view all

बीजेपी के निशाने पर सब हैं, विरोध नहीं हुआ तो विपक्ष मिट जाएगा

अगर विपक्षी पार्टियां समय रहते नहीं चेती तो आने वाला वक्त उनके लिए मुश्किलों भरा होगा

Ashutosh

क्या मोदी के खिलाफ एक नए 'बीजेपी विरोधी' गठबंधन की शुरुआत हो गई है? क्या सारे विपक्ष को ये समझ में आ गया है कि मोदी की बीजेपी से अगर लड़ना है तो सब को अपने मतभेद भुलाकर एक मंच पर आना होगा? क्या सारे विपक्ष ने सही मायनों में 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है? क्या कांग्रेस ने भी ये मान लिया है कि बीजेपी को हराने के लिए समूचे विपक्ष के साथ सांझा रणनीति बना कर ही चलना होगा? क्या शरद यादव वो ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले हैं जो कभी 1989 चुनाव के पहले देवी लाल और एनटी रामाराव ने अदा की थी? क्या शरद यादव के द्वारा बुलाया गया 'सांझी विरासतट सम्मेलन उस मुहिम की शुरुआत है? और क्या सांझी विरासत ने उस 'वैकल्पिक कथ्य' के बीज बो दिए हैं जिसकी लंबे समय से तलाश थी कि आखिर में बीजेपी के 'फर्जी राष्ट्रवाद' का विकल्प क्या विपक्ष के पास है? और अगर ऐसा है तो क्या विपक्ष के इस कथ्य को देश का आम मतदाता स्वीकार करेगा?

ये सारा कोलाहल क्यों गूंजा और क्यों गूंजना चाहिए? ये सवाल है. ये सच है कि मोदी जिस तरह से एक के बाद एक विधानसभा चुनाव जीत रहे हैं उससे ये सवाल काफी मौंजू हो गया था कि क्या 2019 के लोकसभा चुनाव महज एक औपचारिकता हैं? क्या मोदी का फिर प्रधानमंत्री बनना तय है?


खासतौर पर यूपी की बंपर जीत के बाद एक सवाल जरूर फिजा में काफी तेजी से गूंजा कि विपक्ष पूरी तरह से निराश है, पस्त है, उसके पास न तो चेहरा है, न ही कोई एजेंडा, न ही कोई संगठन जो बीजेपी को कड़ी चुनौती दे सके? जबकि बीजेपी ने अभी से काफी तेजी से चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है.

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह देश भर का दौरा कर रहे हैं और संगठन के सामने 350 सीटें जीतने का लक्ष्य रख रहे हैं? ऐसे में विपक्ष कहां है? ये सवाल है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि अभी ये कह देना कि दिल्ली में हुए सांझी विरासत सम्मेलन ने बीजेपी को हराने का खाका बना लिया है, बहुत जल्दबाजी होगी. लेकिन ये भी सच है कि इस सम्मेलन ने एक शुरुआत कर दी है. मैं ये विश्वास से कह सकता हूं कि पिछले एक-दो महीनों से विपक्ष के नेताओं में खासी खलबली थी. वो इस बात को महसूस कर रहे थे कि सब को साथ बैठना पड़ेगा. एक साथ आवाज बुलंद करनी पड़ेगी. एक साझा एजेंडा तय कर चुनावी जंग में उतरना पड़ेगा.

इसके दो तात्कालिक कारण है और दो दीर्घकालिक. तात्कालिक कारण पहले. एक, लालू यादव पर पिछले दिनों जिस तरह से जांच एजेंसियों ने घेरा डाला और पूरे परिवार को लपेटे में लिया, उससे विपक्षी खेमे में चिंता की लकीरें खिंची. सब ये सोचने लगे कि लालू को घेरना अलग बात है पर उनके पूरे परिवार, बेटा-बेटी-दामाद पर केस डालना ठीक नहीं है. उनको इस बहाने प्रताड़ित करना गलत है.

