'देश की जनता का तुमसे लगाव है, तुम चाहो तो देश को हिला सकते हो, बशर्ते देश को हिलाने वाला खुद न हिले'
मुलायम सिंह यादव के गुरु राम मनोहर लोहिया ने एकबार जयप्रकाश नारायण से नाराज होकर यह बात कही थी.
आज यही बात मुलायम सिंह के लिए भी सही साबित हो रही है.
लोहिया और जेपी एक दूसरे के पूरक थे. लेकिन दोनों के बीच आपसी तालमेल का सिलसिला टूट गया. खामियाजा पार्टी को झेलना पड़ा.
ठीक यही हाल मुलायम और अखिलेश के रिश्ते का हो रहा है. मुलायम ने युवा सीएम के तौर पर अखिलेश को चुना और आज खुद उनके खिलाफ खड़े हो गए हैं.
लोहिया और जेपी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. लोहिया अपना जो काम जेपी को सौंपना चाहते थे, जेपी ने बाद में खुद वही काम शुरू किया.
लोहिया और जेपी के बीच आपसी तालमेल नहीं टूटता तो 1967 में ही कांग्रेस की सत्ता पलट जाती.
अब ऐसा लग रहा है कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है.
मुलायम और अखिलेश का मनमुटाव किसी से छिपा नहीं है. दूसरी पार्टियां इस मौके का फायदा उठाने की ताक में हैं.
अगर मुलायम इस मामले को संभाल नहीं पाए तो इसके नतीजे लोहिया और जेपी के मनमुटाव से अलग नहीं होंगे. नुकसान सबसे पहले पार्टी का होगा.
इतिहासकारों का मानना है कि जेपी अपने आसपास के लोगों से जल्दी प्रभावित हो जाते थे. और लोहिया को यही बात सबसे ज्यादा नापसंद थी.
इस उम्र में मुलायम सिंह भी अमर सिंह, शिवपाल, गायत्री प्रजापति जैसे शुभचिंतकों से घिरे हैं.
अब देखना है कि मुलायम और अखिलेश यादव की कहानी लोहिया और जेपी की कहानी बनने से बच पाती है या नहीं.