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जीएसटी समझौता: भारत के संघीय ढांचे पर प्रहार?

केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सही डाटा नहीं दिया था.

Dinesh Unnikrishnan

25 नवंबर को होने वाली जीएसटी कौंसिल की महत्त्वपूर्ण बैठक रद्द हो गई. इस बैठक को 2-3 दिसंबर तक के लिए टाल दिया गया है. इस बैठक के रद्द होने से पहले केंद्र और राज्य सरकार के बीच जीएसटी के मुद्दे पर हंगामा हो गया था. हंगामे की वजह थी कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सही डाटा नहीं दिया था. जबकि यह समझौते का मुख्य हिस्सा था.

अधूरे आंकड़े बने हंगामे की वजह


फिलहाल हंगामे की वजह है, सालाना 1.5 करोड़ रुपए से कम राजस्व की अदायगी करने वाले सेवा करदाताओं पर किसका नियंत्रण होगा. केंद्र ने राज्यों को पूरे आंकड़े नहीं किए थे. यह आंकड़े वास्तविक करदाताओं की संख्या से काफी कम थे और यह गंभीर बात है.

इसमें आश्चर्य नहीं कि यह बड़ी खबर नहीं बन पाई. इसकी वजह यह है कि दिल्ली के कुछ थिंक टैंक और बिजनेस मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जीएसटी संबंधी समझौते में केंद्र सरकार का पक्ष ले रहा है. जीएसटी संबंधी समझौते में आ रही दिक्कतों को मिलजुलकर हल करना चाहिए. राज्यों का सहभागी संघीय ढांचे में केंद्र से अधिक भरोसा है. इन अधूरे आकंड़ों के बाहर आ जाने से अरुण जेटली को इस टैक्स आधार पर केंद्र की दावेदारी पेश करने में मुश्किल आएगी. जबकि पहले यह आसान लग रहा था. केंद्र सरकार को होने वाला लाभ अधूरे आंकड़ों पर आधारित थे. इसे जीएसटी पर राज्यों से तुरत-फुरत समझौता करने के लिए पेश किया गया था. इस समझौते का भविष्य भारतीय संघ के संघीय ढांचे के लिए भी गंभीर मसला है. क्या राज्यों को राजस्व अधिकार में वाजिब हिस्सा मिलेगा या वे केंद्र से इसकी भीख मांगेंगे.

हम इन अधूरे आंकड़ों के परिणामों को देखें तो सबसे गंभीर मसला यह है कि इस सेवाकर दाताओं के आधार पर किसका नियंत्रण होगा. इस आधार में 1.5 करोड़ रुपए से कम सालाना राजस्व की अदायगी करने वाले शामिल हैं. यह कोई वैचारिक तर्क नहीं है लेकिन जो आंकड़ों पर निर्भर है, उनके लिए इन 1.5 करोड़ रुपयों से कम राजस्व की अदायगी करने वाले सेवा करदाताओं की सही संख्या की जानकारी वाकई महत्त्वपूर्ण है. जीएसटी कौंसिल की शुरुआती बैठक में राज्य सरकारों को केंद्र सरकार द्वारा जो आंकड़े दिए गए थे, उनमें इन सेवाकर दाताओं की संख्या 11 लाख बतायी गई थी. समझौते इसी संख्या के आधार पर हो रहे थे, जिसे राज्य सरकारें सही मान रही थीं. किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि केंद्र सरकार जीएसटी कौंसिल जैसे खास फोरम में सही आकंड़ों को छिपाएगी और अधूरे आंकड़े देकर भ्रम पैदा करेगी. 11 लाख की संख्या और अनुमानित राजस्व कोष के आधार पर राज्य सरकारें केंद्र सरकार के प्रति उदार थीं. उन्होंने यह फैसला किया कि सालाना 1.5 करोड़ तक की राजस्व की अदायगी करने वाले सेवाकर दाताओं पर केंद्र सरकार का ही नियंत्रण बना रहे. लेकिन यह स्थिति बदल गई जब यह पता चला कि 11 लाख की संख्या देकर केंद्र सरकार राज्यों को भ्रमित कर रही थी.

सौजन्य: अरुण जेटली के फेसबुक वाल से

नए आंकड़ों के बाद बदला राज्यों का रुख

राज्यों के पास अब पूरे आंकड़े उपलब्ध हैं. इस नए आंकड़े के अनुसार 1.5 करोड़ रुपए तक सालाना राजस्व की अदायगी करने वाले के वास्तविक सेवाकर दाताओं की संख्या 31 लाख है. यह केंद्र सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों से लगभग तीन गुना अधिक है. पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और राज्य सरकारों के वित्त मंत्रियों के समूह के चेयरमैन अमित मित्रा ने केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया कि उसने राज्यों से वास्तविक सेवाकर दाताओं की संख्या जानबूझकर छिपाई. करदाताओं की संख्या में तीन गुनी वृद्धि से राजस्व पर बहुत ही अलग तरह का प्रभाव पड़ेगा. इस नए आंकड़े के आधार पर अधिकतर राज्यों ने यह प्रस्ताव दिया है कि गुड्स और सर्विसेज टैक्सों के संदर्भ में राज्य सरकारों का 1.5 करोड़ तक टैक्स देने वाले वर्ग पर पूर्ण अधिकार होगा. 1.5 करोड़ से ऊपर की सीमा पर राज्य और केंद्र दोनों का नियंत्रण रहे और राजस्व में भी दोनों की हिस्सेदारी हो. किसी भी संस्था के झूठ के सामने आ जाने से उसे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है और उसे गंभीर आरोपों का जबाब देना पड़ता है. लेकिन केंद्र सर्कार ऐसा नहीं कर रही है. उसने अधिकतर राज्यों (केरल, बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, दिल्ली और अन्य राज्य) द्वारा सुझाए गए फार्मूले को मानने से इंकार कर दिया. इस वजह से हंगामा जारी है. यह बहुत ही दुखद है कि सिर्फ 31 फीसदी मतों से बनी सरकार अधिकतर राज्य सरकारों के संयुक्त फैसले को दरकिनार कर रही है. यह भारतीय संघ की संघीय ढांचे का बुनियादी दोष है.

