन उनका मूल्यांकन मूलभूत प्रतिनिधित्व यानी उनकी व्यक्तिगत सोच और उनकी पार्टी के विचार के आधार पर होना चाहिए.

दलित समाज की भलाई को लेकर दृष्टि आशाजनक नहीं

रामनाथ कोविंद एक दलित हो सकते हैं, लेकिन समुदाय की भलाई को लेकर उनकी दृष्टि बहुत आशाजनक नहीं लगती. विभिन्न अवसरों पर उनके बयान अपने समाज की समस्याओं के प्रति उनकी बेहद साधारण समझ को दर्शाते हैं.

मौजूदा भारत में दलितों की स्थिति पर सुखदेव थोराट के शोध को खारिज करते हुए रामनाथ कोविंद ने कहा कि खुले तौर पर होने वाले भेदभाव में तेज़ी से गिरावट आई है. लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि गहरी पैठ बना चुका संस्थागत और रणनीतिक भेदभाव दिखाई तो कम देता है, लेकिन ज्यादा खतरनाक होता है.

अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप, कोविंद मानते हैं कि भेदभाव का आधार जातिगत नहीं, बल्कि आर्थिक है. वह इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि दलितों की आर्थिक विपन्नता घनघोर जातिगत भेदभाव का ही नतीजा है.

आज तमाम अध्ययन और रिपोर्ट उपलब्ध हैं, जिनमें आम तौर पर दलित समुदायों और खास तौर से दलित महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न का विस्तार से ब्योरा है. ऐसे में रामनाथ कोविंद का इन अध्ययनों का खंडन करना उनके 'अंतरज्ञान' को दर्शाता है. दर्शन शास्त्र में अंतरज्ञान की जो परिभाषा दी गई है उसके मुताबिक अंतरज्ञान एक बौद्धिक क्षमता है जो तर्क के आगे जाती है, लेकिन उसका खंडन नहीं कर सकती.

खास राजनीतिक दल और संगठन से जुड़े रहे हैं

इस परिभाषा के मुताबिक रामनाथ कोविंद की धारणा अंतरज्ञान पर भी आधारित नहीं है, क्योंकि वह तर्क और प्रमाणों के विपरीत है. इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उनका ज्ञान ऊंची जातियों के 'नजरिए' से वास्तविकता देखने से पैदा हुई है. ऐसा इसलिए है क्योंकि वह एक खास राजनीतिक दल और संगठन से जुड़े रहे हैं.

वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल जुलाई, 2017 में खत्म हो रहा है

कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हाशिए पर मौजूद समुदायों का प्रतिनिधित्व जरूरी हैं. लेकिन इस बात से सावधान रहना होगा कि प्रतिनिधित्व सजावटी न हो, बल्कि वंचित वर्गों को वास्तविक लाभ पहुंचाने के लिए हो.