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राजनीति में सफेद झूठ को हथियार बनाने का नया चलन शुरू कर रहे हैं राहुल गांधी

लोगों को बहलाना-फुसलाना या बरगलाना सियासत के बुनियादी सिद्धांतों में से एक है. लेकिन राजनीति में झूठ या यूं कहें कि सफेद झूठ को हथियार बनाना एक नया चलन है.

Ajay Singh

लोगों को बहलाना-फुसलाना या बरगलाना सियासत के बुनियादी सिद्धांतों में से एक है. लेकिन राजनीति में झूठ या यूं कहें कि सफेद झूठ को हथियार बनाना एक नया चलन है. सोशल मीडिया के इस दौर में बड़े यकीन के साथ बोला गया झूठ जनता को सच दिखने लगता है.

फरेब से जनता को बरगलाने के इस सामाजिक मनोविज्ञान को अंग्रेजी में 'गैसलाइटिंग' (Gaslighting) कहते हैं. अमेरिकी लेखिका अर्मेंडा कारपेंटर ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सियासत पर चर्चा के दौरान इस लफ्ज का जिक्र किया था. इसी साल मई महीने में मैने लिखा था कि कि तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भारत की जनता से लगातार झूठ बोल रहे हैं या गैसलाइटिंग से बहला रहे हैं. हाल के दिनों में राहुल गांधी ने गैसला इटिंग के हुनर में महारत हासिल कर ली है.


वो बड़ी अकड़ और शान से दुनिया भर में शोर मचाते फिर रहे हैं, 'मोदी राज में भारत दुनिया का सबसे खराब देश बन गया है'. राहुल गांधी दूसरे देशों में जाकर ये कह रहे हैं कि ये हालात तभी बदल सकते हैं जब प्रधानमंत्री मोदी को उनके पद से हटा दिया जाए.

मोदी विरोधी बयानबाजी के पीछे राहुल के पास ठोस वजहें हो सकती हैं. लेकिन वो बड़ी बेशर्मी से तथ्यों के साथ छेड़खानी कर रहे हैं, झूठ को सच के तौर पर पेश कर रहे हैं. ये इस बात की बानगी है कि वो छल और झूठ से जनता की सोच और बर्ताव को प्रभावित कर रहे हैं. इस जुनून के पीछे सोची-समझी चाल है.

मसलन, राहुल गांधी रफाल समझौते को भ्रष्टाचार की मिसाल साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. इस डील में भ्रष्टाचार की जो वजहें वो गिनाते हैं, उनमें से एक ये भी है कि रिलायंस ग्रुप को बिना ऐसे किसी तजुर्बे के रफाल विमान बनाने का ठेका दे दिया गया.

राहुल गांधी ऐसा कहते हुए एक बात भूल जाते हैं, या फिर जान-बूझकर कई हकीकतों की अनदेखी करते हैं. ये ऐसी बाते हैं जो सब को पता हैं, लेकिन राहुल गांधी की सियासत में फिट नहीं बैठतीं. जैसे कि ये बात कि ये पहली बार नहीं है कि रिलायंस ग्रुप को बिना किसी तजुर्बे के ऐसा प्रोजेक्ट दे दिया गया, जिस तरह के प्रोजेक्ट कंपनी ने पहले नहीं किए थे.

रिमोट कंट्रोल से चलने वाली मनमोहन सरकार के दौर में इसी रिलायंस ग्रुप को दिल्ली और मुंबई में बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़े कई बड़े प्रोजेक्ट के ठेके दिए गए थे. दिल्ली मेट्रो की एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन 6 हजार करोड़ का ठेका साल 2008 में इसी रिलायंस ग्रुप को पब्लिक-प्राइवेट साझेदारी के तहत दिया गया था. ये लाइन अगस्त 2010 में उसी साल हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स से दो महीने पहले शुरू हो जानी चाहिए थी. लेकिन इस प्रोजेक्ट ने कई बार डेडलाइन मिस की. फरवरी 2011 में एयरपोर्ट एक्सप्रेस मेट्रो का एक हिस्सा चालू किया गया. इसके बाद भी इसे चलाने में दिक्कतें आती रहीं.