केंद्र चाहता है, पूर्ण नियंत्रण

जीएसटी की 4 नवंबर की बैठक में राज्य सरकारों ने सेवाकर, उत्पाद शुल्क और वैट के ताजा आंकड़ों को उपलब्ध करवाने की मांग की. इस महत्त्वपूर्ण मसले पर राज्य सरकारों को बिना ताजा आंकड़े दिए जीएसटी की बैठक बुलाने का फिर मतलब ही क्या था? क्या केंद्र सरकार जीएसटी कौंसिल को रबर-स्टांप समझती है? सेवाकर दाताओं की नई संख्या के आधार पर राज्य सरकारों ने जब हंगामा खड़ा किया तो केंद्र सरकार ने इसके जबाब में यह कहा कि हल किए हुए मुद्दे को फिर से खोला जा रहा है, ताकि राज्य सरकारों को 1.5 करोड़ तक की सीमा वाले गुड्स करदाताओं पर पूर्ण नियंत्रण मिल जाए. गुड्स और सेवाओं के मुद्दे एक जैसे नहीं हैं. सेवाकर दाताओं को मुद्दा अधूरे आंकड़ों पर ‘हल’ किया गया था. ताजा आंकड़े यह बताते हैं कि वास्तविक आंकड़े दिए गए आंकड़े से तीन गुना अधिक हैं. इस वजह से अधिकतर राज्यों द्वारा फिर से समझौते की मांग उचित है. जबकि गुड्स करदाताओं के आधार के बारे में राज्यों द्वारा दिए गए आंकड़ों पर किसी गड़बड़ी का आरोप नहीं लगा है.

खत्म हो जाएंगे, राज्यों के राजस्व-अधिकार

केंद्र सरकार के पास अपनी इच्छानुसार टैक्स लगाने का अधिकार बरकरार रहेगा. इस वजह से ये अपने राजस्व के स्रोत बढ़ा सकते हैं. दूसरी तरफ राज्य सरकारों के पास जीएसटी के लागू होने के बाद, अपने राजस्व को बढ़ाने का कोई स्रोत उपलब्ध नहीं होगा. इस वजह से केंद्र सरकार संकट की स्थिति में अपने लिए राजस्व की उगाही कर सकती है. जबकि इस तरह की स्थिति में राज्यों को केंद्र से कटोरी लेकर भीख मांगना होगा. यह सही नहीं है. यह राज्यों की शक्ति और सम्मान को खत्म करता है. साथ ही लक्जरी गुड्स पर टैक्स की ऊपरी सीमा को भी केंद्र सरकार कम रखने के लिए मजबूर कर रहा है क्योंकि केंद्र इसके ऊपर कुछ अतिरिक्त टैक्स लगाना चाहती है, जिसमें राज्य सरकारों का हिस्सा नहीं होगा. यह टैक्स अभी कुल अप्रत्यक्ष कर का 25 फीसदी है. इसका मतलब है कि केंद्र राज्य सरकारों को उनके वाजिब राजस्व हकों से भी वंचित करना चाहता है.

या तो राज्यों को भी टैक्स लगाने का अधिकार हो या उन्हें टैक्स की ऊपरी सीमा को बढ़ाने की अनुमति हो, नहीं तो राज्य अपनी वाजिब राजस्व से वंचित हो जाएंगे.

किसी को यह उम्मीद हो सकती है कि भाजपा इतनी बेशर्म नहीं हो सकती क्योंकि उसने जीएसटी बिल को धन विधेयक के रूप में पेश किया था. इसके बावजूद कि राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत है, उसे जीएसटी संबंधी संविधान संशोधन पर विपक्ष का सहयोग मिला. हालांकि विपक्ष ने संसद में

बहस के दौरान अपनी आपत्तियों को दर्ज किया था.

जीएसटी पर सहमत होकर राज्यों ने राजस्व संबंधी अपनी खास शक्तियों को खो दिया है. बड़े कॉर्पोरेटों के दबाब द्वारा और बार-बार समय सीमा बढ़ाकर, केंद्र राज्यों को अपमानजनक और हानिकारक समझौते के लिए मजबूर कर रही है. यह राज्यों के ऊपर है कि केंद्र सरकार की ब्लैक-मेलिंग से वे कैसे निपटते हैं. यह भारतीय संघ के भविष्य और भारतीय संविधान की बुनियादी संरचना की रक्षा से जुड़ा है. अगर राज्य सरकारों का टैक्स अदा करने वालों के किसी भी आधार पर खास नियंत्रण नहीं होगा तो यह भारतीय संघ के संघीय ढांचे को हमेशा के लिए नुकसान पहुंचाएगा. यह केंद्र के लिए अच्छा हो सकता है. लेकिन विविधता से भरे संघ में संघीय ढांचे और लोकतंत्र से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. किसी भी केंद्र सरकार को यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वह पहले राज्यों से राजस्व के सही आकड़ों को छिपाए और फिर वह उन राजस्व अधिकारों पर नियंत्रण चाहे, जिस पर अब तक राज्यों का नियंत्रण था.

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