इस साल जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान खास तौर पर चर्चा में है. राजस्थान में भले ही विधानसभा की 200 और लोकसभा की 25 ही सीटें हों लेकिन ये क्षेत्रफल में देश का सबसे बड़ा राज्य है. यही वजह है कि इस राज्य की चाबी बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही अपने पास रखना चाह रही हैं.
मौजूदा वक्त में यहां सत्ता बीजेपी के पास है. लेकिन कांग्रेस दूसरे राज्यों के मुकाबले खुद के लिए यहां सबसे ज्यादा संभावनाएं देख रही है. इसकी एक बड़ी वजह बीजेपी में लगातार चल रही उठापटक भी है. विपक्षी एकता और महागठबंधन की आहट के बीच बीजेपी राजस्थान के किले को बचाने की जितनी जद्दोजहद कर रही है, ये उतना ही ढहता नजर आ रहा है.
घनश्याम तिवाड़ी ने दिया जोर का झटका
बीजेपी के कद्दावर नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री घनश्याम तिवाड़ी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. तिवाड़ी ने हाल ही में भारत वाहिनी पार्टी के नाम से अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बना ली है. पार्टी का अध्यक्ष उन्होंने अपने बेटे अखिलेश तिवाड़ी को बनाया है.
पार्टी छोड़ने से पहले घनश्याम तिवाड़ी ने दीनदयाल वाहिनी के नाम से सामाजिक संगठन बनाया और कई शहरों में सम्मेलन कर अपनी ताकत को तौला. इस दौरान उन्होंने अमित शाह को नेतृत्व में बदलाव करने को लेकर चिट्ठियां भी लिखीं. वसुंधरा राजे और उनके नजदीकी लोगों पर चापलूसी, भाई भतीजावाद और अनुशासनहीनता को बढ़ावा देने का आरोप वे अक्सर लगाते रहे हैं.
तिवाड़ी पिछले काफी वक्त से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से नाराज चल रहे थे. न उन्होंने कभी अपनी नाराजगी को छिपाने की कोशिश की और न ही कभी मुख्यमंत्री खेमे से उन्हें मनाने की कोशिशें की गईं. बल्कि जितनी बार उनकी तरफ से हाईकमान को राजे की शिकायत जाती थी, उतनी ही बार पार्टी की तरफ से ये ऐलान भी किया जाता था कि नेतृत्व तो राजे के पास ही रहेगा.
कौन हैं घनश्याम तिवाड़ी?
घनश्याम तिवाड़ी उन गिने चुने नेताओं में शामिल रहे हैं जिन्होंने राजस्थान में बीजेपी की जड़ों को जमाने का काम किया. 1980 में वे पहली बार सीकर से विधायक के रूप में विधानसभा पहुंचे थे. ये वो दौर था जब बीजेपी को चुनाव लड़वाने के लिए उम्मीदवार भी नहीं मिलते थे. उस दौर में भैरो सिंह शेखावत, नाथू सिंह गुर्जर, किरोड़ी लाल मीणा, घनश्याम तिवाड़ी, हरिशंकर भाभड़ा, ललित किशोर चतुर्वेदी, रघुवीर सिंह कौशल जैसे नेता गांव-गांव घूमकर बीजेपी के बारे में लोगों को बताते थे.
जाति से ब्राह्मण घनश्याम तिवाड़ी का अपने समाज पर जबरदस्त प्रभाव माना जाता है. यही वजह है कि 1980 के बाद से तिवाड़ी कई सीटें बदल चुके हैं लेकिन हर नई जगह से वे पहले से ज्यादा वोटों से जीतते हैं. सीकर के बाद 1993 में जयपुर के पास चौमूं से चुने गए. पिछले 15 साल से वे सांगानेर से विधायक हैं.
भैरो सिंह शेखावत सरकार के साथ ही 2003-08 की राजे सरकार में भी वे कैबिनेट मंत्री रहे. लेकिन इसके बाद नेतृत्व से उनकी दूरियां बढ़ती चली गई. हालांकि बताया जाता है कि पिछले 2 चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वजह से ही उनकी टिकट कटते-कटते बची थी वरना उनके राजनीतिक संन्यास की तैयारियां पूरी थीं.
