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गुजरात चुनाव: शहरी गुजरात को है मोदी का चस्का, राहुल को करनी होगी और मेहनत

फटाफट दौरे से शहरी गुजरात को लुभाना कांग्रेस के लिए मुश्किल

Pratima Sharma

कांग्रेस आवे छे, नवसर्जन लावे छे. गुजरात चुनाव में यही कांग्रेस पार्टी का नारा है. विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस का क्या होगा इस पर फिलहाल ठीक से कुछ कह पाना मुश्किल है. लेकिन दलितों के लिए काम करने वाली संस्था नवसर्जन के समारोह में आकर राहुल गांधी ने यह साफ कर दिया कि दलितों को लुभाने में वो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

दिलचस्प रहा कि इस समारोह में शुरू से लेकर आखिर तक कई बार यह बात दोहराई गई कि यह किसी पार्टी का समारोह नहीं है. लेकिन राहुल गांधी ने जब अपना भाषण शुरू किया तो यह साफ था कि चुनाव के इस मौसम में यह समारोह भी किसी पार्टी प्रचार से कम भी नहीं है. नवसर्जन के इस कार्यक्रम में कांग्रेस के उपाध्यक्ष क्यों आए थे इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प थी.


इस साल अगस्त में नवसर्जन संस्था ने दलित कारीगरों के हाथों से एक झंडा बनवाया और उसे गुजरात के सीएम विजय रूपानी को सौंपने गई. लेकिन सीएम ने उस झंडे को यह कहकर लेने से मना कर दिया कि अभी इसके रखने की जगह नहीं है. जब जगह होगी तो वो इस झंडे को लेंगे.

नवसर्जन संस्था के को-फाउंडर मार्टिन मैकवान का दावा है कि यह देश का सबसे बड़ा झंडा है. 123 x 83.3 फिट के इस झंडे को बनाने में 52,500 रुपए लगे हैं. इसे 120 तहसील के 1205 दलित मजदूरों ने मिलकर तैयार किया है. इसका वजन तकरीबन 240 किलोग्राम है. जगह ना होने की बात पर रूपानी ने यह झंडा स्वीकार करने से मना कर दिया. इस घटना के बाद खास तौर पर राहुल गांधी इस झंडे को स्वीकार करने आए थे. इसी झंडे के बहाने समारोह में दलितों की राजनीति भी हुई.

इस समारोह में राहुल गांधी के अलावा अशोक गहलोत और अहमद पटेल भी शामिल थे. राहुल गांधी ने अपने भाषण की शुरुआत में ही यह साफ कर दिया था कि भले ही यह किसी पार्टी का कार्यक्रम ना हो लेकिन हर बार की तरह इस बार भी उनका निशाना पीएम मोदी ही हैं. उन्होंने कहा कि अगर यह झंडा 50,000 किलो का होता और उनके पास रखने के लिए इंच भर जमीन होती तो भी वह इस झंडे को अस्वीकार नहीं करते. बीजेपी सरकार पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि बीजेपी के दिल में अपने राष्ट्रीय झंडे के लिए जगह नहीं है.

दलितों के कार्यक्रम में ठाकोर को ही नहीं मिला मंच

यह कार्यक्रमा दलितों के उत्थान और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए किया गया था. कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ अल्पेश ठाकोर भी पहुंचे थे. लेकिन राहुल गांधी, अहमद पटेल के साथ उन्हें मंच साझा करने का मौका नहीं मिला. खासतौर पर दलितों के लिए आयोजित इस क्रायक्रम में अल्पेश ठाकोर ही मंच पर नहीं गए. राहुल गांधी से मिलने दूर दराज के जिलों से दलित आए थे. सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि उत्तराखंड, राजस्थान और महाराष्ट्र से भी काफी लोग यहां आए थे.

इस कार्यक्रम के दौरान जब विधासभा चुनावों को लेकर गुजरात के दलितों का मन भांपने की कोशिश की तो पता चला कि वो दुविधा में हैं. अगर आप उनसे पूछे कि आप किसे वोट देना चहते हैं तो उनका पहला जवाब कांग्रेस ही है. लेकिन बात जब हार्दिक पटेल की आती है तो वो थोड़े सजग हो जाते हैं. सुरेंद्र नगर के लिमड़ी गांव में रहने वाले गौतम कहते हैं कि कुछ पटेल को आरक्षण की जरूरत है. लेकिन यह आरक्षण उन्हें जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक स्थिति के आधार पर देना चाहिए.  

शहरी गुजरात के मन से मोदी को मिटाना मुश्किल

राहुल गांधी दलितों, ओबीसी और मुसलमानों के जरिए गुजरात चुनाव जीतने की कोशिश जरूर कर रहे हैं लेकिन शहरों में कांग्रेस के लिए वोट बंटोरना मुश्किल साबित हो सकता है. 24 नवंबर को अहमदाबाद में राहुल गांधी के दो कार्यक्रम थे. लेकिन राहुल गांधी इस शहर में हैं या उनका कोई कार्यक्रम है इस बात की जानकारी किसी टैक्सी वालों को नहीं थी.

यह पूछे जाने पर कि क्या मोदी के आने पर भी पता नहीं चलता, तो जवाब में हैरानी थी. 25 साल के टैक्सी ड्राइवर चेतन चुनारा ने कहा, ‘मोटा भाई यहां के हैं. वह यहां से जुड़े हुए हैं और बार-बार आते हैं. पीएम बनने के बाद भी उन्होंने गुजरात नहीं छोड़ा है.’

यह बात बीजेपी को राहत दे सकती है लेकिन कांग्रेस को इन्हीं चीजों से सबक लेने की जरूरत है. जमीनी तौर पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में उतनी चुस्ती नहीं है जितना बीजेपी के कार्यकर्ता दिखा रहे हैं. राहुल गांधी ने एक ही दिन में पोरबंदर और अहमदाबाद का दौरा किया. इन कार्यक्रमों में उन्होंने बमुश्किल 30 से 45 मिनट का वक्त दिया.  एक ऐसा राज्य जहां लोगों को मोदी के अंदाज का चस्का लग चुका है वहां राहुल अपने फटाफट दौरे से कम से कम शहरी गुजरात को नहीं लुभा पाएंगे.