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वंशवाद के खिलाफ अगर मोदी न बोलते तो कौन बोलता?

पनपते हुए लोकतांत्रिक परिवारवाद के खिलाफ मोदी और नीतीश नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा?

Nazim Naqvi

आगामी पांच राज्यों में चुनावों के मद्देनजर, शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए स्वजनों और रिश्तेदारों के नाम पर टिकट न मांगने की अपील पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से की.

'कृपया अपने परिवार के सदस्यों के लिए, चाहे वह भाई हो, बहन हो, या बच्चे हों, टिकट मांगने का दबाव न बनाएं, पार्टी सबके साथ न्याय करेगी.'


लोकतांत्रिक व्यवस्था में वंशवाद नई समस्या नहीं है. देश के पहले चुनाव से लेकर आज तक, हर चुनाव के साथ वंशवाद की जड़ें गहरी होती जा रही हैं.

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हर पार्टी में है वंशवाद का रोग

मजे की बात तो यह है कि कोई भी पार्टी इस रोग से खुद को नहीं बचा सकी है. शायद इसीलिए न इसे राष्ट्रीय समस्या माना जाता है और न ही कोई इस विषय पर बात करना चाहता है. आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे.

गलत नहीं होगा अगर यह कहा जाए कि कांग्रेस ही वह पहली पार्टी है, जहां से आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वंशवाद का अंकुर फूटा. लेकिन अब तो बीजेपी के साथ करीब-करीब सभी राष्ट्रीय और राज्य स्तर की पार्टियों में वंशवाद अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस मर्ज से दूर नहीं रह पाई हैं.

ऐसी स्थिति में मोदी जब बीजेपी कार्यकर्ताओं और नेताओं से ऐसी अपील करते हैं तो शायद वह और नीतीश सरीखे नेता, अकेले ऐसे नेता हैं जो इस विषय पर बोल सकते हैं.

तस्वीर: पीटीआई

मोदी के कड़े से कड़े आलोचक भी मोदी पर वंशवाद को सींचने का इल्जाम नहीं लगा सकते. नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के परिवार में पांच भाई और एक बहन हैं और इनमें से (नरेंद्र मोदी को छोड़कर) एक भी सदस्य राजनीति में नहीं है.

कोई पेट्रोल पंप पर नौकरी करता है, कोई परचून की दुकान चलाता है, किसी का चाय-स्टाल था, तो कोई कबाड़ी का काम करता है. यह हाल तब है जब मोदी 15 साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और अब, अब तो वही सब कुछ हैं.

क्या वंशवादी वे दीमक हैं जो लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला कर रहे हैं? इस सवाल को छोड़ ही दीजिए, क्योंकि हर पार्टी में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो वंशवाद के इतने फायदे गिना देंगे कि आपको लगेगा कि शायद यह वंशवाद ही असली लोकतंत्र है.

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लोकतंत्र बाजार, सियासत कार और परिवार ब्रांड

शिरोमणि अकाली दल के एक बड़े कद्दावर नेता तो सियासत में वंशवाद की इस परंपरा के पक्ष में इतनी अचूक मिसाल देकर बोलती बंद कर देते हैं. 'राजनीति में परिवारवाद दरअसल विश्वसनीयता की गारंटी है... लोग मर्सिडीज कार खरीदना क्यों पसंद करते हैं? या बीएमडब्ल्यू?... क्योंकि उन्हें इन कारों की विश्वसनीयता पर भरोसा है. तुम बाजार में एक ऐसी कार लेकर आओ जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं खरीदेगा उसे.'

यानी लोकतंत्र बाजार है, सियासत कार है और परिवार ब्रांड है.

'राजनीतिक विरासत हमारे संस्कार में, हमारे मूल्यों में है.' 2014 के चुनावों में अपने पिता, यशवंत सिंहा की हजारीबाग सीट से चुनाव में उतरे उनके पुत्र जयंत सिन्हा बड़े फख्र से कहते हैं.

जब राहुल गांधी या सोनिया गांधी चुनावी रैलियों को संबोधित करने जाते हैं तो उनके मंच पर राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के बड़े-बड़े ‘कटआउट’ परिवारवाद का महिमामंडन करते नजर आते हैं.

ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति में सभी परिवार या वंशवाद के समर्थक हों. वैसे लोग भी हैं जो पूरी ताकत से इसका विरोध करते हैं.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भले ही अलग-अलग विचारधाराओं के तहत परस्पर विरोधी हों लेकिन इस बिंदु पर दोनों एक हो जाते हैं.

