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जातिवाद-तुष्टीकरण सब पर भारी पड़ी पीएम मोदी की 'विकास लहर'

गुजरात में बीजेपी ने छठी बार सरकार बनाई तो ये आज के दौर की बदलती राजनीति में बड़ा करिश्मा है.

Kinshuk Praval

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जीत के बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि देश परफॉर्मेंस बेस्ड पॉलिटिक्स के दौर में प्रवेश कर रहा है. उन्होंने कहा कि यह जीत वंशवाद, जातिवाद और तुष्टिवाद से ऊपर है. सवाल उठता है कि जो देश तमाम धर्म,जाति और भाषाओं में बंटा हुआ है वहां का वोटर क्या वाकई अमित शाह के बयानों को आधार देता है?  या फिर आजादी के बाद से इस्तेमाल हो रही चुनावी मोहरों का हिस्सा बने रहना उसकी नियति है?

गुजरात के चुनावी रण में पटेल,दलित,ओबीसी और मुस्लिम वोटरों को लेकर साम-दाम-दंड-भेद के समीकरण साधे गए. ऐसे में क्या सिर्फ जीत के नतीजे को ही देखकर ये माना जा सकता है कि आम वोटर जातियों के जाल में नहीं उलझा?


गुजरात के नतीजों को समझने के लिए यूपी की चुनाव यात्रा जरूरी है तभी ये समझा जा सकेगा कि गुजरात के चुनाव में छिड़ी जातियों की जोरदार जंग के बावजूद विकास के मुद्दे पर ही बहुमत क्यों दिखा. दरअसल यहां कई सीटों पर दलित बनाम दलित, पाटीदार बनाम पाटीदार और ओबीसी बनाम ओबीसी के उम्मीदवार आमने सामने थे. उसके बावजूद वोटरों ने बीजेपी के विकास के दावों पर ही मुहर लगाई है.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. सपा सरकार को सत्ता में आने का पूरा भरोसा था. लैपटॉप बांटकर साइकिल ने सत्ता की सवारी की थी. फिर ‘काम बोलता है’ के नारे का साइकिल में हॉर्न फिट किया था. सपा को पूरा भरोसा था कि जातिवाद के गणित, तुष्टिकरण के तोहफे और वंशवाद की सामंती सोच के जरिए सिंहासन पर कब्जा बरकरार रहेगा. लेकिन ऐसा हो न सका. समाजवादी पार्टी की साइकिल अपनी ही बनाई राजनीति की सड़क से उतर गई.

वहीं सोशल इंजीनियरिंग के जरिए जातियों का महाजाल बुनने वाली बहुजन समाजवादी पार्टी का भी इंद्रजाल तार तार हो गया. सवाल उठता है कि आखिर कैसे जाति, वंशवाद और तुष्टीकरण की जमीन पर विकास की पैदावार हो गई? कैसे बीजेपी ‘सबका साथ सबका विकास’ के मूलमंत्र से ही यूपी के रण में उतरी और विजयी रही?

दरअसल आज के दौर की संचार क्रांति और मीडिया के प्रभावीयुग में आम मतदाता सिर्फ एक पार्टी या एक नेता तक ही सीमित नहीं रह सकता. जबतक कि वो वादों-दावों को वाकई जमीन पर उतरते न देखे. पांच साल का वक्त विकास के लिए पार्टियों को भले ही कम लगे लेकिन मतदाता के सब्र के लिए काफी होता है.

मतदाता अब खुद को वो उपभोक्ता समझता है जो अपने अधिकार पहले के मुकाबले ज्यादा बेहतर जानने लगा है. यूपी की सियासत में भी पिछले 17 साल में वोटर हर पांच साल बाद सरकार बदलने का काम करता आया है. उसने बहुजन समाजवादी पार्टी को भी आजमाया तो सपा की साइकिल पर भी बैठा और अब कमल के फूल पर मोहित है.

बदलाव की ये यात्रा अब दूसरे राज्यों में भी दिखाई देने लगी है. पंजाब,गोवा, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, उत्तराखंड और अब हिमाचल प्रदेश इसकी बानगी हैं. लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली जैसे राज्य अपवाद भी हैं. दरअसल वोटर एक ही पार्टी पर लगातार तब दांव खेलता है जब उसका भरोसा खरा उतरा हो और उसकी विचारधारा भी मेल खाती हो.

गुजरात चुनाव में बीजेपी को मिली जीत उसी भरोसे की नींव पर खड़ी पक्की इमारत जैसी है. गुजरात में बीजेपी ने छठी बार सरकार बनाई तो ये आज के दौर की बदलती राजनीति में बड़ा करिश्मा है. इसे केवल कांग्रेस की बड़ी कामयाबी के रूप में नहीं देखा जा सकता है. कांग्रेस ने ‘हाथ’ आए मौके को गंवाने का काम किया है. कांग्रेस के पास ऐसे कई मुद्दे थे जिनके बूते वो जनता को नए सपने दिखा सकती थी और उसने कोशिश भी की.

लेकिन जिस तरह से पीएम मोदी ने देश भर में विकास की ब्रांडिंग की है उससे हर जाति-वर्ग का गुजराती भी अछूता नहीं रहा. जाति की रेल तो चली लेकिन यात्री बना वोटर विकास के स्टेशन पर ही उतरा. तभी पीएम मोदी कह रहे हैं कि जीता विकास और जीता गुजरात भी. बीजेपी अगर आज अपनी जीत पर ये दावा कर रही है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश की जनता ने विकास पर मुहर लगाई है तो उसे खारिज नहीं किया जा सकता. भले ही सीटों के अनुमान सटीक नहीं साबित हुए लेकिन 22 साल बाद उसी राज्य में छठी बार सरकार बनाना वोटर की मानसिकता को दर्शाता है.

बदलाव के दौर के बावजूद वोटर को बीजेपी का विकल्प बीजेपी ही दिखा. कहा जा सकता है कि बदलती राजनीति में वंशवाद, तुष्टीकरण और जातिवाद पर विकास अकेले भारी पड़ गया. अब देश के 14 राज्यों में बीजेपी की सरकार और खुद का सीएम है तो 5 राज्यों में गठबंधन की सरकार है. बीजेपी का अगला मिशन त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और कर्नाटक है जहां उसे उम्मीद है कि मोदी लहर जीत की ताजगी को बरकरार रखेगी.