इस का अर्थ साफ है कि बीजेपी के निशाने पर सब हैं और अगर इसका सामूहिक प्रतिकार नहीं किया गया तो फिर विपक्ष कभी खड़ा नहीं हो पाएगा. दो, नीतीश कुमार ने जिस ढंग से पाला बदला उसने भी विपक्ष के कान खड़े किए. ये समझ बनी कि बीजेपी विपक्षी खेमे में अगर ऐसे ही सेंध लगाती रही तो विपक्ष खड़ा नहीं रह पाएगा.

सबसे हैरानी की बात है नीतीश कुमार का तेजस्वी को लेकर बहाना बनाना. तेजस्वी के खिलाफ सिर्फ FIR ही दर्ज हुई थी जबकि लालू तो अपराधी घोषित हो चुके थे तब भी नीतीश को लालू से गठबंधन करने में गुरेज नहीं था यानी FIR सिर्फ बहाना है.

फिर विपक्ष में ये भी चर्चा का विषय रहा कि जिस तरह से नफरत का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है वो देश को विनाश की तरफ ले जाएगा. वो देश के टुकड़े करेगा. वो देश के सेकुलरिज्म को स्थाई चोट पंहुचाएगा. इससे देश और समाज खंडित होगा, खेमों में बंटेगा. आज देश मे कहीं गौ रक्षा के नाम पर मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है तो कहीं तिरंगा और कश्मीर की आड़ में अल्पसंख्यक समुदाय को देशद्रोही करार दिया जा रहा है और इस मिथक को गढ़ने में बीजेपी समर्थक मीडिया काफी बड़ा रोल अदा कर रहा है.

अभी हाल में महाराष्ट्र में एक कानून बनाने की तैयारी चल रही है कि पुलिस गौ-मांस की आशंका में किसी भी घर की तलाशी ले सकती है. इसी तरह उत्तर प्रदेश में पंद्रह अगस्त के मुतल्लिक ये फरमान पास किया गया कि मदरसों में वंदे मातरम गाना अनिवार्य होगा और उसका वीडियो बना कर सरकार के पास भेजना भी.

कुछ अति उत्साही जिला अधिकारियों ने ये धमकी भी मदरसों को दी कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई भी की जाएगी. क्या ये कृत्य किसी लोकतांत्रिक देश में स्वाकार्य होने चाहिए? क्या किसी को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए बाध्य किया जा सकता है?

हैरानी की बात ये है कि केंद्रीय सरकार की तरफ से इनकी निंदा नहीं की गई. इसके खिलाफ प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए था पर वो नहीं बोले. उलटे उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी को ही कठघरे में खड़ा कर दिया. उनका अपराध इतना था कि उन्होने ये कहने की जुर्रत की कि आज मुस्लिम समाज असुरक्षा में जी रहा है.

इन घटनाओं ने विपक्ष को समझाया कि अगर आरएसएस के 'सांप्रदायिक-फर्जी राष्ट्रवाद' के समक्ष 'वैकल्पिक कथ्य' खड़ा नहीं किया गया तो राजनीति का उदारवादी आकाश पूरी तरह से सिमट जाएगा और फिर बीजेपी को जल्दी हटाना असंभव होगा. विपक्ष को ये समझ में आया है कि आज बीजेपी/आरएसएस से निपटने के लिए सबको एक साथ आना भी पड़ेगा पड़ेगा. यानी ये 'सरवाइवल' की लडाई है.

विपक्ष की आपसी बातचीत में ये भी बात सामने आई कि सेकुलरिज्म शब्द आज पिटा हुआ शब्द हो गया है. इसकी जगह कुछ नया करना पड़ेगा. नया मुहावरा गढ़ना पड़ेगा. नई भाषा का नया संस्कार पैदा करना होगा. शरद यादव के सम्मेलन का नाम 'सांझी विरासत' इस सोच का नाम है. ये बजाय सेकुलरवाद पर जोर देने के इस देश के 'कंपोजिट कल्चर या लिगेसी' यानी वो संस्कृति जो सदियों से साथ रहने के बाद जन्म लेती है, पर फोकस कर रही है.

