view all

22 साल बाद भी बीजेपी की जीत 'गुड एंड सिंपल' जवाब है जीएसटी के शोर का

मोदी का गुजरात की जनता से जुड़ाव जिस दर्जे का है वो स्थानीय कांग्रेसी नेता भी 22 साल में नहीं बना सके

Kinshuk Praval

22 साल बाद भी बीजेपी गुजरात की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रही. लगातार छठी बार चुनाव जीतना किसी भी पार्टी के लिए किसी करिश्मे से कम नहीं. खासतौर से तब जब वो पार्टी केंद्र में सत्ताधारी हो और उसके पीएम के गृहराज्य में चुनाव हो. जिस तरह से नोटबंदी-जीएसटी को लेकर गुजरात में माहौल बना उससे बीजेपी के लिए राज्य में सत्ताविरोधी लहर की आशंकाएं प्रबल हो रही थीं.

वहीं दूसरी तरफ पटेल आरक्षण आंदोलन की वजह से हालात बीजेपी के हाथ से फिसल रहे थे तो कांग्रेस का हाथ मजबूत कर रहे थे. सिर्फ सत्ता विरोधी लहर या फिर पाटीदार आरक्षण आंदोलन ही नहीं चुनौती बन रहे थे बल्कि अचानक दलित और ओबीसी युवा नेताओं के तौर पर जिग्नेश और अल्पेश ठाकोर का भी उदय बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने लगा था.


बीजेपी के लिए अंदरूनी बड़ा सवाल ये था कि गुजरात में 15 साल में पहली बार नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी नहीं थे. कांग्रेस इन्हीं सारी समीकरणों की वजह से 22 साल बाद सत्ता की वापसी का मौका तलाश रही थी. लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी कांग्रेस समझना नहीं चाहती थी और अपने बनाए माहौल में उसे बीजेपी की हार दिखाई दे रही थी.

गुजरात के मतदाता के मन को अगर सही मायने में किसी ने पढ़ना सीखा है तो वो पीएम मोदी ही हैं. गुजरात चुनाव के नतीजों से हैरान होने की जरूरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि बीजेपी की जीत तय थी बस माहौल बनाने वालों ने कमी नहीं की. मोदी का गुजरात की जनता से जुड़ाव जिस दर्जे का है वो स्थानीय कांग्रेसी नेता भी 22 साल में नहीं बना सके.

आम मतदाता भी ये जानता था कि पीएम मोदी के गृहराज्य में विधानसभा चुनाव सभी के लिए कितना बड़ा मौका है. कहते हैं कि पुराने रिश्ते जरूरत पड़ने पर काम आते हैं. गुजरात के वोटर ने भी मोदी को निराश नहीं किया और 22 साल पुराने रिश्ते को जरूरत के वक्त शिद्दत से निभाया.

कांग्रेस जिस विकास को निशाना बना कर पूरे प्रचार में मोदी को घेरने में जुटी रही वो भूल गई कि गुजरात के विकास मॉडल ने ही मोदी के देश के पीएम बनने की राह प्रशस्त की थी. मोदी ने प्रचार में हिंदुत्व कार्ड नहीं खेला और उसके बावजूद कांग्रेस बीजेपी के वोटबैंक में सेंध लगाने में कामयाब नहीं हो सकी.

कांग्रेस की बदजुबानी पर पीएम मोदी का ओबीसी कार्ड कांग्रेस की तरफ से तोहफा था जिसे कोई भी दिग्गज राजनीतिज्ञ हाथ से जाने नहीं देता. कांग्रेस ने इस बार चुनाव में खुला जातिकार्ड खेला. जिग्नेश-अल्पेश-हार्दिक के समर्थन की बदौलत गुजरात में वो विकास की जगह जातियों के समीकरण में उलझ कर रह गई और यही उसकी सबसे बड़ी गलती मानी जा सकती है.

मोदी हमेशा ही 6 करोड़ गुजरातियों की बात करते आए हैं और उन्होंने इस बार भी प्रचार में किसी एक पक्ष की तरफदारी नहीं की. मोदी भले ही गुजराती अस्मिता की बात करते हों लेकिन गुजरात के चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि गुजरात के लिए ये चुनाव मोदी अस्मिता से जुड़े थे. भले ही उनके मन के किसी कोने में जीएसटी को लेकर नाराजगी रही हो लेकिन वो नाराजगी चुनाव में बदला लेने के लिए नहीं थी.

ये जीत भले ही तय थी लेकिन बीजेपी के लिए जरूरी भी बहुत थी. साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ये बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी अग्निपरीक्षा से कम नहीं थी. अपने तीन साल के कार्यकाल में अमित शाह ने 11 राज्यों में बीजेपी की सरकार बनाने का कारनामा किया. लेकिन इस बार उनकी साख दांव पर थी. नतीजों में थोड़ा भी उलटफेर मोदी-शाह की जोड़ी पर विपक्ष को जोरदार हमला करने का मौका दे सकता था.

बहरहाल गुजरात के चुनाव में कांग्रेस ने जिस तरह से नोटबंदी और जीएसटी को मुद्दा बनाया वो अब साल 2019 के चुनाव के लिए भी बेमानी साबित हो गए क्योंकि गुजरात के नतीजों ने बता दिया कि पीएम मोदी का फैसला कबूल है. ऐसे में कांग्रेस को साल 2019 के महारण में उतरने के लिए नए मौकों और मुद्दों की तलाश होगी क्योंकि अबतक केंद्र की मोदी सरकार ने ऐसा कोई मौका नहीं दिया जिसने जनता का भरोसा तोड़ने का काम किया हो.

हाल ही में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सर्वे में कहा गया था कि मोदी सरकार पर देश की 73 प्रतिशत जनता को भरोसा है तो साथ ही भरोसे के मामले में मोदी सरकार दुनिया में तीसरे नंबर पर है.

वहीं अमेरिका की क्रेडिट एजेंसी मूडीज ने भी बताया था कि नोटबंदी और जीएसटी से भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ा है. मूडीज की रेटिंग पर बवाल भी मचा था. लेकिन अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे ऐलान कर रहे हैं कि मोदी लहर एक बड़ी लहर बनने की तरफ जा रही है.