कहा गया था कि इस लाइन पर मेट्रो 135 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलेगी (दूसरी लाइनों पर मेट्रो 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है). लेकिन, तकनीकी खामियों के चलते एयरपोर्ट एक्सप्रेस मेट्रो 50 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से ही दौड़ पा रही थी. जुलाई 2012 में इस रूट पर मेट्रो के सफर को रोकना पड़ा, ताकि तकनीकी खामियां दूर की जा सके. छह महीने बाद जब दोबारा एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन चालू हुई, तो रिलायंस कंपनी ये कह कर इस प्रोजेक्ट से हट गई कि उसे इस प्रोजेक्ट में भारी नुकसान हो रहा है. नतीजा ये हुआ कि सरकारी कंपनी यानी दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन को एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन का संचालन अपने हाथ में लेना पड़ा.

इससे एक साल पहले, 2007 में रिलायंस ग्रुप को मुंबई मेट्रो 1 और 2 लाइनों को बनाने का ठेका पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत दिया गया था. मेट्रो 1 की अनुमानित लागत 4600 करोड़ थी. ये लाइन 2014 में तमाम डेडलाइन बीतने के बाद शुरू हुई. वहीं मेट्रो 2 को 2017 में 18000 करोड़ की लागत के बाद भी चालू नहीं किया जा सका. इसका निर्माण कार्य अब भी जारी है. इससे पहले हमारे देश में किसी भी मेट्रो प्रोजेक्ट में किसी निजी कंपनी को शामिल नहीं किया गया था. न ही रिलायंस ग्रुप को रेल निर्माण का कोई तजुर्बा था. इसके बावजूद रिलायंस को मुंबई मेट्रो से जुड़े कई ठेके मिले.

रफाल डील को लेकर राहुल के मोदी सरकार के हमले की एक और लाइन ये है कि ये ठेका रिलायंस को 40 हजार करोड़ के कर्ज से उबारने के लिए दिया गया. क्योंकि जिस वक्त रफाल विमान खरीदने का समझौता हुआ उस वक्त रिलायंस पर 40 हजार करोड़ के कर्ज का बोझ था. राहुल गांधी के मुताबिक, सरकार ने रिलायंस ग्रुप की मदद के लिए ये ठेका उसे दिया. अब राहुल गांधी के इस आरोप में कितना दम है, ये तो नहीं पता. मगर, उनके इस आरोप से मनमोहन सरकार के दौर में खुले हाथों बांटे गए कर्ज की ही पोल खुलती है. मोदी जब बैंकों के डूबते कर्ज के लिए मनमोहन सरकार पर हमला करते हैं, तो वो 'फोन बैंकिंग' का जिक्र करते हैं. रिलायंस को बांटा गया कर्ज इसी की मिसाल है, जिसने देश के बैंकों का बुरा हाल कर दिया.

फिर भी राहुल गांधी लगातार ये हमले करते रहते हैं, जैसे उनका यूपीए के इन पापों से कोई वास्ता ही नहीं. विदेश में राहुल गांधी के एक और विस्फोटक बयान की मिसाल लीजिए. कांग्रेस अध्यक्ष ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वो न्यायपालिका को नीचा दिखा रही है. ऐसा आरोप लगाते वक्त राहुल गांधी अपनी पार्टी की करतूत पर बड़ी चतुराई से चुप रह गए. वो ये बताना भूल गए कि किस तरह उनकी पार्टी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश की थी. ये देश के सबसे बड़े न्यायिक अधिकारी को धमकाने की सबसे खतरनाक कोशिश थी.

