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'मुझे अपने संसदीय क्षेत्र में नोटबंदी का विरोध करने वाला एक भी शख्स नहीं मिला'

वो भी एक समय था जब प्याज की कीमत और सीमा पार से खतरों के मुद्दे पर चुनाव लड़े गए. लेकिन इनकी जगह अब मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस जैसे मुहावरे आ गए हैं और यह आशा जगी है कि जबरदस्त आर्थिक बदलाव लाए जा सकते हैं

Jay Panda

हर किसी की निगाहें नोटबंदी के बाद के असर पर थीं. मैं ट्रोल किया गया, मुझ पर हमला किया गया, मुझे तरह-तरह के नाम दिए गए. नोटबंदी के एक महीने बाद, और मैं आपको बता दूं कि, मैं महीने में औसतन 12 दिन अपने संसदीय क्षेत्र में बिताता हूं. रोजमर्रा की जिंदगी की मुश्किलों और दिक्कतें उठाने के बावजूद, मुझे इसका विरोध करने वाला एक शख्स नहीं मिला. जी हां, एक भी शख्स नहीं मिला. लोग इसे लेकर बेतहाशा उत्साहित थे और जब मैंने यह बात बताई तो मुझे तीखी आलोचना झेलनी पड़ी. मुझे लगता है कि यह कहना बेवकूफी लगेगा कि लोग ऐसी चीज को लेकर उत्साहित होंगे, लेकिन लोग थे.

एक दुकानदार जो, नोटबंदी के बाद आखिरकार सही दाम पर जमीन खरीदने में कामयाब हुआ


काले धन की अर्थव्यवस्था आम लोगों की जिंदगी पर भी गहरा असर डालती है. मैं एक छोटे दुकानदार को जानता हूं जो कई वर्षों से मुझसे कह रहा था कि वो अपनी पांच साल की बेटी के लिए एक छोटा प्लॉट खरीदना चाहता है, ताकि जब लगभग बीस साल बाद उसकी शादी हो तो उस समय वो उसे गिफ्ट दे सके. और हर साल जब उसे लगता कि उसके पास ठीक-ठाक पैसा जमा हो गया है, तो जमीन की कीमत बढ़ चुकी होती थी. उसके पैसे 20-30 फीसदी कम पड़ जाते.

वह कहता था कि इसके लिए बेईमान अफसर, नेता और ठेकेदार जिम्मेदार हैं, जो अपना सारा सोना और रुपया-पैसा जमीन में लगाते हैं. वह उनसे मुकाबला नहीं कर सकता. नोटबंदी के एक महीने बाद मैंने उससे पूछा क्या कुछ फर्क आया है. उसका जवाब था, 'हां बिल्कुल फर्क आया है'. उसने एक मुहावरे का इस्तेमाल किया, 'जमीन की सप्लाई और डिमांड में बदलाव आ गया है. पहले मैं उनके पीछे भागता था, अब वो मेरे पीछे भाग रहे हैं. वो मुझे पिछले साल का दाम ऑफर कर रहे हैं, और मैं उससे भी एक साल पीछे के दाम के लिए जोर डाल रहा हूं.'

सही बात है, रियल एस्टेट सेक्टर पर बिल्कुल मार पड़ी है. मुनाफा काटने वाला एजुकेशन सेक्टर भी प्रभावित हुआ है- खासकर डिप्लोमा बांटने वाले शिक्षा के कारखाने, जहां से निकलने वाले इंजीनियर एक अदद नौकरी भी नहीं हासिल कर पाते थे. अब यह सब कुछ बदल गया है.

उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद बहुत से लोगों ने बेमन से ही सही माना कि हो सकता है कि राजनीतिक रूप से नोटबंदी सफल रही हो, लेकिन आर्थिक रूप से यह प्रलयकारी थी. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. यह सिस्टम पर एक लगा एक बड़ा झटका था. इसने काले धन पर चोट की. जो बात अप्रत्याशित हुई, वह यह थी कि सारा पैसा बैंकों के पास वापस आ जाएगा.