ये सच है कि पिछली सहस्त्राब्दि के आरंभ में जो जो हमले भारत पर हुए वे मध्य-पूर्व एशिया से हुए. वहीं से आए हमलावरों ने इस देश को लूटा. पर ये भी उतना ही बड़ा सच है कि बाद मे ये आक्रमणकारी इसी देश में बस गए. इस देश को अपना देश मान लिया. मुगलिया सल्तनत इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. दोनो संस्कृतियों के आपसी व्यवहार से एक नई सांझा संस्कृति ने जन्म लिया. जिनमें हिंदू अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू बना रहा और मुसलमान अपने मजहब का पालन करते हुए मुसलमान बना रहा.

1857 के पहले के इतिहास में हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसक झड़पों के उदाहरण नहीं मिलते. हिंदू ईद पर मुसलमानों के गले मिलते और मुसलमान होली के रंग में सराबोर हो हिंदू के गले लगता. हिंदुओं को कबाब पसंद आते तो मुलनानों को गुझिया स्वादिष्ट लगती. हिंदुओं में भक्ति आंदोलन हुआ तो मुस्लिम समाज में सूफी संगीत पैदा हुआ. दरगाहों के दरवाजे सबके लिए खुले थे और हैं. मुस्लिमों में जाति भेद दिखे तो उर्दू नाम से एक नई भाषा बन गई. कबीर, चैतन्य, रैदास और अमीर खुसरो एक साथ गाए जाने लगे.

आज के माहौल में ये बात भले ही आश्चर्यजनक लगे पर 1857 की आजादी की लड़ाई में हिंदू और मुस्लिमों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, अंग्रेजों के दांत खट्टे किए और कुर्बानियां दीं. जिन्ना की तरह दो राष्ट्र का सिद्धांत देने वाले आरएसएस के प्रेरणापुरुष विनायक दामोदर सावरकर तक ने ये बात मानी है.

सावरकर ने 1857 पर लिखी अपनी किताब '1857 का स्वातंत्र्य समर' के पेज नंबर 169 में लिखा है - 'सन 1857,जैसी प्रचंड राज्य क्रांति हिंदुस्तान के इतिहास में अभूतपूर्व बात थी. उसमे भी हिंदू मुसलमान अपने भाई-भाई होने का रिश्ता पहचानकर हिंदुस्तान के लिए इकट्ठा होकर लड़ने लगे, यह दृश्य बहुत ही अपूर्व एवं आश्चर्यकारी था.'

इस लड़ाई में एक तरफ अज़ीमुल्ला खान थे तो दूसरी तरफ अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए तात्या टोपे. ये महज इत्तेफाक नहीं था कि सारे क्रांतिकारियों ने मिलकर मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को क्रांति का नेता माना था. ये हिंदू-मुस्लिम एकता ही थी जिसने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया. वो ये समझ गए कि अगर इस एकता को तोड़ा नहीं गया तो हिंदुस्तान पर राज करना असंभव होगा. परिणाम सामने है. हिंदुओं की तरफ सावरकर और आरएसएस खड़े हो गए तो मुसलमानों की तरफ से जिन्ना. हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए और आज भी हम इससे उबर नहीं पाए हैं. आरएसएस इस दरार को गहरा करने में लगा है.

'सांझी विरासत' का कॉनसेप्ट इस सोच से निकला है कि नई पीढ़ी को इस इतिहास से रूबरू कराना आवश्यक है. इसमें मुस्लिम तबके का तुष्टीकरण नहीं है जिसका आभास 'सेकुलरिज्म' से होता है. ये भी महज इत्तेफाक नही है कि शरद यादव वो शख्स हैं जिन्हें 1974 में जेपी ने संयुक्त विपक्ष की तरफ से इंदिरा गांधी की कांग्रेस के खिलाफ लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था.

इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत की पूरे विपक्ष की तरफ से ये पहली राजनीतिक शुरुआत थी. शरद यादव तब जीते थे और 26 साल की उम्र में सांसद बन गए थे. इतिहास मे प्रतीकों का बडा अर्थ होता है. आज 43 साल बाद क्या वो विपक्षी एकता की धुरी बनेंगे, ये सवाल तो आज के माहौल में पूछा ही जा सकता है.

(लेखक आम आदमी पार्टी के नेता हैं. पहले टीवी चैनल के संपादक रह चुके हैं.)