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चालाकी की भी कोई हद होती है आज़ाद साहब!

एक साल पहले तक सब यही मानते थे कि मौजूदा एसपी सरकार को कानून-व्यवस्था में उसकी लापरवाही ले डूबेगी.

Nazim Naqvi

उत्तर-प्रदेश चुनावों के मद्देनजर, बुधवार को, कांग्रेस ने अपना चुनावी घोषणा-पात्र जारी किया. घोषणा-पत्र जारी करने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद से एक रिपोर्टर ने सवाल किया कि, 'इस घोषणा-पात्र में, कानून-व्यवस्था में पूरी तरह विफल रही, पिछली सरकार पर, कोई बात नहीं कही गई है.'

इस पर आज़ाद साहब बड़ी दार्शनिक मुद्रा में बोले, 'इसका जिक्र घोषणा-पत्र में इसलिए नहीं है क्योंकि कानून और व्यवस्था की मुश्किलें किसी एक राजनीतिक पार्टी की समस्या नहीं है, ये समस्या सबके सामने है चाहे वह कांग्रेस हो, बीजेपी हो, एसपी हो, बीएसपी हो या कोई और.'


‘कानून-व्यवस्था’, इन दो शब्दों को लिखे बिना कोई अखबार मुकम्मल नहीं होता, उदाहरण के लिए किसी भी दिन का अखबार उठाकर देख लीजिये.

कानून-व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेदारी 

भारतीय-संविधान भी अपनी सातवीं अनुसूची में दर्ज करता है कि ‘पुलिस’ एवं ‘लोक-व्यवस्था’ राज्य के विषय हैं, और इसलिए अपराध रोकने, पता लगाने, दर्ज करने और जांच-पड़ताल करने तथा अपराधियों के विरुद्ध अभियोजन चलाने की मुख्य जिम्मेदारी, राज्य सरकारों की है.

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किसी भी क्षेत्र में शांति बनाए रखना, अपराधों को कम करना और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना, कानून-व्यवस्था का मुख्य अंग है.

उत्तर प्रदेश में किसी भी जबान से ये सच्चाई सुनी जा सकती है कि मायावती के कार्यकाल में प्रदेश की कानून-व्यवस्था सबसे अच्छी रही, या फिर ये कि एसपी की सरकार का मतलब है गुंडों की सरकार.

आज यूपी का सियासी माहौल एक अलग ही करवट ले चुका है. याद कीजिए तो सिर्फ एक साल पहले तक सब यही मानते थे कि मौजूदा एसपी सरकार को, कानून-व्यवस्था में उसकी लापरवाही ले डूबेगी.

यूपी चुनाव में नॉन-इश्यू बना इश्यू 

तस्वीर: पीटीआई

लेकिन अब तो वो मुद्दे ही नहीं रह गए जिनपर चुनाव होना था. नॉन-इश्यू को इश्यू कैसे बनाया जाता है, ये तो कोई आज़ाद साहब जैसे राजनेताओं से सीखे.

आज़ाद साहब अगर यह कह देते कि, चूंकि अब हम उस पार्टी के साथ गठबंधन में हैं, जिसने प्रदेश में, पिछले पांच-वर्षों तक शासन की बागडोर संभाली है, इसलिए उसके कार्यकाल में हुई ‘कानून-व्यवस्था’ की गड़बड़ियों को चुनावी घोषणा-पत्र में कैसे दाखिल करते?

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तब प्रदेश के मतदाता, उनकी मजबूरी ही नहीं, उनकी सच्चाई को भी स्वीकार करते और उनकी ईमानदारी का बखान भी करते, लेकिन जिस धूर्तता के साथ उन्होंने कानून और व्यवस्था की समस्या को राजनीति का विषय मानने से ही इंकार कर दिया, ये बेहद अफसोस की बात है.

हो सकता है कि एसपी-कांग्रेस के गठबंधन का जाल फैलाकर 5-6 प्रतिशत ‘फ्लोटिंग-वोट’ फंसाने में ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ जैसा नारा उपयोगी साबित हो.

कौन सी समस्या सबके के लिए समान नहीं?

लेकिन कांग्रेस और उसके नेता पिछले एक साल से ‘27 साल- उत्तर प्रदेश बेहाल’ का जो रोना रो रहे थे, मतदाता उसे भूले नहीं हैं. खाट-पंचायत करके अखिलेश सरकार की खाट खड़ी करने की हसरत रखने वाले राहुल गांधी आज अखिलेश के कंधे पर सवार होकर चुनाव की नदी पार करना चाहते हैं.

उधर अखिलेश, जिनकी पार्टी का आधार ही कांग्रेस-विरोध की सीमेंट से मजबूत हुआ है, इतने बड़े सत्ता-लोलुप हो चुके हैं कि बाप से ही बगावत कर बैठे हैं.

कुल मिलाकर, आज़ाद के बयान का मतलब यह है कि वे समस्याएं जो सभी राजनीतिक पार्टियों के सामने, समान हैं, उनपर विरोध की राजनीति करना बे-मतलब है.

अगर ये बात मान ली जाए तो फिर वो कौन सी समस्याएं हैं जो समान नहीं हैं. क्या आपको किन्हीं ऐसी समस्याओं का पता है, अगर है तो हमें भी बताइयेगा.