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कश्मीर: अलगाववाद की आग में घी डालने का काम कर रही हैं खुफिया एजेंसियां

कश्मीर की संड़ांध मारती अव्यवस्था के बीच सिर उठाती बहुत सारी बातों की तरफ से भारत की सरकार आंखें मूंदे रहती है

David Devadas

एक टीवी चैनल के सनसनीखेज स्टिंग से यह बात लोगों के बीच साफ साबित हो चुकी है कि हुर्रियत के नेताओं ने कश्मीर में गड़बड़ी पैदा की और इसके लिए पाकिस्तान से उन्हें करोड़ों की रकम हासिल हुई.

वरिष्ठ अलगाववादी नेता नईम खान ने कबूल किया है कि हमने अस्पताल, पंचायत भवन और पुलिस स्टेशन समेत 35 स्कूल जलाए. नईम खान तहरीक-ए-हुर्रियत का सूबाई अध्यक्ष है. तहरीक-ए-हुर्रियत की स्थापना सैयद अली शाह गिलानी ने की. अली शाह गिलानी ही इस संगठन के मुखिया हैं.


अचरज सिर्फ इस बात का नहीं कि कश्मीर में यह सब हुआ है. बड़ी बात तो यह है कि सरकार ने यह सब होने दिया. हुर्रियत की कारस्तानी कोई हाल-फिलहाल की घटना नहीं. यह तथ्य सचमुच बहुत हैरतअंगेज है कि सरकार की नजरों के आगे हुर्रियत दशकों से अपने कारनामे अंजाम देता आ रहा है.

1955  से आ रहा कश्मीर  में बाहरी पैसा

प्रतीकात्मक तस्वीर

टीवी चैनल के खुलासे में कोई नई बात नहीं है. कश्मीर में पाकिस्तान और बाकी जगहों से धन का आना 1955 से जारी है जब प्लेबिसाइट फ्रंट का गठन हुआ था. 1980 के दशक में कश्मीर घाटी में अशांति का माहौल बना. इसमें कुछ योगदान विदेश से आये धन का भी था.

इसके बाद से कश्मीर में विदेश से धन का आना बढ़ता गया है. कश्मीर में जारी अलगाववाद और उग्रवाद को 1990 के दशक और उसके बाद के दिनों में लगातार कायम रखने में पाकिस्तान ने शर्तिया हजारों करोड़ रुपये खर्च किए हैं. नईम खान की रिकार्डिंग से यह बात साफ हो गई है कि कश्मीर में अशांति फैलाने के नाम पर पाकिस्तान के लिए करोड़ों रुपए खर्च करना कोई बड़ी बात नहीं.

शनिवार यानी 7 मई को पूरे दिन एक और टीवी चैनल ने पर्दाफाश की शक्ल में कार्यक्रम चलाया. चैनल पर दिखाया गया कि पाकिस्तान से पैसा श्रीनगर के अहमद सागर के जरिए शब्बीर शाह तक पहुंचता है. शब्बीर शाह तहरीक-ए-हुर्रियत के प्रमुख नेताओं में एक है.

यह भी कोई नई बात नहीं. अहमद सागर 1980 के दशक के शुरुआती दिनों से ही यह काम करता आ रहा है. इतना ही नहीं, 1984 में उसने इस्लामिक स्टूडेन्टस् लीग बनाई. 1986 में नईम खान इस लीग का अध्यक्ष बना जबकि यासीन मलिक ने महासचिव का ओहदा संभाला.

खुला खेल

टीवी चैनल के खुलासे से जाहिर होने वाली सच्चाई नई नहीं है. भारत के खुफिया ऑपरेशन को अंजाम देने के काम से जुड़े किरदार इस सच्चाई को दशकों से जानते हैं. उन्हें पाकिस्तान से कश्मीर पहुंच रहे धन पर रोक लगानी थी लेकिन इसके उलट उन्होंने इस धन के पहुंचने की राह और आसान बनाई!

अमरजीत दुलत ने अपनी किताब में किया खुलासा

कश्मीर का मोर्चा संभालने वाले गुप्तचरों में एक प्रमुख नाम अमरजीत दुलत का है. अमरजीत दुलत ने 2015 में एक किताब लिखी और खुलेआम बताया कि कश्मीर में सिर्फ पाकिस्तान से ही नहीं बल्कि नई दिल्ली से भी पैसा आ रहा है.

