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सत्यपाल मलिक को J&K का राज्यपाल बनाना केंद्र की कश्मीर नीति में बदलाव का संकेत है

आने वाले दिनों में यदि सरकार बनाने की कोशिश होती है तो मलिक काम आ सकते हैं, यानी एक मंझे हुए राजनेता होने के नाते वे रियासत में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करवाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं

Govind Singh

बिहार के राज्यपाल सत्यपाल मलिक को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाना मोदी सरकार की कश्मीर नीति में एक क्रांतिकारी मोड़ है. एक तरह से केंद्र की तरफ से पहली बार कोई राजनीतिक व्यक्ति राज्यपाल बनाकर जम्मू-कश्मीर भेजा गया है. इससे पहले 1967 में डॉ कर्ण सिंह जरूर राज्यपाल रहे, लेकिन वे भी तब तक खांटी राजनेता नहीं कहे जा सकते. रियासत के युवराज होने के नाते उन्हें पहला राज्यपाल बनाया जाना था. वरना अभी तक या तो पुराने ब्यूरोक्रैट राज्यपाल बनाकर भेजे गए या पूर्व सेनाधिकारी. इसके पीछे केंद्र की कश्मीर नीति कारण रही. क्योंकि केंद्र को लगता रहा कि कश्मीर की समस्या आतंकवाद की समस्या है. उसका राजनीतिकरण हो ही नहीं सकता. उसे फौज और प्रशासन से ही हल किया जा सकता है.

दूसरे शब्दों में कहें, तो कहना होगा कि अब तक की सरकारों ने प्रदेश में राजनीतिक प्रक्रिया ही शुरू नहीं की थी. इस अर्थ में यह मोदी सरकार का एक बहुत बड़ा जोखिम भी है. इसलिए प्रदेश के राजनीतिक पंडित इस फैसले को लेकर बहुत आश्वस्त नजर नहीं आ रहे.


मलिक के राजनीतिक जीवन को देख कर लिया गया यह फैसला

सवाल यह भी है कि सत्यपाल मालिक को ही क्यों भेजा गया. बीजेपी में ही और भी ऐसे चेहरे थे, जिन्हें फौज और प्रशासन का व्यापक अनुभव था. फिर भी सत्यपाल मालिक ही क्यों? सबसे पहले सत्यपाल मलिक का जीवनवृत्त देखना चाहिए. उन्होने समाजवादी छात्रनेता के रूप में राजनीति में प्रवेश किया. फिर चौधरी चरण सिंह के लोक दल से चुनकर विधानसभा पहुंचे. फिर 1984 में राजीव गांधी की लहर में कांग्रेस में आ गए थे. तब तक लोक दल और समाजवादी धाराएं मंद पड़ने लग गईं थीं. लेकिन जल्दी ही उससे भी मोहभंग हुआ और विश्वनाथ प्रताप सिंह की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल होकर लोकसभा पहुंच गए. जहां, वे संसदीय कार्य और पर्यटन राज्यमंत्री रहे.

वर्ष 2004 में वे बीजेपी में शामिल होकर लोकसभा का चुनाव लड़े लेकिन हार गए. गत वर्ष रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने से पहले वे बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और किसान मोर्चा के प्रमुख थे. यानी वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक जाने-माने जाट नेता हैं, आने वाले चुनाव में एक ख्यात छवि वाले पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में उनके नाम को भुनाया जा सकता है. यह भी कहा जा रहा है कि बिहार में उनका कोई खास इस्तेमाल नहीं हो पा रहा था. फिर वह एक ऐसे नेता हैं, जिनके रिश्ते सभी दलों में हैं.

वीपी सिंह के मंत्रिमंडल में वे मुफ्ती मुहम्मद सईद के साथ थे. वैचारिक तौर पर उनकी ट्रेनिंग एक समाजवादी के तौर पर हुई है. वे कांग्रेस संस्कृति से भी वाकिफ हैं. इसलिए आने वाले दिनों में यदि सरकार बनाने की कोशिश होती है तो वे काम आ सकते हैं. यानी एक मंझे हुए राजनेता होने के नाते वे रियासत में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करवाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं.

सरकार बनाने की स्थिति में बीजेपी की राह को आसान कर सकते हैं मलिक

जहां तक जम्मू-कश्मीर रियासत का सवाल है, केंद्र सरकार यहां एक अजीब कश्मकश में फंसी हुई है. विधानसभा स्थगित अवस्था में है. ब्यूरोक्रैट शासन चला रहे हैं. राज्यपाल एनएन बोहरा वयोवृद्ध हो चुके हैं. राज्य की जनता को नौकरशाही के अधीन रहने की आदत पड़ चुकी है. यानी काम चल रहा है. हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि राज्यपाल न राज्य बीजेपी और न ही केंद्र सरकार के साथ सहज हैं. इसलिए भलेही काम चल रहा हो लेकिन लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती है. इसलिए एक जमे-जमाए राजनेता को राज्यपाल बना कर जहां मोदी सरकार ने प्रदेश में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने का पैगाम दिया है, वहीं अपनी पार्टी के लिए भी लाभ की स्थिति पैदा कर दी है.

अब कम से कम बीजेपी के नेता अपने कुछ काम लेकर राज्यपाल के पास जाएंगे तो उन्हें मना तो नहीं ही करेंगे. फिर यदि आगामी दो वर्ष के लिए यदि सरकार बनाने की संभावना बनती है तो उसे भी आसान बनाएंगे. बोहरा जी ये सब काम नहीं कर रहे थे, न ही कर सकते थे. इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि मोदी का यह जुआ नाकाम नहीं जाएगा. प्रदेश को यदि देश की मुख्यधारा की राजनीति में लाना है तो कभी न कभी, किसी न किसी को जुआ तो खेलना ही पड़ेगा.

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रत्रकारिता के प्रोफेसर हैं.)