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कैबिनेट विस्तार: बेहतर शासन के लिए सिद्धांतों से ऊपर उठकर किया फैसला

मोदी कैबिनेट के विस्तार और फेरबदल में जो पैटर्न साफ उभर कर सामने आया है वो यह कि प्रधानमंत्री मोदी किसी भी कथित हठ से बंधे नहीं हैं

Ajay Singh

राजनीतिक पर्यवेक्षक हमेशा से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किसी भी कदम को एक ऐसे सिद्धांत का नतीजा बताते रहे हैं जिसमें उनका कथित हठ शामिल रहता है. लेकिन बीते रविवार को केंद्रीय कैबिनेट में फेरबदल के साथ जो विस्तार किया गया वो राजनीतिक पर्यवेक्षकों की समझ के ठीक उलट नजर आई. नरेंद्र मोदी जो कि संघ के पूर्व प्रचारक रहे हैं, उन्होंने अपने इस कदम से यह जता दिया कि जहां तक बात बेहतर गवर्नेंस की है-कोई भी हठ या सिद्धांत इसके आड़े नहीं आ सकते.

टीम मोदी में शामिल हुए नए मंत्रियों की फेहरिस्त इस बात को जताने के लिए काफी है. क्योंकि टीम मोदी में शामिल कई ऐसे चेहरे हैं जिनका ना तो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) से कोई खास नाता रहा है. और न ही उन्हें हमेशा मोदी का गुणगान करते देखा गया है. जाहिर तौर पर टीम मोदी में उन्हें जगह दी गई है तो इसका मकसद बेहद साफ है-गर्वनेंस और राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करना.


संघ के सिद्धांतों के प्रति उनके रुझान का इतिहास पुराना नहीं

जो लोग निर्मला सीतारमण को जानते हैं उनके बारे में ये कहा जा सकता है कि संघ के सिद्धांत के प्रति उनके रूझान का इतिहास काफी पुराना नहीं है. छात्र जीवन के बाद ही वो संघ के सिद्धांतों के करीब आईं.

यही वजह है कि संघ के कट्टर विचारकों को निर्मला सीतारमण की संघ के प्रति सैद्धांतिक निष्ठा के प्रति पूर्ण समर्पण को लेकर सवाल उठाने का मौका मिल सकता है. तुलना के लिए साध्वी उमा भारती हों या फिर साध्वी प्रज्ञा इस लिहाज से बेहतर नाम हो सकते हैं. बावजूद इसके कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी जैसे बेहद महत्वपूर्ण और नीति निर्धारक संस्था में उन्हें जगह दी गई, जो सीधे तौर पर गंभीर विषयों से लेकर गर्वनेंस के लिए जिम्मेदार है. टीम मोदी में निर्मला सीतारमण का कद उनके प्रदर्शन, कठोर परिश्रम और सम्मानित व्यवहार से बढ़ाया गया है न कि उनके सैद्धांतिक आस्था की वजह से.

(फोटो: पीटीआई)

इसी तरह आर के सिंह हों या फिर सत्यपाल सिंह या हरदीप पुरी या अल्फोंस कनन्नथानम, इन पूर्व नौकरशाहों का भी संघ परिवार के सिद्धांतों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा है. यहां तक कि आर के सिंह जिन्होंने वर्ष 1991 के रथ यात्रा के दौरान बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया था, वो उनके बेहतर नौकरशाह होने का प्रमाण है.

इतना ही नहीं बतौर गृह सचिव नॉर्थ ब्लॉक से आर के सिंह ने हिंदू आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई को बढ़ाने का काम किया था. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह बात ज्यादा मायने रखती है कि बिहार में सड़क निर्माण के कार्य में आर के सिंह ने बतौर अधिकारी बेहतर नतीजे दिए.

प्रधानमंत्री मोदी किसी भी कथित हठ से बंधे नहीं हैं

ब्रिटेन में बतौर भारत के राजदूत रहे हरदीप पुरी का कार्यकाल उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के करीब लाया. लेकिन यूपीए सरकार के दौरान भी वो नेताओं के साथ उतने ही सहज रहे. केंद्रीय कैबिनेट में पुरी को शामिल किए जाने से उम्मीद है कि विदेशी संस्थाओं में भारत का महत्व बढ़ेगा. कनन्नथानम के बारे में भी कहा जाता है कि वो नियमों को लेकर काफी सख्त हैं. प्रोजेक्ट को समय पर पूरा करने को लेकर भी उनकी छवि काफी बेहतर है.

