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बदले-बदले राहुल गांधी: जनता की भावनाओं से मिलाई ताल

गुजरात में चाहे कांग्रेस जीते या हार जाए, राहुल को अब गंभीरता से लिया जाएगा. वो कई धारणाओं को तोड़ रहे हैं.

Ajaz Ashraf

एक वक्‍त था जब कांग्रेस उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी को इसलिए खारिज कर दिया गया था क्‍योंकि वे यह साबित नहीं कर सके थे कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगे आरोपों को पतवार देने में सक्षम हैं. उनकी इस कमजोरी का जमकर मजाक उड़ाया गया था. लेकिन अब अचानक से हवा का रुख राहुल गांधी की ओर मुड़ गया है.

उनमें आए इस खासे बदलाव की पड़ताल अब सियासी टिप्‍प्‍णीकार खूब कर रहे हैं. इनमें जो कहा जा रहा है उनमें एक बात हर जगह देखी जा सकती है और वो यह कि राहुल ने अपने जिन ट्वीट्स के जरिए अपनी राजनीति का मिजाज बदल दिया है, वे अब कहीं ज्‍यादा सशक्‍त, तीखे, विनम्र और व्‍यंग्‍य की पैनी धार वाले होते हैं.


राहुल ने सीख ली राजनीति!

इसमें कोई शक नहीं है कि सोशल मीडिया में उनकी पहुंच तेज हो गई है. साथ ही अब उनमें चतुराई की झलक मिलती है. लेकिन यह राहुल में बदलाव की वजह नहीं है. हकीकत में आज जो उनके ट्वीट्स सराहे जा रहे हैं उनमें अब लोगों की भावनाओं को जगह मिल रही है.

दूसरे शब्दों में, यह वो राहुल नहीं हैं जो बदल चुके हैं. जो बदला हुआ है वो है सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ. इसने भारत की समस्याओं और उनके संभावित समाधानों के प्रति जनता की धारणा को बदल दिया है. यह चीज कई मामलों, खासतौर पर अर्थव्‍यवस्‍था के मामले में राहुल गांधी के नुस्‍खों से जुड़ गई है.

कांग्रेस की परंपरा को ध्यान में रखते हुए पिछले तीन वर्षों में राहुल के बयानों को वाम-दक्षिण के बीच रखा जा सकता है. उन्होंने कृषि संकट के बारे में बात की है. मोदी सरकार को अमीरों के पक्ष वाला बताया. इसके लिए सूट-बूट की सरकार की बात को 2015 से ही हथियार की तरह इस्‍तेमाल किया गया है.

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उन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा कानून की सराहना की जिसे, मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में बनाया था. इन बातों से उन्‍होंने अपना वैचारिक रुझान जाहिर किया है. राहुल गांधी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का बचाव किया. हिंदुत्व रुझान वाले राष्ट्रवाद के विचार के खतरों को भी लोगों के सामने रखा है.

कैसे बदली बयार?

लेकिन उनकी राजनीतिक स्थिति ने उन्हें सितंबर तक सम्मान या समर्थन नहीं दिया था, जब तक उन्‍होंने चुनिंदा मेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों को संबोधित नहीं किया. उन्होंने लोगों के बारे में चर्चा की और जीएसटी के बारे में बात की. वो जीएसटी जिससे लोगों को तकलीफ हो रही थी और आर्थिक मंदी का दबाव भारत पहले से ही अनुभव कर रहा था. ये सामाजिक-आर्थिक संदर्भ के लिए मुनासिब समय था.

उस समय जब राहुल ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भाषण दिया था, उसी समय मीडिया ने आंकड़ों को पेश करके यह दिखाया था कि भारत की जीडीपी विकास दर में 5.7 प्रतिशत और उद्योगों की वृद्धि दर में 1.2 प्रतिशत गिरावट आई है. इस मंदी की वजह नोटबंदी और जीएसटी दोनों ही थीं. कई अर्थशास्त्रियों ने भविष्य के लिए एक गंभीर आर्थिक नजरिया पेश किया, इसके सरकार के दावों की पोल खुलती नजर आई.

इसलिए उस समय मोदी पर बोला गया उनका हमला विपक्षी नेताओं की आम बयानबाजी के रूप में नहीं देखा गया जिसमें महज सरकार की आलोचना होती है. राहुल ने मोदी को पिछली गलतियों के लिए कटघरे में खड़ा नहीं किया. उन्‍हें 'सत्ता के लिए सत्य' बोलने वाला समझा गया. इसकी वजह ये थी कि अर्थव्यवस्था के आंकड़े ही ऐसा कह रहे थे, क्योंकि मेहनत की कमाई पर संकट नोटबंदी और वस्‍तु एवं सेवा कर या जीएसटी (और अभी भी) की वजह से लोगों पर पड़ रहा था.

सरकार के खिलाफ बढ़ा रोष

इससे लोगों का एक समूह उभरा जिसे सरकार के उन अनुमानों पर शक हुआ जिसमें दावा किया था कि उन कदमों से अर्थव्‍यवस्‍था का सूरते हाल बदल जाएगा. अब राहुल की आलोचना वाले बयान भी आम विपक्षी नेता से जुदा हो चले थे. उन्‍हें अब सच बात रखने वाले के रूप में देखा जाने लगा.