सुप्रीम कोर्ट के 70 साल के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था. कांग्रेस की ये कोशिश नाकाम रही. लेकिन, ऐसा कर के उनकी पार्टी ने अपने खतरनाक इरादों की झलक देश को जरूर दिखा दी. इसका असर लंबे वक्त तक महसूस होगा. ये न्यायपालिका को डराने की सबसे बेशर्म कोशिश थी. परेशानी की बात ये है कि न्यायपालिका पर ये हमला देश की मुख्य विपक्षी पार्टी की तरफ से हुआ, जिसका काम हुकूमत के हमलों से न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट की हिफाजत करना होना चाहिए.

इंदिरा गांधी के दौर में सुप्रीम कोर्ट में जजों की वरिष्ठता का क्रम भंग कर दिया गया ताकि ऐसे जज नियुक्त किए जा सकें, जो सरकार का हुक्म बजा सकें. ऐसा कुछ भी पिछले चार सालों में नहीं हुआ. इसकी मिसाल ये है कि जस्टिस रंजन गोगोई के नाम की सिफारिश अगले चीफ जस्टिस के लिए कर दी गई है. जबकि, जस्टिस गोगोई उन चार बागी जजों में से एक हैं, जिन्होंने मौजूदा मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस की थी.

राहुल गांधी नोटबंदी को सबसे बड़ा घोटाला कहते हैं. मगर, अपने आरोप को वो अजीब तर्क से सही ठहराते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष कहते हैं कि नोटबंदी में सरकार ने गरीबों का पैसा लेकर रईस उद्योगपतियों के खजाने भर दिए. उनके कर्ज माफ कर दिए. ये अजीब तर्क ऐसा है जैसे कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव एक हो गए हों. इस आरोप को लगाकर राहुल गांधी यूपीए सरकार के दौरान बैंकों पर लादे गए कर्ज के पहाड़ से मुंह चुरा लेते हैं.

ये भारतीय राजनीति की उस झूठी कहानी जैसा ही है, जिसमें विपक्ष के एक नेता ने लगातार फसलें खराब होने के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया. कहानी के मुताबिक, उस विपक्षी नेता का आरोप था कि सरकार ने बांध और बिजली के कारखाने बनाए, जो पानी से बिजली निकाल लेते हैं. इससे पानी खेती के लायक नहीं रह जाता है. भले ही ये तर्क बेहूदा हो, मगर अक्सर ऐसी बातों पर जनता यकीन कर बैठती है. शायद यही वजह है कि राहुल गांधी रोज-ब-रोज एक नई झूठी कहानी गढ़ लेते हैं.

वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से करते हैं. उनकी नजर में दोनों ही संगठन असहिष्णु हैं. वो हिंसक माध्यम से देश में एक खास मजहब का राज लाना चाहते हैं. राहुल ये आरोप लगाते वक्त हकीकत पर नजर नहीं डालते. वो भूल जाते हैं कि उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आजाद भारत के सबसे भयानक दंगों के बारे में कहा था, 'जब एक बड़ा पेड़ गिरता है (यानी इंदिरा गांधी की हत्या) तब धरती हिलती है (हजारों सिखों का कत्लेआम).'

ये सच है कि माननीय पी चिदंबरम ने हाल ही में कहा कि सिख दंगों के वक्त राहुल गांधी छोटे बच्चे थे, इसलिए उन्हें अपने पिता के बयानों और कांग्रेस के कृत्यों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए. राहुल गांधी ये भी भूल जाते हैं कि 1986 में मोदी या आरएसएस ने नहीं राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद के भीतर स्थित राम मंदिर के ताले खुलवाए थे. यहां भी राहुल गांधी चिदंबरम के बयान की आड़ ले कर बच सकते हैं कि वो उस वक्त स्कूल जाने वाले बच्चे थे.

