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ओडिशा चुनाव: नवीन पटनायक का 'हनीमून' खत्म, दरवाजे पर खड़े हैं मोदी

बीजेपी नवीन पटनायक को उनके आरामगाह से बाहर निकालने में कामयाब रही है

Akshaya Mishra

बीजेपी ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को उनके आरामगाह से बाहर निकालने में कामयाब रही है. वो सद्भावना एकत्र करने के एक अभियान में लगे हैं.

इसके लिए उनको युवा लोगों के साथ सेल्फी लेनी पड़ रही है, पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत करते हुए दिखाई देना पड़ रहा है और सामान्य तौर पर सभी के लिए सुलभ दिखने की कोशिश करनी पड़ रही है. थोड़ा अजीब सा लग रहा है ये सब.


ओडिशा का वो मुख्यमंत्री जो सत्ता में पिछले 17 सालों के दौरान कभी भी पार्टी के कार्यकर्ताओं, यहां तक कि अपने ही विधायकों के साथ बातचीत करने के लिए उत्साहित नजर नहीं आता था वो आज सभी से घुलमिल रहा है.

इस बड़े सच को भी आप नजरअंदाज कर दीजिये कि यही वो महाशय हैं जिन्हें उड़ीसा की भाषा उड़िया के साथ आज तक अपनापन जैसा कुछ महसूस नहीं हो पाया है.

नवीन पटनायक बीजू जनता दल (बीजेडी) के प्रबंधन को किसी और के लिए छोड़ने में हमेशा खुशी महसूस करते रहे हैं. चाहे बात करें सबसे पहले 2012 तक पूर्व मुख्य सचिव प्यारीमोहन मोहापात्रा की जिन्होंने बाद में तख्तापलट की नाकाम कोशिश की अगुवाई की और नतीजतन उनको बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया.

या फिर मोहापात्रा के बाद वरिष्ठ पार्टी नेता कल्पतरु दास की जिनका साल 2015 में निधन हो गया या अब अपने निजी सचिव वी पांडियन की मिसाल लें जिनके बारे में अफवाह है कि वे पार्टी मामलों पर महत्वपूर्ण जिम्मेवारियां लेते हैं.

स्कूली बच्चों के एक कार्यक्रम में उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक

लेकिन मोहभंग के इस सिलसिले से सबक लेकर नवीन पटनायक को अब आखिरकार पता चल ही गया है कि ढीले-ढाले तरीके से काम नहीं चलने वाला है. उन्हें अब एक एकांतप्रिय किस्म के नेता के तौर पर नहीं देखा जा रहा है लेकिन एक उदासीन नेता के तौर पर तो वे अब भी नजर आ ही रहे हैं.

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बीजेपी ने दिया झटका

जाहिर सी बात है कि यह जनसम्पर्क अभियान पंचायत चुनावों में बीजेपी द्वारा दिए गए भारी झटके का नतीजा है. बीजेपी ने अपने खाते में आठ गुना बढ़त बना ली और साल 2012 के 36 से छलांग लगाकर साल 2017 में वो 306 के आंकड़े पर पहुंच गई है.

पश्चिमी ओडिशा में, जो कि पारंपरिक रूप से बीजेपी की गढ़ है, वहां पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया. बीजेपी ने उत्तरी और दक्षिणी जिलों में भी अच्छा प्रदर्शन किया. बीजेडी के तटीय किले में पहली बार इसने सेंध मारने में कामयाबी पाई है. 33 प्रतिशत वोटों की हिस्सेदारी के साथ बीजेपी ने कांग्रेस को तीसरे स्थान पर ढकेल दिया.

बीजेपी शायद बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा जश्न मना रही है. आखिरकार ये लोकल बॉडी इलेक्शंस हैं लेकिन फिर भी पार्टी के हित में जनता की कल्पना को हथियाने के लिये प्रचार हमेशा एक हथियार का काम करता है.

भुवनेश्वर में अभी संपन्न राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक अगर ओडिशा में पार्टी की सतही उपस्थिति का मुजाहिरा है तो पार्टी एक ऐसी रणनीति पर चल रही है जो एक लंबी योजना का हिस्सा है और इस योजना पर काम करना पार्टी को अच्छी तरह से आता है.

हो सकता है कि पार्टी उड़ीसा में 2019 का विधानसभा चुनाव जीत न पाये लेकिन इसके हल्के तटीय विस्तार के नजरिये से देखें तो पक्की बात है कि बीजेपी के उदय ने नवीन पटनायक को डरा दिया है.

