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चुनाव और पैसा: कभी पूरे चुनाव क्षेत्र का खर्च 1500 रुपए, आज करोड़ों भी कम पड़ जाए

राजनीति में अमीर उम्मीदवारों के बढ़ने का सीधा मतलब है चुनावों में खर्च का बढ़ना. यानी जितने अमीर उम्मीदवार उतना ज्यादा खर्च

Surendra Kishore

बिहार के एक पूर्व विधायक ने एक बार मुझे बताया था कि ‘1962 में अपने विधानसभा चुनाव क्षेत्र में मुझे सिर्फ 15 सौ रुपए ही खर्च करने पड़े थे.’ लेकिन कर्नाटक के एक मतदाता के अनुसार तो उसे इस बार दो प्रमुख दलों के उम्मीदवारों ने अलग-अलग एक-एक हजार रुपए दिए. यह उसके एक वोट की कीमत थी.

ऐसा नहीं है कि पूरे कर्नाटक में इसी तरह वोट खरीदे गए हैं. पर इस स्वीकारोक्ति से चुनावी खर्च बेतहासा बढ़ने के संकेत तो मिल ही रहे हैं. अगर 1957 और 2018 के बीच की मूल्यवृद्धि को भी ध्यान में रखें तो इस देश में चुनाव खर्च बढ़ने का अनुपात अकल्पनीय है. यह भी ध्यान रखें कि नकद वितरण पूरे चुनाव खर्च का एक हिस्सा है.


मतदाताओं के बीच नकद वितरण का चलन तो अब बिहार सहित कई राज्यों में भी हो चुका है. लेकिन बिहार को इस मामले में भी दक्षिण के राज्यों का मुकाबला करने में अभी बहुत समय लगेगा.

आखिर चुनाव में बेतहासा बढ़ते खर्च का कारण क्या है ?

यह तो शोध का विषय है. लेकिन ऊपरी तौर पर साफ लगता है कि भ्रष्टाचार बढ़ने और अमीर उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने से चुनावों में खर्च बढ़ा है. जो उम्मीदवार जितना अमीर, उसकी ओर से उतना ही चुनावी खर्च. 2013 में एक सांसद ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा था कि उसने अपने पिछले चुनाव में आठ करोड़ रुपए खर्च किए.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए खर्च की अधिकत्तम सीमा 28 लाख रुपए है. लेकिन इस चुनाव में कितने खर्च हुए होंगे, इस संबंध में वहां से समय -समय पर आ रही खबरें गवाही दे रही थीं. दरअसल बेतहासा बढ़ते खर्चे को रोकने में किसी दल की रूचि ही अब नहीं रही. अब तो देसी-विदेशी चंदों को छिपाने की ही होड़ मची रहती है.

येदियुरप्पा के साथ रेड्डी ब्रदर्स

उम्मीदवारों के खर्च पर तो एक सीमा निधारित है, पर क्या राजनीतिक दलों की ओर से हो रहे खर्चे की कोई सीमा है? दरअसल दलों और कुछ नेताओं के पास आने वाले धन की तो कई बार जांच-पड़ताल की कानूनी मनाही भी है. ऐसे कानून को बदलने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती.

संविधान के अनुच्छेद -105 ने नब्बे के दशक में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के चार सांसदों को रिश्वत के आरोप से साफ बचा लिया था. सांसदों के खाते में रिश्वत की रकम के सबूत देख कर 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि उन पैसों पर सरकार का टैक्स बनता है.

अब अनुच्छेद-105 में संशोधन की जरूरत किसे महसूस हो रही है? ऐसे पैसे चुनावी खर्च बढ़ाने के ही तो स्रोत हैं ! उधर राजनीतिक दलों की आय का 80 प्रतिशत हिस्सा बेनामी स्रोत से आता है. इस स्थिति को बदलने के लिए राजनीतिक कार्यपालिका तैयार ही नहीं है. ये पैसे चुनाव में भी खर्च होते हैं. साथ ही, अमीर उम्मीदवार मिलकर चुनावी खर्च बेतहासा बढ़ा देते हैं.

यानी इक्के-दुक्के अपवादों को छोड़कर गरीब उम्मीदवारों के लिए चुनाव लड़ना मुश्किल होता जा रहा है. गरीब देश में गरीब ही उम्मीदवार नहीं होंगे या कम होंगे तो उसे हम कैसा लोकतंत्र कहेंगे? हालांकि ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि अधिकतर राजनीतिक कार्यकर्ता अपने जमीनी काम के बदले दलीय सुप्रीमो की कृपा से ही टिकट पाते हैं. जनता से काम का लगाव न हो तो पैसे का लगाव बनाना ही पड़ता है.

आजादी की लड़ाई में जो शामिल थे, उनका जनता से निकट का संबंध था.

आजादी के प्रारंभिक वर्षों में आम तौर पर वैसे ही लोगों को चुनावी टिकट मिले. इसलिए उनका खर्च कम था. उन्हें वोट पाने के लिए मतदताओं को पैसे देने की जरूरत नहीं थी. मतदाता भी देखते थे कि जब नेता जी खुद ही फटेहाल हैं तो हम उनसे क्या मांगे? लेकिन वक्त बीतने के साथ अधिकतर नेता जी जनता की सेवा छोड़ कर सत्ता की मलाई खाने लगे.

ऐसे बढ़ा है खर्च

इसी राजनीतिक विकास का विवरण बिहार के औरंगाबाद के पूर्व विधायक ब्रज मोहन सिंह ने दिया था. उन्होंने कहा, 'मैंने पहली बार 1962 में औरंगाबाद क्षेत्र से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर बिहार विधानसभा पहुंचा था. उस चुनाव में मुझे मात्र 15 सौ रुपए अपनी जेब से लगे.' 1967 में मुझे 35 सौ रुपए खर्च करने पड़े.

1969 के मध्यावधि चुनाव में भी लगभग उतना ही खर्च आया. बाकी खर्च मेरे लिए जनता ने किया.'

वक्त के साथ खर्च बढ़ता गया. उन्होंने कहा, '1972 और 1977 में मेरे करीब 50-50 हजार रुपए खर्च हुए. 1985 में यह खर्च बढ़कर साढ़े तीन लाख रुपए हो गया.' यह तो ऐसे नेता का चुनावी खर्च था जिसके पास धन तो था, लेकिन अपार धन नहीं था. अपार धन वाले नेताओं ने चुनावी खर्च बेशुमार बढ़ा दिया.

सत्तर के दशक में बिहार में हुए एक लोकसभा उपचुनाव में सत्ताधारी दल के उम्मीदवार ने करीब 33 लाख रुपए खर्च किए. अब तो बिहार में कई इलाकों में मुखिया के चुनाव में भी बेशुमार खर्च हो रहे हैं. करीब एक करोड़ तक.

लोकसभा-विधानसभा चुनाव के खर्च बढ़ जाने का एक कारण सांसद-विधायक फंड भी है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इस फंड के ठेकेदार से मिलने वाले ‘चंदा’ की राशि को खर्च करने में कई उम्मीदवारों को दिक्कत नहीं होती.

वंशवादी और परिवारवादी राजनीति के कारण मुफ्त में काम करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कमी होती जा रही है. इसने भी चुनावी खर्च बढ़ाया है. वैसे वोट खरीदने के सिर्फ यही कारण नहीं हैं. पता नहीं खर्चीले चुनावों से लोकतंत्र के बिगड़ते स्वरूप को बनाने की दिशा में कब और कौन पहले करेगा?