लेकिन 1989 के बारे में राहुल गांधी क्या कहेंगे क्योंकि उस वक्त तो वो कॉलेज जाने वाले युवा थे. जब उस साल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे उनके पिता ने आने वाले चुनाव में हार सुनिश्चित देख कर 1989 में अपने प्रचार अभियान की शुरुआत अयोध्या से की थी. तब राजीव गांधी ने विवादित जगह पर शिलान्यास करते हुए कहा था कि वो चुनाव जीते तो राम राज्य लाएंगे.

अब जबकि राहुल गांधी 48 बरस के हो चुके हैं, तो इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई घटनाओं के बारे में उनके क्या खयालात हैं? जब राहुल गांधी ये कहते हैं कि आजाद भारत के काले पन्ने यानी 1984 के सिख दंगों में कांग्रेस का हाथ नहीं था, तो ये उनकी संगदिली और असंवेदनशीलता को ही जाहिर करता है. किसी को भी इस बात पर भरोसा नहीं होगा. क्योंकि सिख दंगों से जुड़े कई मामले कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ चल रहे हैं. पार्टी के कुछ नेताओं ने आधे-अधूरे मन से इन दंगों के लिए माफी मांगी. और अब राहुल गांधी का ये बयान उनकी असंवेदनशीलता को ही उजागर करता है. भले ही वो घटना के वक्त इतने छोटे थे कि सियासत नही समझते थे, लेकिन, सवाल ये है कि वो हालिया इतिहास के सबक किस से सीख रहे हैं? उम्मीद है कि ये पाठ वो चिदंबरम से नहीं सीख रहे हैं.

राहुल गांधी की राजनीति में एक खास पैटर्न दिखता है. वो ये समझते हैं कि उनका आक्रामक रुख और ऐसे आरोप लगाना उनके बहुत काम आ सकता है. राहुल समझते हैं कि ऐसा कर के वो खुद को जनता की नजर में मोदी का विकल्प बना सकेंगे. वक्ती तौर पर राहुल गांधी इसमें कामयाब होते भी दिख रहे हैं. आज मीडिया में उनकी चर्चा हो रही है. वो सुर्खियां बटोर रहे हैं. राहुल के ये बयान बेतरतीब नहीं हैं. ये पार्टी की बड़ी सोची-समझी रणनीति लगती है. ये सच से मुंह फेर लेने और झूठ को पूरी शान और भरोसे से परोसने के अंतरराष्ट्रीय चलन का ही एक हिस्सा है.

फिर भी, राहुल गांधी को अभी परिवर्तन के मसीहा के तौर पर नहीं देखा जा सकता. इसकी वजहें तलाशने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है. संगठन की गैरमौजूदगी में कांग्रेस बिना पतवार की नाव जैसी है. क्षेत्रीय ताकतों से गठबंधन कर के कांग्रेस तो शायद ही मजबूत हो, ये क्षेत्रीय दल जरूर ताकतवर हो जाएंगे. राहुल के हिंदुत्व वाला दांव (मंदिरों में जाना या कैलाश मानसरोवर की तीर्थयात्रा पर जाना), संघ परिवार के नए हिंदुत्व के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता. साथ ही ये कांग्रेस की वामपंथी झुकाव वाली विचारधारा के भी उलट है.

जनता को बहलाने-फुसलाने की तो सियासत में जगह है, मगर झूठ की नहीं. और जनता को भी तभी फुसलाया जा सकता है, जब मौजूदा सरकार के खिलाफ लोगों में नाराजगी हो. जैसे कि 1977 में इंदिरा गांधी और 1989 में राजीव गांधी और 2014 में सोनिया-मनमोहन की सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा था. इनके बरक्स, मोदी ने न तो जनता का भरोसा गंवाया है और न ही वो विरोधियों के लिए सियासी जमीन छोड़ने को तैयार हैं. ऐसे परिवेश में, साफ दिखता है कि राहुल गांधी एक मूर्खता भरे सियासी सफर पर निकले हैं.

( लेखक गवर्नेंस नाउ पत्रिका के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं. इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. )