अगर आपको याद हो तो उन चंद हफ्तों में सरकार लगातार नियम बदलती रही. इसकी बहुत आलोचना हुई, लेकिन यह उस समय जरूरी और सही कदम था. उस समय दलाल लोगों को एक तय फीस के एवज में, बहुत से गरीबों के बंद पड़े खातों में काला धन रखने की पेशकश कर रहे थे. मुद्दा यह है कि क्या वह लोग अब केवाईसी नियमों के चलते अपना पैसा दोबारा हासिल कर पाएंगे? और अब आप देख रहे हैं कि शेल कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है. सवाल सिर्फ यह है कि ट्रैक पर लौटने में कुछ तिमाहियां लगेंगी या कुछ साल. यह कहना तो पाखंड है कि, हां अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है, लेकिन काले धन पर कोई असर नहीं पड़ा. ऐसी बातों से कुछ हासिल नहीं होने वाला.

यह किसी जीएसटी का सबसे कम बुरा वर्जन है, जितना मुमकिन था

जीएसटी एक अलग किस्म की चीज है. यह सिस्टम को एक बार में लगने वाला झटका नहीं है. यह सिस्टम में निरंतर सुधार की प्रक्रिया है. पहली बार सिंगल मार्केट बनाने के सबसे बड़े फायदे का आकलन तकरीबन असंभव है. यह आमूल-चूल परिवर्तन है. इस देश (अमेरिका) में इसके गणराज्य बनने के कई दशकों बाद अंतर-राज्य व्यापार कानून लागू हुआ. इसका उसी तरह का कायांतरित असर हुआ था, जैसा जीएसटी से भारत में हो रहा है. लेकिन जीएसटी आदर्श नहीं है. यह आदर्श स्थिति से बहुत अलग है. यह काफी जटिल है. चार तरह के डॉक्यूमेंटेशन, ये कई तरह के स्लैब, और कई तरह के सब-स्लैब.

जीएसटी को लेकर कहा जा रहा है कि आजाद भारत का यह सबसे बड़ा टैक्स रिफॉर्म है

मिठाई की एक ही दुकान में अलग तरह की मिठाइयों के लिए अलग-अलग दाम. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ जैसा सिस्टम है. इसे मैं इस तरह परिभाषित करता हूं; मेरे विचार में यह दुनिया का सबसे कम बुरा वर्जन है, जितना मुमकिन था. मुझे परदे के पीछे की बातचीत, मान-मनौव्वल और थोड़ा बांह मरोड़ना देखने का सौभाग्य मिला. कोई और वर्जन और भी बुरा हो सकता था.

हम अक्सर परफेक्ट (वह चाहे किसी भी चीज का वर्जन) बनाने की कोशिश में खराब बना बैठते हैं. मत भूलिए कि अपनी सारी जटिलताओं के बावजूद यह ना सिर्फ देश के अलग हिस्सों में लागू 17 अलग टैक्सों की जगह लेने के लिए बनाया गया है, बल्कि उन लोगों के लिए बनाया गया है जिन्होंने शुरू से अब तक कभी टैक्स नहीं भरा.

'भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति में बड़े बदलावों के लिए माहौल बिल्कुल उपयुक्त है. परंपरागत सत्ता विरोधी लहर के बजाय अच्छी अर्थव्यवस्था भी दोबारा सत्ता पाने का आधार हो सकती है'. मैं अपने संसदीय क्षेत्र में हर महीने औसतन 12 दिन बिताता हूं. यह मेरा अपने साथियों में सबसे अच्छा रिकॉर्ड है. लोकसभा के 543 संसदीय क्षेत्रों में से हरेक आकार में किसी छोटे यूरोपीय देश के बराबर हैं. मेरा संसदीय क्षेत्र एस्टोनिया और स्लोवेनिया के बीच के करीब का है, मगर फिर भी उसका एक समान वित्तीय या प्रशासनिक ढांचा नहीं है.