मोदी कैबिनेट के विस्तार और फेरबदल में जो पैटर्न साफ उभर कर सामने आया है वो यह कि प्रधानमंत्री मोदी किसी भी कथित हठ से बंधे नहीं हैं. बीते रविवार को जो कैबिनेट का विस्तार किया गया है वो इस बात का सबसे ताजा उदाहरण है कि मोदी हठ और नापसंद के दायरे से ऊपर उठकर देख सकने में सक्षम हैं.

यहां तक कि राष्ट्रपति के तौर पर रामनाथ कोविंद और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ एक नई पारी की शुरुआत करना मोदी की गर्वनेंस के प्रति लगन को दिखाता है. कोविंद के मामले में संघ परिवार के सिद्धांत से उनका बहुत कम समय का नाता मोदी के लिए कोई मायने नहीं रखता. हालांकि दलित होने के बावजूद कोविंद कट्टर अंबेडरकवादी नहीं हैं. बावजूद इसके अपने कैबिनेट में मोदी ने रामदास अठावले जैसे कट्टर अंबेडकरवादी को जगह दी.

(फोटो: पीटीआई)

इस साल 26 जुलाई को नरेंद्र मोदी ने जिस तरह महागठबंधन से नीतीश कुमार को बाहर निकाल कर एनडीए कुनबे के साथ जोड़ा वो प्रसंशनीय है. क्योंकि दोनों ही नेताओं के बीच रिश्ते 2013 के बाद से तनावपूर्ण थे.

नरेंद्र मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के जुमले का जवाब था

नीतीश कुमार कोई सामान्य नेता नहीं हैं. 2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने बीजेपी को पटखनी दी थी. उन्होंने देश भर से आरएसएस को उखाड़ फेंकने की कसम खाई थी और 'संघ मुक्त भारत' जैसे नए शब्द गढ़े थे. यह नरेंद्र मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' जुमले का जवाब था.

अब जबकि नीतीश कुमार की एनडीए में एंट्री हो गई है, तो योगी आदित्यनाथ जो गोरखधाम पीठ के प्रमुख और फायर ब्रांड हिंदू नेता हैं - उनके देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य का मुख्यमंत्री बनने की घटना की तुलना करें. नीतीश कुमार और योगी आदित्यनाथ दोनों सैद्धांतिक तौर पर एक-दूसरे से काफी अलग हैं. बावजूद इसके दोनों मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए कुनबे के बेहद अहम सिपहसलार हैं.

शायद वर्ष 1950 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब कांग्रेस की तरह ही बीजेपी ने मोदी के नेतृत्व में अलग-अलग विचार की राजनीतिक सोच के दायरे को इतना विस्तार दिया है. आजादी के बाद कांग्रेस अपने छतरी के नीचे परस्पर विरोधी राजनीतिक विचारधारा के नेताओं को शामिल करने का श्रेय लूटती रही है. लेकिन वर्ष 1970 के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इस विशिष्ट विरासत को सहेज कर नहीं रख सकी. भारतीय राजनीति में बीजेपी के लगातार बढ़ते प्रभाव के साथ नरेंद्र मोदी की व्यवहारिक सियासत का तरीका पार्टी के प्रभुत्व को और बढ़ाने में मदद कर रहा है. तो साथ ही किसी कट्टर सैद्धांतिक खूंटे के साथ पार्टी के बंधे होने की छवि में भी सुधार नजर आ रहा है.

पारंपरिकता, आधुनिकता के सिद्धांत के बीच तालमेल बिठाना मुश्किल था

जो लोग बीजेपी और इसके पुराने अवतार भारतीय जनसंघ से परिचित हैं, उन्हें यह पता होगा कि तब पार्टी को संघ परिवार के पारंपरिकता और आधुनिकता के सिद्धांत के बीच तालमेल बिठा पाना कितना मुश्किल था. बीजेपी विचारक के आर मलकानी के मुताबिक 'भारत का बेहतर गर्वनेंस एक ऐसे राष्ट्रवादी पार्टी पर निर्भर करता है जो प्राचीन मूल्यों को फिर से महत्व दिला सके और साथ ही लक्ष्य पूरा करने के लिए वो भविष्यवादी हो.'

लगता है कि नरेंद्र मोदी अपने कथित कट्टर छवि के विपरीत ऐसे सैद्धांतिक अंतर के बीच बेहतर तालमेल बिठाने में अब तक कामयाब रहे हैं.