बीजेपी को कितना होगा नुकसान?
राजस्थान में बीजेपी इस समय सत्ता में होते हुए भी कश्मकश के दौर से गुजर रही है. पिछले 4 साल में 8 में से 6 उपचुनाव वो हार चुकी है. कोर वोटर समझे जाने वाले राजपूत खुलेआम विरोध का झंडा उठाये हुए हैं. आरक्षण की मांग पूरी न होने और कांग्रेस की कमान गुर्जर नेता सचिन पायलट के पास होने के चलते गुर्जर वोट भी खिसकते नजर आ रहे हैं. गुर्जरों के प्रति तुष्टिकरण की नीति के चलते मीणा समुदाय भी बीजेपी से नाराज है.
वसुंधरा राजे से नाराजगी के चलते ही पूर्व बीजेपी नेता और खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल तीसरे मोर्चे को खड़ा करने में जुटे हैं. युवा जाटों के बीच बेनीवाल ने तेजी से पैठ बनाई है. अब वे सोशल इंजीनियरिंग का JM-3 (जाट, माली, मेघवाल, मुस्लिम) समीकरण बनाने में लगे हैं. ये 4 जातियां कुल जनसंख्या में करीब 40% हिस्सा रखती हैं.
हनुमान बेनीवाल और घनश्याम तिवाड़ी की आपसी समझ अच्छी दिख रही है. ब्राह्मणों के कई संगठनों ने पहले ही तिवाड़ी का समर्थन करने का ऐलान कर दिया है. अगर JM-3 में ब्राह्मण जुड़ जाते हैं और राजपूत भी बीजेपी का साथ छोड़ देते हैं (जैसा कि अजमेर, अलवर और मांडलगढ़ उपचुनाव में हुआ) तो बीजेपी के पास कहने को 15-20% वोट भी मुश्किल से बचेंगे. जबकि 2013 के पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट प्रतिशत 50% से ऊपर रहा था.
पहले भी हुई तीसरे मोर्चे की कोशिशें
राजस्थान देश के उन गिने चुने राज्यों में शामिल है, जिनमें बीजेपी और कांग्रेस में सीधी टक्कर है. यहां ये भी तथ्य है कि 1980 के दशक में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद कोई पार्टी सत्ता में पुनर्वापसी नहीं कर पाई है. इसी हफ्ते मुख्यमंत्री ने एक जनसभा में जनता से इस ट्रेंड को बदलने का आह्वान किया. लेकिन जनता वास्तव में क्या करेगी, ये अभी भविष्य के गर्भ में है.
वैसे, इस बार पहला मौका नहीं है कि राजस्थान में तीसरी ताकत बनाने की कोशिशें की जा रही हैं. 2013 की मोदी लहर को छोड़ दें तो बीएसपी लगातार 5 से 7% वोट ले रही है. शहरी इलाकों में माकपा और जमींदारा पार्टी का भी कुछ असर है. बीजेपी में वापसी कर चुके किरोड़ी लाल मीणा पिछले चुनाव में अलग पार्टी बनाकर 4 सीटें जीतने में कामयाब रहे थे. 1990 में तो जनता दल 30 से ज्यादा विधायकों की ताकत रखता था.
कुछ दिन पहले तक किरोड़ी लाल मीणा, हनुमान बेनीवाल, घनश्याम तिवाड़ी और बीजेपी के दूसरे असंतुष्टों के एक मंच पर आकर तीसरा मोर्चा खड़ा करने की चर्चाएं भी जोरों पर थीं. लेकिन अचानक किरोड़ी मीणा के बीजेपी में चले जाने से इन चर्चाओं पर विराम लग गया.
अब घनश्याम तिवाड़ी के बेटे अखिलेश तिवाड़ी ने सभी 200 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. इससे बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता बनती नजर नहीं आ रही. वैसे तिवाड़ी के इस कदम से बीजेपी और कांग्रेस दोनों खुश दिख रहे हैं. बीजेपी इसे विपक्ष के बिखराव की संज्ञा दी रही है. वही कांग्रेस का मानना है कि घनश्याम तिवाड़ी की पार्टी को जितने वोट मिलेंगे, वो कटेंगे तो बीजेपी के पाले से ही.