अगर आप दुनिया की दो अरब से ऊपर की आबादी समेट वाले देशों को देखें तो 40 साल पहले चीन और भारत का प्रति व्यक्ति रहन-सहन का स्तर एक जैसा ही था. लेकिन इन चार दशकों में दोनों की विकास दर एकदम अलग रही है और अब चीनी अर्थव्यवस्था का आकार भारत का पांच गुना है. यह इसके बावजूद कि भारत फिसड्डी नहीं है, खास कर पिछले दो दशकों में. अब चीन चीजों को अलग तरह से कर सकता है. वह जब चाहे रफ्तार बढ़ा सकता है और अगले तीन दशकों तक इसे जारी रख सकता है. भारत ऐसा नहीं कर सकता. हम बहुत विशाल और बहुत विभिन्नताओं वाले देश हैं. मैंने भारत की विकास यात्रा को देखा है कि यह किस तरह टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ते हुए ऊंचाई पर पहुंचा है.

नोटबंदी के बाद के दिनों में बैंकों के एटीएम के आगे कई घंटे तक लोग कतार लगाकर खड़े रहने को मजबूर थे

हमें आर्थिक उदारीकरण को अपनाए चौथाई सदी से अधिक समय बीत चुका है. इसने भारत की विकास गाथा को नई ऊंचाइयां दीं. लेकिन इसके बावजूद जब साल 2013 में प्रोफेसर भगवती और पनगढ़िया की किताब (व्हाई ग्रोथ मैटर्स) प्रकाशित हुई, तो यह महत्वपूर्ण और भविष्योन्मुखी थी क्योंकि हम इस पर चर्चा कर रहे हैं- उदारीकरण के मात्र 25 साल हुए हैं. हम संसद में लंबी और तकलीफदेह बहस में उलझे हुए हैं कि क्या विकास जरूरी है! आप बहस कर सकते हैं कि क्या विकास पर्याप्त है, लेकिन इसके बजाय आप बहस कर रहे हैं कि क्या विकास जरूरी है... एक के बाद दूसरे वित्त मंत्री को समझाना पड़ता है कि विकास क्यों जरूरी है. यह 1991 के 22 साल बाद का हाल है. इसी तरह 1991 के 23 साल बाद अर्थव्यवस्था की अग्रणी संस्था योजना आयोग का अस्तित्व खत्म कर दिया गया. यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि अर्थव्यवस्था के स्तंभ अपनी जगह पर स्थिर थे.

मेरा मानना है कि 2014 में पहली बार हुआ कि विजेता प्रत्याशी ने मैदान तैयार किया कि आर्थिक सुधार और सुशासन के आधार पर चुनाव लड़ेंगे. आपने बहुत से चुनाव अभियान देखे होंगे, जब प्याज की कीमत और सीमा पार से खतरों के मुद्दे पर चुनाव लड़े गए. लेकिन इनकी जगह अब मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस जैसे मुहावरे आ गए हैं और यह आशा जगी है कि जबरदस्त आर्थिक बदलाव लाए जा सकते हैं, जो कि राज्यों में पहले से ही चल रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि 15 साल पहले साबित हो चुका है कि भारतीय राजनीति में परंपरागत सत्ता विरोधी लहर को मात देते हुए अच्छी अर्थव्यवस्था भी जीत दिला सकती है.

