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गुजरात में कांग्रेस के साथ बीजेपी भी हारी है, जीते तो बस मोदी हैं

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट शासन के अलावा ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने लंबे समय तक किसी राज्य में एक पार्टी सरकार बनाने की ओर अग्रसर है

Manish Kumar

गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों में लगातार छठी बार बीजेपी को जीत मिली है. लगातार घटते-बढ़ते रूझानों में बीजेपी की जीत का कांटा आकर 99 सीटों पर ठहर गया. उसका आंकड़ा तीन अंकों तक भी नहीं पहुंच सका जबकि, प्रचार में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के सभी नेता बढ़-चढ़ कर 150 प्लस का आंकड़ा पार कर लेने का दावा करते थे.

वहीं कांग्रेस ने पूरे दम-खम के साथ गुजरात का चुनाव लड़ा. उसने इस चुनाव में वो सब किया जो उसने पहले कभी नहीं किया मसलन 'बाहरी' युवा नेताओं को अपना चुनावी सारथी बनाना, राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर घूमना, जनेऊ और रूद्राक्ष के बहाने सॉफ्ट हिंदुत्व की राह अपनाना. कांग्रेस ने चुनाव में बीजेपी को कड़ी टक्कर दी लेकिन वो जीत के जादुई आंकड़े को छूने से कुछ फासले से पीछे रह गई.


बीजेपी को कांग्रेस से कांटे की इतनी टक्कर की आशा नहीं थी खासकर अगस्त महीने में अहमद पटेल के राज्यसभा सीट के चुनाव के दौरान जैसी परिस्थिति बनी थी उसके बाद. बीजेपी ये बात जानती थी कि उसके 22 वर्षों के लगातार शासन से एंटी इंकंबेंसी फैक्टर है, जनता जीएसटी और नोटबंदी जैसे मुद्दों को लेकर नाराज है लेकिन फिर भी उसे लगता था कि कमजोर कांग्रेस उसकी राह में रोड़ा नहीं बनेगी.

नतीजों में बीजेपी को पिछली बार से लगभग डेढ़ दर्जन सीटें कम आई हैं. पार्टी को ऐसे नतीजे की उम्मीद नहीं थी. कच्छ-सौराष्ट्र इलाके में उसे तगड़ी मार लगी है. यहां मतदाताओं ने बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस को अधिक भरोसेमंद माना. इलाके की 54 सीटों में से बीजेपी केवल 23 ही जीत सकी. उत्तर गुजरात, मध्य गुजरात, पश्चिम गुजरात में भी पार्टी की सीटें घटी हैं. बीजेपी के लिए राहत की बात इतनी रही कि दक्षिण गुजरात में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा. सूरत, अहमदाबाद और वडोदरा जैसे शहरी इलाकों में उसका जनसमर्थन अब भी बरकरार है.

मगर मुश्किलों से मिली इस जीत में बीजेपी के लिए कई संदेश हैं जिसे समझकर-पढ़कर उसे दूर करना होगा. पार्टी को जनता से फिर से जुड़ना होगा उसी तरह जैसे मोदी अपने समय में सबसे कनेक्ट होते थे. नेताओं को अहंकार और अहम का रास्ता छोड़कर समाज के हर तबके को अपने पाले में लाना होगा.

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट शासन के अलावा ऐसा पहली बार हुआ है जब इतने लंबे समय तक किसी राज्य में एक पार्टी सरकार बनाने की ओर अग्रसर है.

मोदी से बेहतर गुजरात और गुजरातियों को कोई समझ नहीं सकता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संभवत: पिछले कुछ वर्षों में अपनी सबसे कठिन राजनीतिक लड़ाई लड़ी है और फतह हासिल की है. ये पूरी तरह से मोदी की दिलाई जीत है. मोदी भले ही 2014 में अपने गृह राज्य गुजरात को छोड़कर दिल्ली आ गए हों. मगर नतीजों ने फिर साबित किया कि मोदी चाहे वहां रहें या न रहें, उनसे बेहतर गुजरात और गुजरातियों को कोई समझ नहीं सकता.

मगर मुश्किल से मिली इस जीत के लिए प्रधानमंत्री को काफी मेहनत करनी पड़ी. उन्होंने दो महीने तक गुजरात की खाक छानी. 40 से ज्यादा जनसभा और रैलियों को संबोधित किया. मोदी और बीजेपी के सामने बदले हुए राहुल गांधी थे, जो हाल में अमेरिका से अपना 'काया कल्प' कर लौटे थे. कांग्रेस अलग-अलग वर्गों के तीन युवा नेताओं का समर्थन हासिल कर मजबूत नजर आ रही थी. सबसे ज्यादा चिंता उसे पाटीदार समाज को लेकर थी. हार्दिक पटेल के रूप में पाटीदारों के बीच से विरोध के सुर सुनाई दे रहे थे.

हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश की तिकड़ी ने बीजेपी और नरेंद्र मोदी के खिलाफ जिस तरह से मोर्चा खोल रखा था उससे लगने लगा था कि कांग्रेस 22 साल बाद गुजरात में नई कहानी लिखने को बेकरार है. मगर मोदी ने अपने 13 वर्ष के शासनकान के कामों को गिनाकर और खुद को गुजरात का 'बेटा' बताकर विरोध की धार कुंद कर दी.

यह चुनाव जबरदस्त टक्कर के अलावा प्रचार के निचले स्तर को छू जाने के लिए भी याद रखा जाएगा. प्रचार के अंतिम दिनों में बात 'नीच', पाकिस्तान, देशद्रोह, राम मंदिर से लेकर मशरूम तक पर चली गई थी. दोनों पक्ष एक-दूसरे पर 'कालिख' मलने में पीछे नहीं रहे.

इस बार के गुजरात चुनाव में कांग्रेस और उनके सहयोगियों ने बीजेपी को कांटे की टक्कर दी

हार मोदी के राजनीतिक कद को निश्चित तौर पर नुकसान पहुंचाता

वैसे तो मोदी हर उस विधानसभा चुनाव में जहां बीजेपी प्लेयर होती है खुद को पार्टी के लिए समर्पित कर देते हैं. गुजरात उनका अपना राज्य है, यहीं से उन्हें राजनीतिक तौर पर पहचान और ख्याति मिली. इसलिए मोदी किसी हाल में गुजरात को गंवाना नहीं चाहते थे. क्योंकि हार उनके राजनीतिक कद को निश्चित तौर पर नुकसान पहुंचाता. इससे देश से लेकर विदेशों में उनके विरोधियों को उनपर हमला करने का एक और मौका मिल जाता.

इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि गुजरात में कांग्रेस की हार के साथ-साथ बीजेपी की भी पराजय हुई है. ये तो नरेंद्र मोदी का करिश्मा कहें या गुजराती मतदाताओं पर उनकी पकड़ जिसने हार को भी जीत में बदल दिया. हांलांकि विपक्षी दल मोदी को इस जीत का श्रेय नहीं देना चाहेंगे. वो हार के लिए ईवीएम से लेकर मणिशंकर अय्यर और कपिल सिब्बल तक को कसूरवार ठहराएंगे. मगर इससे ये हकीकत बदल नहीं जाती कि दिल्ली और बिहार (पंजाब भी कहा जा सकता है) को छोड़ दें तो मोदी के नेतृत्व में बीजेपी लगातार जीत दर जीत दर्ज कर रही है.

नतीजों से पता चलता है कि मोदी के बिना बीजेपी गुजरात में कितनी अकेली है. चाहे आनंदीबेन पटेल हों या विजय रूपाणी उनमें वो बात नहीं कि वो अपने दम पर कोई चुनाव जिता सकें. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के गुजरात से जाने के बाद वहां बीजेपी का कोई भी नेता उनकी विरासत को ठीक से संभाल नहीं सका.

नरेंद्र मोदी के होम स्टेट गुजरात में विजय रुपाणी उनकी चमक को बरकरार नहीं रख सके

होम स्टेट में कमियों और कमजोरियों को वक्त रहते दूर करना होगा

मोदी और बीजेपी के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती राज्य को एक मजबूत नेतृत्व देना है. ऐसी संभावना है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाला बीजेपी संसदीय बोर्ड अगले एक-दो दिन में इस बारे में कोई फैसला कर लेगा. चुनावी दूरदर्शिता वाले नरेंद्र मोदी जानते हैं कि अभी भले ही उन्होंने विरोधियों को मात देकर गुजरात में अपनी पार्टी की सरकार बना ली है. लेकिन 2019 के आम चुनाव दूर नहीं है. अगर उन्हें कमबैक करना है तो अपने होम स्टेट में उभर आई कमियों और कमजोरियों को वक्त रहते दूर करना होगा. यकीन मानिए, मोदी शांत नहीं बैठेंगें वो जीत के सुकून को पीछे छोड़कर इसे दुरुस्त करने में जुट जाएंगे.