उड़ीसा लिंगाराज मंदिर में पूजा के बाद नरेंद्र मोदी

नवीन पटनायक इस बार एक मरी हुई कांग्रेस से दो-दो हाथ नहीं कर रहे हैं. उनको चुनौती देने वाली एक ऊर्जावान उभरती हुई पार्टी है जिसका चेहरा नरेन्द्र मोदी हैं.

पटनायक के जमीन से जुड़े न होने और सत्ता में रहने के इन सालों के दौरान अपने मंत्रियों से जुड़े कई घोटालों के आरोपों को ध्यान में रखें तो पाएंगे कि वे इतने ताकतवर नहीं लगते कि मोदी की ताकत का सामना कर सकें जैसे बिहार में नीतीश कुमार ने कर दिखाया था.

इसलिए व्यक्तिगत मोर्चे के साथ-साथ बीजेडी के मंच से भी उनको एक फटाफट सुधार की कवायद को अंजाम देना मजबूरी है. पहले की तरह इस बार वो दूसरों को ये जिम्मा देकर निश्चिंत नहीं रह सकते.

अंदरूनी समस्यायें

वैसे नवीन पटनायक कई समस्याओं से जूझ रहे हैं. सबसे पहली बात तो ये कि कई बड़े टिकट घोटालों के कारण उनकी पार्टी की छवि बिगड़ी है जिनमें से खास थे चिट फंड घोटाला और 60,000 करोड़ रुपए का खनन घोटाला जिसमें उनके कुछ मंत्री और पार्टी कार्यकर्ता कहीं न कहीं से जुड़े थे.

हालांकि, उनकी व्यक्तिगत छवि तो साफ रही है लेकिन उनकी पार्टी के दूसरे सदस्यों के साथ ऐसा नहीं है. ये बात भी तारीफ के काबिल नहीं है कि कुछ खास दायरों में उनके शासन की जे.बी. पटनायक के दौर वाले कांग्रेस के शासन से तुलना की जाती है.

लिंगाराज मंदिर के बाहर अभिवादन करते नरेंद्र मोदी

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दूसरी बात, पार्टी में गुटबाजी एक बड़ी समस्या बन कर सामने आ रही है. पिछले साल जनवरी में हुई जनसंपर्क यात्रा के दौरान इसकी मिसाल साफ नजर आई थी. कई बीजेडी नेताओं ने अपनी-अपनी अलग यात्राएं करके स्पष्ट संकेत दिया था कि पार्टी एकजुट नहीं है.

हाल ही में, बीजेडी के दो वरिष्ठ सांसद- तथागत सतपथी और बैजयंत पांडा आपस में बुरी तरह से भिड़ गये थे. पार्टी के मामलों में नवीन पटनायक की नौकरशाहों पर अत्यधिक निर्भरता ने कई नेताओं को अलग कर दिया है.

सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये तो वो पार्टी के नेता थे लेकिन उसके नियंत्रण में नहीं थे. कई असंतुष्ट बीजेडी नेताओं की बीजेपी की दिशा में अपनी वफादारी बदलने की संभावना नजर आ रही है और वैसे भी प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करने के लिए बीजेपी की ये एक पसंदीदा रणनीति है.

तीसरी बात, ऐसी हालत में जबकि विपक्ष लगभग नामौजूद है उन्होंने किसी विकल्प को नहीं आजमाया. पंचायती चुनाव के नतीजों से पता चलता है कि बीजेपी विपक्ष की जगह पर कब्जा करने की दिशा में आगे बढ़ गई है जो कि कभी कांग्रेस की हुआ करती थी.

स्कूली छात्र को पुरस्कार देते हुए नवीन पटनायक

केंद्र में बीजेडी को पार्टी का हिस्सा बनाने के बावजूद बीजेपी ने ओडिशा को जीतने की अपनी महत्वाकांक्षा को छिपाया नहीं है. आदिवासियों से लेकर शिक्षा के क्षेत्र तक अलग-अलग जगहों पर कार्य करने वाले संघ परिवार के नेटवर्क के साथ बीजेपी के पास पहले से ही निर्भर होने का आधार है.

स्थानीय निकाय के परिणाम बताते हैं कि पार्टी को ओडिशा के ग्रामीण इलाकों में भी काफी स्वीकृति मिली है. इन निर्वाचन क्षेत्रों को वापस जीतना नवीन पटनायक के लिये पक्के तौर पर एक मुश्किल चुनौती सिद्ध हो सकती है.

इस जिम्मेदारी को वो दूसरों पर नहीं छोड़ सकते. इसलिये अब आपके सामने एक नए नवीन पटनायक हैं.