मोदी से यह उम्मीद थी कि वह देहाती से होंगे, लेकिन हमें मिला दमदार विदेश नीति वाला पीएम

मौजूदा सरकार को देश में बड़े आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के लिए बहुत कुछ करना है. जब इस प्रधानमंत्री ने पद संभाला तो इन्होंने विदेश नीति पर ध्यान देने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर बहुत से लोगों को चौंकाया. अगर आप मीडिया द्वारा किए जा रहे उनके चरित्र चित्रण को देखें तो वह किसी गांव से आए देहाती थे. लेकिन इस देश (अमेरिका) में बहुत से लोग नहीं जानते थे कि, बीते 12 साल से अधिक समय तक एक बड़े राज्य (गुजरात) का प्रमुख होने के साथ ही बीते दशकों में उन्होंने चीन, जापान में काफी समय गुजारा था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर, 2016 की आधी रात को देश में 500 और 1000 रुपए के नोटों को अमान्य घोषित कर दिया था

जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनसे कुछ ऐसी ही उम्मीद की गई थी, लेकिन वह शुरूआत से ही दमदार विदेश नीति वाले प्रधानमंत्री बने और वह भी बहुत महत्वाकांक्षी. मैं नहीं समझता कि पंडित नेहरू के बाद से कभी विदेश नीति पर इतना जोर दिया गया. यह इसके बावजूद था कि तब से अब तक तीन ऐसे प्रधानमंत्री हुए जो विदेश मंत्री भी रह चुके थे. यह ऐसा समय था जबकि भारत की चमक फीकी पड़ गई थी. मेरा मानना है कि मोदी ने सफलतापूर्वक भारत को विश्व मंच पर पुनर्स्थापित किया है. नीति निर्माताओं से लेकर आम टैक्सीवाले तक सभी में इसे लेकर जबरदस्त उत्साह है.

अमेरिकी सिनेट के जटिल फिलिबस्टर नियमों पर धाराप्रवाह बोलने वाले यह साधारण सी बात नहीं जानते हैं कि राज्यसभा में बहुमत के बिना आप कोई भी विधेयक पारित नहीं करा सकते.

साल 2014 से ही यह चर्चा जारी है कि भारत में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अगले नए सुधार क्या होंगे. शुरू में इस बात के लिए बहुत आलोचना हुई कि यह सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में कुछ नहीं कर रही है. यह विडंबना ही है, क्योंकि प्रधानमंत्री ने तो तीन-चार महीने के अंदर ही जोखिम भरा कदम उठाया था. उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून को पलटने की कोशिश की, जिसके बारे में बहुत से लोगों का मानना था कि यह निवेश और आर्थिक विकास में रुकावट पैदा करने वाला है. यह पाया गया कि अगर सब कुछ घड़ी की सुइयों के साथ बिल्कुल सामान्य तरीके से हो तो किसी निवेशक द्वारा किसी जमीन का अधिग्रहण करने में 55 महीने लग जाएंगे.

हम जानते हैं कि सब कुछ घड़ी की सुइयों के साथ नहीं चलता. यह एक महत्वाकांक्षी कदम था, और इसके लिए वो अध्यादेश लाए गए, क्यों विधेयक पारित नहीं हो सका. उन्हें (मोदी) अपने कदम पीछे खींचने पड़े क्योंकि यह टकराव का मुद्दा बन गया था. इसके खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हो गया था. मुझे अचंभा होता है कि लोग राजनीतिक राजधानी का साधारण जोड़-घटाना नहीं समझते हैं.

देश की विपक्षी पार्टियों ने सड़क से लेकर संसद तक सरकार के नोटबंदी फैसले का कड़ा विरोध किया था

अमेरिकी सिनेट के जटिल फिलिबस्टर नियमों पर धाराप्रवाह बोलने वाले यह साधारण सी बात नहीं जानते हैं कि राज्यसभा में बहुमत के बिना आप कोई भी विधेयक पारित नहीं करा सकते. अगर आपका बहुमत है तो भी आपको अपने दल को साथ लेना होगा. तब से कई छोटे-छोटे कदम उठाए गए. जैसा कि अमिताभ (कांत) बताते हैं, कम से कम 1200 अधिनियम बनाए जा चुके हैं.