साथ ही अमेरिकी विश्वविद्यालयों में उनके भाषणों पर बीजेपी की अत्यधिक प्रतिक्रिया भी नजर आई . केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन पर जहर बुझे तीर चलाए और 10 अन्य केंद्रीय मंत्रियों ने ऐसे ट्वीट्स कर डाले जिनमें एक तरह का शत्रुता का भाव झलकता था.

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जब राहुल ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्‍स कह कर मजाक बनाया तो इसे लोगों की खूब सराहना मिली क्‍योंकि यह बात कहीं न कहीं सच्चाई ही बयां कर रही थी. राहुल ने एमएमडी शब्‍द का इस्‍तेमाल करके कहा कि इसका मतलब है मोदी मेड डिजास्‍टर यानी मोदी की बनाई तबाही. राहुल ने इसको रणनीतिक ढंग से रखते हुए कहा कि क्‍यों पिछले तीन सालों में तनख्‍वाह नहीं बढ़ीं और पिछले 60 सालों में पहली बार बैंकों ने सबसे कम कर्जा दिया है. दूसरे लफ्जों में कहें तो राहुल के बयान हकीकत की दुनिया की बानगी पेश कर रहे थे. उनकी आलोचना में पैनापन आ गया क्‍योंकि पिछले दो महीनों से वो संदर्भ आ चुका था.

राहुल पर बढ़ा भरोसा

यह बहुत कुदरती बात है कि जो लोग आर्थिक मंदी की वजह से पीड़ित हैं वे उस एक नेता को गंभीरता से लेंगे जो उनके लिए आवाज उठा रहा है. वे उसमें विश्‍वास करते हैं क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि विकल्‍प का उभरना जरूरी है. महज यही एक रास्‍ता है जिससे विश्‍वास से लबालब भरे भाजपाई नेतृत्‍व पर दबाव बनाया जा जकता है.

भारत की पुरानी भव्य पार्टी के नेता के रूप में, राहुल को इस बात का फायदा है कि वे संभावित विकल्‍प दे सकते हैं. ऐसा इसलिए भी है क्‍योंकि वे अब अन्य विपक्षी नेताओं से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं जो अब, हालातों की वजह से या तो दौड़ से बाहर हो गए थे या वे बस उनका अंदाजा गलत बैठा.

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पिछले दो सालों से, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल मोदी के मुखर विरोधी थे. लेकिन अपनी पार्टी के लिए पंजाब को जीतने में नाकाम रहने और नगर पालिका चुनावों में हार का मुंह देखने के बाद, केजरीवाल ने मोदी पर सीधे हमला करने से खुद को रोक दिया. उनका अनुमान है कि उनकी चुनावी हार इसलिए हुई क्योंकि प्रधानमंत्री के पक्ष में चल रही हवा को भांप नहीं सके. फिर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संभावित विपक्ष के चेहरे के रूप में देखा गया, लेकिन वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए दूसरों का समर्थन हासिल नहीं कर सके और वे खुद ही विपक्ष के खेमे से ही कूच कर गए.

राहुल ने की जबरदस्त वापसी

पर ये कहना सही नहीं है कि राहुल ने मैदान में दोबारा आने कोशिश नहीं की है. शायद इसका सबसे सुस्पष्ट संकेत गुजरात में उनकी मंदिरों की यात्रा है. दरअसल वे इसके जरिए जानबूझकर अपनी हिंदू पहचान को बल दे रहे हैं. कांग्रेस ने ये महसूस किया कि इस धारणा को दूर करना जरूरी होगा कि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में है और हिंदुत्‍व और हिंदू धर्म दोनों के प्रति उदासीन है.

राहुल ने अपनी हिंदू पहचान का परचम इस साल गुजरात से लहराना नहीं शुरू किया था. मिसाल के लिए, अप्रैल 2015 में, 2014 लोकसभा चुनावों में अपमानजनक हार के लगभग एक साल बाद, गांधी ने केदारनाथ मंदिर में 16 किलोमीटर की यात्रा की. गुजरात में मंदिरों के दौरों के विपरीत काफी हद तक किसी का ध्यान इस पर नहीं गया और बात वहीं दब गई. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित बीजेपी नेताओं के एक हिस्‍से ने राहुल के खिलाफ दमनकारी होने के आरोप लगाए हैं.

उन्होंने अब गांधी के मंदिर के दौरे को नजरअंदाज नहीं किया,  जैसा केदारनाथ की यात्रा के समय किया गया क्योंकि राजनीतिक संदर्भ 2015 से 2017 तक बदल गया है.

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चूंकि लोगों ने गांधी को अलग तरह से देखना शुरू कर दिया है, इसलिए बीजेपी का मानना है कि अब ये नहीं माना जाएगा कि राहुल अपनी हिंदू धार्मिक परंपराओं से अनजान हैं. यह बात स्पष्ट रूप से बीजेपी को परेशान करती रही है कि धार्मिक क्षेत्र पर उसका एकाधिकार टूट सकता है; हिंदू धर्म का एकमात्र संरक्षक होने का उसका दावा चुनौतीपूर्ण हो सकता है.

गुजरात में चाहे कांग्रेस जीते या हार जाए, राहुल को अब गंभीरता से लिया जाएगा. इसकी वजह यह है कि बदले हुए राजनीतिक संदर्भ में, लोगों को सरकार का एक प्रभावी प्रतिद्वंद्वी देखने की जरूरत का एहसास हो चला है, जो अब राहुल में दिखता है. पर अब अगर राहुल भटकते हैं तो निश्चित ही गाड़ी कहीं और मुड़ जाएगी.