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क्या चुनाव आयोग ने सरकार से वफादारी निभाने के लिए ये 'खेल' किया है

12 अक्टूबर 2017 को चुनाव आयोग के कैलेंडर में एक ऐसी तारीख के रूप में याद रखा जाएगा जिसने एक ऐसा सुनहरा मौका गंवा दिया

Sanjay Singh

चुनाव आयोग ने आरंभिक अनुमानों को झुठलाते हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों की घोषणा नहीं की. मुख्य चुनाव आयुक्त की यह अपनी तरह की प्रेस कॉन्फ्रेंस थी. इसमें जिन राज्यों में एक साथ चुनाव होने थे, आयोग ने एक राज्य (गुजरात) के लिए तारीखों का ऐलान नहीं किया और केवल दूसरे राज्य (हिमाचल प्रदेश) में चुनाव की तारीखें घोषित कीं.

हिमाचल प्रदेश में तय चुनाव कार्यक्रमों से कहीं ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि जिन 68 सीटों पर इस पर्वतीय राज्य में 9 नवंबर को चुनाव होंगे, वहां चुनाव नतीजों के लिए कोई जल्दबाजी नहीं होगी. राज्य को इसके लिए अगले 39 दिनों तक इंतजार करना होगा. 18 दिसंबर को ही यह पता चल पाएगा कि किसकी जीत हुई है और किसकी हार, या फिर कांग्रेस और बीजेपी में कौन अगले पांच साल तक राज्य में शासन करेगी.


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5 साल पहले जब इन दो राज्यों गुजरात और हिमाचल में चुनाव हुए थे, चुनाव आयोग ने 3 अक्टूबर 2012 को दोनों राज्यों के लिए एक साथ मतदान कार्यक्रमों की घोषणा की थी. हिमाचल में 4 नवंबर को एक चरण में मतदान हुआ था, जबकि गुजरात में दो चरणों में 13 दिसंबर और 17 दिसंबर को वोट डाले गए थे. और दोनों राज्यों में चुनाव नतीजे 20 दिसंबर को घोषित किए गए.

क्या गुजरात की बाढ़ है सच में है असल वजह?

इस बार चुनाव आयोग ने सामूहिक विवेक से इन दोनों राज्यों में अलग-अलग चुनाव कार्यक्रम तय किए हैं. बड़ा सवाल ये है कि इस बार अलग तरीके से ऐसा क्यों किया गया है? मुख्य चुनाव आयुक्त एके ज्योति का जवाब हैरान करने वाला है. उन्होंने चुनाव आयोग को भेजे पत्र में कहा है कि गुजरात सरकार ने एक महीने का समय मांगा था क्योंकि जुलाई में बाढ़ राहत और पुनर्वास का काम अभी तक सही तरीके से पूरा नहीं हो सका है. चूंकि राज्य के कई हिस्सों में सड़कें बर्बाद हो गईं, पुनर्वास का काम सितंबर तक शुरू नहीं हो सका और इसलिए राज्य सरकार को चुनाव की घोषणा और आचार संहिता लागू होने से पहले और समय चाहिए.

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मुख्य चुनाव आयुक्त ज्योति का जवाब दिलचस्प है. आचारसंहिता केवल राज्य और केंद्र सरकार को नई घोषणाओं से रोकता है जो संबंधित राज्य में मतदाताओं को प्रभावित कर सकती है. यह पहले से जारी काम पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाता है.

हिमाचल के नतीजों का असर गुजरात की वोटिंग पर

चुनाव आयोग का कदम इसलिए भी उत्सुकता बढ़ाने वाला है क्योंकि अब इस बात से पूरा देश अच्छी तरह से वाकिफ है कि गुजरात में चुनाव के नतीजे कब घोषित किए जाएंगे. यह तारीख 18 दिसंबर हो सकती है जब हिमाचल प्रदेश चुनाव परिणामों की घोषणा होगी और इसलिए राज्य में (दोनों चरणों के) चुनाव 10 से 16 दिसंबर के बीच किसी भी समय होंगे. याद रहे कि सिर्फ इसलिए हिमाचल में करीब डेढ़ महीने तक बिना किसी वजह के पंगु सरकार रहेगी क्योंकि यहां के चुनाव नतीजों का असर गुजरात में मतदान पर पड़ सकता है.