परिवारवादी और गैर-परिवारवादी में कौन बेहतर?

कंचन चंद्रा अपनी पुस्तक ‘डेमोक्रेटिक डायनेस्टिज' में लिखती हैं कि ‘हालांकि वंशवादियों की यह दलील है कि राजनीति की समझ और सार्वजनिक कार्यों में उनकी दक्षता गैर-परिवारवादी विधायकों या सांसदों से कहीं बेहतर है लेकिन आंकड़ों में हकीकत कुछ और है.'

2004 और 2009 की लोकसभा में वंशवादी गैर-वंशवादियों की तुलना में ज्यादा धनी और पढ़े-लिखे जरूर थे लेकिन लोकसभा के कार्यकलापों में दोनों की उपलब्धियां लगभग एक जैसी हैं’.

सबसे खास बात यह थी कि वह परिवारवादियों की तुलना में गैर-परिवारवादियों में स्थानीय स्तर की समझ कहीं ज्यादा विकसित थी.

एक सवाल जो स्वाभाविक तौर पर दिमाग में उभर सकता है कि देश की लोकतांत्रिक राजनीति और परिवारवादी सियासत का संगम कैसे हो गया?

इसका जवाब शायद इस उत्सुकता में छुपा हुआ है कि राजनेताओं के बच्चे और रिश्तेदार क्यों राजनीति में आना चाहते हैं? क्योंकि 1990 से पहले तक, यह आकर्षण देखने को नहीं मिलता है.

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क्यों है राजनीति में वंशवाद?

कहा जा सकता है कि देश की अर्थ-व्यवस्था को स्वतंत्र करने के बाद से राजनीति के प्रति नेताओं के परिवार वालों का आकर्षण शायद इस लिए बढ़ गया क्योंकि मुक्त अर्थव्यवस्था के बाद सरकारी कार्यकलापों का दायरा बहुत अधिक बढ़ गया.

भूमि अधिग्रहण, सरकारी छूट और निजी व्यवसाय के लिए सरकारी ऋण आदि एक लंबी फेहरिस्त की कुछ मिसालें हैं. जाहिर है कि सरकारी कामकाज जिनके अधीन होगा, उनके लिए लाभ के अनगिनत रास्ते खुल जाएंगे.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में वंशवाद का सबसे बड़ा नमूना खुद मुलायम परिवार है. मुलायम सिंह खुद जमीनी राजनीति करते हुए 1967 में पहली बार विधायक हुए लेकिन समाजवाद के नाम पर पिछले 40 वर्षों में उन्होंने प्रदेश में सियासत का साम्राज्य खड़ा कर लिया है.उनके परिवार के 11 सदस्य (भाई-बेटे-बहू-भतीजे) राजनीति में हैं.

हालांकि मुलायम सिंह यादव खुद किसी परिवारवाद की उत्पत्ति नहीं हैं. लेकिन उन्हें उनके राजनीतिक कार्यों से ज्यादा, इस वंशवाद के संस्थापक तौर पर इतिहास में दर्ज किया जाएगा.

कुल मिलाकर अपनी पुस्तक में कंचन चंद्रा, दो कारणों ‘प्रधानता और अधिकार’ को असली आकर्षण मानती हैं, जो राजनेताओं के परिवार वालों को सम्मोहित करते हैं.

इस रोग का मुख्य जिम्मेदार कौन?

सबसे बड़ा सवाल कि क्या मतदाता इस प्रभाव को नहीं समझता? अगर समझता है तो फिर ऐसे उम्मीदवारों को वोट क्यों देता है?

सच पूछिए तो मतदाता तक आते-आते वंशवाद या गैर वंशवाद के समीकरण इतने गडमड हो जाते हैं कि इन सवालों का कोई आसान जवाब नामुमकिन हो जाता है.

इसकी मुख्य वजह है कि एक बार टिकट मिल गया तो कई और परिस्थितियां भी उसमें शामिल हो जाती हैं. मसलन पार्टी, धर्म और जाति या फिर विपक्ष में खड़ा उम्मीदवार.

ऐसे में यह जिम्मेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों पर ही आती है कि वह लोकतंत्र के चुनावी उत्सवों में जमीनी नेताओं को ज्यादा महत्व देती हैं या परिवारवाद को.