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किसानों के नाम पर आर्थिक अनुशासन ना तोड़े सरकार

सरकार बार-बार कर्ज माफी करती है, जिससे अब कर्ज माफी एक नीति का शक्ल अख्तियार कर चुकी है

Madhavan Narayanan

क्या भारतीय अर्थव्यवस्था में राजनीति इतनी हावी हो गई है कि किसानों के नाम पर आर्थिक अनुशासन का उल्लंघन हो रहा है? यह सवाल तब उठा जब कुछ सरकारी बैंकों ने वित्त मंत्री अरुण जेटली से शिकायत लगाई कि किसान इस उम्मीद में अपने खातों से पैसे निकाल रहे हैं कि सरकार उनके कर्ज माफ कर देगी.

कर्ज माफी बन गई है नीति 


कई आलोचक कहते हैं, कर्ज माफी इस कदर बढ़ी है कि अब यह एक नीति की शक्ल ले चुकी है. अब सोचने वाली बात यह है कि सरकार जो कर्ज माफ करती है, उसका भुगतान असल कौन करता है?

क्या शहरी करदाता इसे करते हैं? एक तरफ यह बात भी सच है कि 'लिमिटेड कंपनी' की आड़ में उद्योगपतियों के भी कर्ज माफ किए जाते हैं. हालांकि उन्हें 'हेयरकट' के नाम से जाना जाता है.

अब आप ही बताएं, नाम बदलने से काम बदलता है क्या? पर अर्थशास्त्र भी ऐसी चीज है कि 'कॉमन सेंस' से तोलना ठीक नहीं. जरूरी यह है कि हम अर्थशास्त्र के तत्वों का तालमेल राजनैतिक नैतिकता से बिठाएं. ताकि कोई यह न बोले, 'विजय माल्या करे तो लीला किसान करे तो करैक्टर ढीला?'

आदत तो नहीं बन गई कर्ज माफी

इस बात पर कोई दो राय नहीं, जब कर्ज माफी बार-बार होती है तो आदत बन जाती है. अब यह आदत बीमारी जैसी फैल रही है. जब सार्वजनिक बैंक इसका बोझ उठाते हैं तो कहीं ना कहीं इसका खामियाजा छोटे ग्राहकों को झेलना पड़ता है.

लगभग 60 फीसदी कृषि कर्ज वित्तीय संस्थाओं से आते हैं और इसमें अधिकतर सरकारी बैंक के हैं. अंत में इसका बिल चुकाने वाले करदाता ही होते हैं. सबसे ज्यादा मार छोटे ग्राहकों पर पड़ी है. उनके लिए होम लोन के ब्याज बढ़ जाते हैं या फिर बजट में वित मंत्री इनकी जेब काट लेते हैं. डेफिसिट कम करने का तीसरा तरीका कोई नहीं. अगर डेफिसिट बढ़ा तो समझो महंगाई फिर से बढ़ गई.

कैसे निकलेगा रास्ता?

इसके भी दो पहलू हैं. कर्ज से परेशान किसान आत्महत्या पर उतर आते हैं या फिर फसल का ठीक मूल्य न मिलने पर सड़क पर उतर आते हैं. किसानों के पास पूंजी नहीं होने पर पैदावार कम होती है. पैदावार घटने से शहरों में महंगाई बढ़ सकती है. अगर अनशन या आंदोलन हो तो राजनीतिक हल्ला-गुल्ला होता है. दबाव में आकर राज्य सरकार कर्ज माफी के लिए मजबूर हो जाती है.

इस चक्रव्यूह से कैसे बचे?

सरकार को चाहिए कि वह केंद्र स्तर पर एक ऐसी नीति बनाए जिसको आधार मानकर राज्य सरकार व बैंक निर्णय करें कि कर्ज मुक्ति तत्वों या आंकड़ों पर आधारित है या नहीं.

एक तरफ भारत आईटी में महाशक्ति कहलाता है. अंतरिक्ष में भारी सेटेलाइट लगाने की क्षमता रखता है. अगर इसका सही तरीके से इस्तेमाल होता है तो फसल, वर्षा और मूल्यों पर आधारित नीति और गाइडलाइंस बन सकते हैं.

अगर सोच समझकर ऐसी नीति बनाई जाए तो बैंक और राज्य सरकार समदृष्टि से किसानों के हित और आर्थिक अनुशासन में तालमेल बना सकते हैं.

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)