दुलत को निश्चित ही यह बात पता होगी. दो दशक से भी ज्यादा वक्त तक वह कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी गुप्तचरों की काट करने के लिए हुर्रियत के नेताओं के साथ सौदा पटाने के खेल में शामिल रहा. बात सिर्फ एक अमरजीत दुलत तक सीमित नहीं. एक लिहाज से देखें तो कश्मीर में कायम भारत का पूरा खुफिया तंत्र दशकों से यह काम अंजाम देता रहा है.

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जो कुछ सामने आया है वह तो कहानी का एक हिस्सा भर है. कश्मीर में जारी छल-कपट की कहानी का एक हैरतअंगेज तथ्य यह भी है कि खुफिया एजेंसियां भारत-विरोध के मोर्चे पर सबसे ज्यादा सक्रिय नेताओं के नजदीकी रिश्तेदारों के लिए नौकरी और तरक्की के साधन जुटाने का काम करती हैं, यह उनके लिए रोजमर्रा की बात है.

अभी कुछ ही हफ्ते पहले की घटना है जब एक बड़ा बखेड़ा इस बात पर उठ खड़ा हुआ कि अली शाह गिलानी के पोते को शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कांफ्रेंस सेंटर में एक मलाईदार ओहदे पर रखा गया है. इस जगह का इस्तेमाल अक्सर पूरे हिफाजती तामझाम वाले राजकीय आयोजनों के लिए होता है( प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यहां के एक होटल में ठहरे थे और अमरजीत दुलत भी अपने दौरे के वक्त यहां रुकते हैं). ऐसे में यह संभव ही नहीं कि खुफिया एजेंसियों की हरी झंडी के बगैर इस सेंटर में किसी की नियुक्ति हो जाय.

गिलानी के पोते मलाईदार पद क्यों

इस पूरे वाकये का सबसे हैरतअंगेज पहलू यह है कि अली शाह गिलानी के पोते को सेंटर में मलाईदार ओहदा पिछले साल उस वक्त सौंपा गया जब घाटी में उपद्रव अपने चरम पर था यानी एक ऐसे समय में जब अली शाह गिलानी के बंद के आह्वान पर ज्यादातर लोग मजमे की शक्ल में आस-पास ही मौजूद थे. लेकिन ध्यान रहे कि मोटी कमाई वाला पद अली शाह के पोते को अचानक नहीं हासिल हुआ, यह पहले से चले आ रहे सिलसिले का एक हिस्सा भर है.

मिसाल के तौर पर नईम खान की पत्नी हमीदा का नाम लिया जा सकता है. वह सिर्फ शिक्षक भर नहीं बल्कि कश्मीर यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी विभाग की अध्यक्ष है. हमीदा सरीखे लोग वाईस-चांसलर तक की नियुक्ति पर अपना असर डालते हैं.

घाटी में उपद्रव पैदा करने के लिए 35 स्कूलों को जलाने की बात कबूल करने वाला नईम खान अपनी पत्नी हमीदा की तुलना में भारत-विरोधी आवाज बुलंद करने के मामले में संयम से काम लेता है. हमीदा वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों में भारतीय राजसत्ता के हाथों हो रहे सामूहिक बलात्कार, संहार और अन्य अत्याचारों की बात बहुत मुखर होकर उठाती आ रही है.

तकरीबन पांच साल पहले यूरोपीय संघ के राजदूतों का एक प्रतिनिधि-मंडल कश्मीर पहुंचा था. इस प्रतिनिधि-मंडल की कश्मीर के नागरिक संगठन से बातचीत हुई. इस बातचीत के दौरान खाने की मेज पर वह अपनी बाहों को फैलाते हुए कुछ इस अंदाज में बैठी मानो सो रही हों. शायद कश्मीर यूनिवर्सिटी की इस प्रोफेसर ने सोचा हो कि दूसरे वक्ताओं के प्रति अपनी उपेक्षा का इजहार करने के लिए यही तरीका ठीक हो. वाइस-चांसलर खाने की मेज की दूसरे तरफ चुप्पी साधे बैठे रहे.

कश्मीर की संड़ांध मारती अव्यवस्था के बीच सिर उठाती बहुत सारी बातों की तरफ से भारत की सरकार आंखें मूंदे रहती है, यह पूरे प्रकरण की सबसे भयावह बात है.