चुनाव आयोग की ओर से दोनों राज्यों में मतगणना की तारीख अलग-अलग रखना विचित्र लगता है. अगर ऐसा होता है तो हाल के दशकों में अपने किस्म का यह इकलौता उदाहरण है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 16-17 अक्टूबर को गुजरात जा रहे हैं और उम्मीद की जा रही है कि दिवाली के तुरंत बाद चुनाव आयोग चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर सकता है.

एक साथ चुनाव क्यों नहीं करा रहा आयोग?

पिछले हफ्ते चुनाव आयोग ने सबको चौंकाते हुए यह घोषणा की थी कि सितंबर 2018 तक आयोग पूरे देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने में सुविधाओं के ख्याल से सक्षम हो जाएगा. अब सवाल ये उठता है कि अगर चुनाव आयोग निकट भविष्य में एक साथ चुनाव कराने की कवायद कर रहा है तो जिन राज्यों में अगले दो महीने में विधानसभा की मियाद पूरी हो रही है वहां एक साथ चुनाव कराने के बदले वह दूसरा रुख क्यों अख्तियार कर रहा है.

इस परिदृश्य पर विचार करें- गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं की मियाद लगभग एक समय में पूरी होती है- हिमाचल विधानसभा की मियाद 7 जनवरी 2018 में खत्म हो रही है और गुजरात विधानसभा की मियाद 22 जनवरी को खत्म हो रही है.

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गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव खत्म होने, नतीजे घोषित होने और सरकारें बनने के तुरंत बाद चुनाव आयोग तीन अन्य राज्यों- मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा करेगा. इसका मतलब ये होगा कि केवल 10-15 दिनों को छोड़कर (दिसंबर 2017 से जनवरी 2018 के पहले हफ्ते तक) चुनाव आचार संहिता फरवरी या मार्च 2018 के शुरुआती समय तक लागू रहेगी. उत्तर पूर्व के इन तीन राज्यों में मार्च 2018 के पहले और दूसरे हफ्ते तक विधानसभाओं की मियाद है.

चुनाव आयोग ने बड़ा मौका खो दिया

प्रधानमंत्री मोदी काफी समय से देश में संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत करते रहे हैं. इस दिशा में छोटी शुरुआत करने का यह मुफीद समय था जिससे आने वाले समय में बड़े मकसद को हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता था.

लेकिन स्थिति ये है कि न तो चुनाव आयोग और न ही मोदी सरकार ने उस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता चुना है. चुनावों की अलग-अलग तारीखें और 5 महीनों तक खिंची चुनाव आचार संहिता (अक्टूबर से फरवरी) के दो मायने हैं. पहला ये कि सत्ताधारी बीजेपी के शीर्ष नेता ज्यादातर चुनाव अभियानों में व्यस्त रहेंगे और दूसरा कि हर बार जब सरकार नई स्कीम या प्रॉजेक्ट शुरू करेगी, तो विपक्षी दल चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के आरोपों से जुड़े विवादों को जन्म देंगे.

पिछली बार गुजरात और हिमाचल प्रदेश में 20 दिसंबर 2012 को चुनावी प्रक्रिया शुरू हुई थी और चुनाव आयोग 11 जनवरी 2013 को त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के लिए चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा हुई थी.

12 अक्टूबर 2017 को चुनाव आयोग के कैलेंडर में एक ऐसी तारीख के रूप में याद रखा जाएगा जिसने एक ऐसा सुनहरा मौका गंवा दिया, जबकि वह खुद प्रधानमंत्री की सोच के मुताबिक एक साथ चुनाव कराने की कोशिशों को आगे बढ़ाने की पहल कर सकता था.