पूर्व सैनिक राम किशन ग्रेवाल ने खुदकुशी से पहले अपने बेटे को फोन किया था. कहा था- मैं खुदकुशी करने जा रहा हूं.
बाप बेटे के बीच हुई बातचीत का ऑडियो टेप भी आ गया है. लेकिन राम किशन ग्रेवाल को खुदकुशी करने से रोका नहीं जा सका.
राम किशन ओरओपी पर अपनी मांग को लेकर रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर से मिलने जा रहे थे. आंदोलनकारी उनके साथ थे. लेकिन उन्हें खुदकुशी से रोका नहीं जा सका. रास्ते में उन्होंने जहर खा लिया.
हालत बिगड़ी तो उन्हें राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती करवाया गया. और सबसे दुखद बात कि उन्हें बचाया नहीं जा सका.
जो होना चाहिए था वो नहीं हुआ. जो नहीं होना चाहिए वो जोरशोर से हो रहा है. जैसे सर्जिकल स्ट्राइक पर जमकर सियासी शोरशराबा हुआ.
जैसे सेना को राजनीति में घसीटा गया. जैसे आर्मी की जीत को सरकार की उपलब्धि बताया गया. वैसे ही एक पूर्व सैनिक की खुदकुशी पर खुलकर राजनीति हो रही है. खुदकुशी को सरकार पर ताबड़तोड़ हमले का हथियार बना दिया गया है.
सर्जिकल स्ट्राइकल का सरकार और बीजेपी सियासी फायदा उठा रही थी. पूर्व सैनिक की खुदकुशी ने ये मौका विपक्ष को दे दिया है.
राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल का एक पांव अस्पताल में था तो दूसरा थाने और जंतर मंतर में.
यूपी चुनाव के माहौल में जब सर्जिकल स्ट्राइक की सरगर्मी महसूस की जा रही थी. तो राहुल गांधी ने बड़ा पलटवार किया था.
किसान रैली में उन्होंने कहा था कि मोदी सरकार सेना के सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक फायदा उठा रही है. उन्होंने सख्त लहजे में कहा था- ‘वो जवानों के खून की दलाली कर रहे हैं.’ अब सवाल ये उठता है कि क्या अब वो लाश पर राजनीति नहीं कर रहे हैं ?
पूर्व सैनिक ने ओआरपी की मांग को लेकर खुदकुशी कर ली. वो इंसाफ की मांग को लेकर लड़ रहे थे. आंदोलन जायज था. लेकिन इस खुदकुशी को अलग तरीके से देखने की जरूरत है.
ये किसी मराठवाड़ा के किसान की खुदकुशी नहीं है, जो कर्ज तले दबा था. ये सिस्टम के सताए हुए किसी शख्स की खुदकुशी नहीं है, जो हर तरफ से मायूस हो चुका था.
ये समाज से प्रताड़ित किसी मजबूर की खुदकुशी नहीं है, जिसे कोर्ट कचहरी से भी मायूसी मिली थी. ये एक ऐसे शख्स की खुदकुशी है, जो अपनी पेंशन न बढ़ाए जाने से नाराज था.
ओआरपी का मसला कोई आज का नहीं है. मोदी सरकार ने इसे लागू करके अपनी पीठ भी थपथपा ली.
लेकिन पूर्व सैनिकों का एक तबका इससे खुश नहीं है. जंतर मंतर पर वो लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे थे.
राहुल गांधी ने इसके पहले उनकी सुध लेने की जहमत नहीं उठाई. केजरीवाल को इसके पहले उनकी जायज मांगों पर सरकार का विरोध नहीं किया.
खुदकुशी के बाद हमदर्दी के रेले में सब शामिल हो लिए हैं. इसे लाश पर राजनीति कहना कई लोगों को नागवार लग रहा है.