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नोटबंदी: कालेधन से कैशलेस तक, सरकार घुमाती रही विपक्ष नाचता रहा

इस संकट को सरकार संभाल नहीं पा रही है और विपक्ष का हाल तो और भी बुरा नजर आता है.

Aakar Patel

भारत में हम आजकल एक अजीब ही सियासी दौर से गुजर रहे हैं. एक तरफ तो पिछले ढाई साल में पहली बार ऐसा लगता है कि सरकार कुछ मुश्किल में है. दूसरी तरफ, ऐसा महसूस होता है कि विपक्ष में ना दम है और न ही काबिलियत कि जनभावनाओं को आवाज दे सके और इस मौके का फायदा उठा सकें.

जाहिर तौर पर बात नोटबंदी की हो रही है, जो अपने दूसरे महीने के दूसरे पखवाड़े में दाखिल हो गई है. बैंक अब भी बेहाल दिखते हैं, जबकि एटीएम मशीनों में लोगों की जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नोट नहीं हैं. लेकिन सबसे जरूरी बात यह है कि देश की नगदी को निकलवाने के लिए छेड़ी गई यह कवायद अब भी अधर में ही है.


अर्थव्यवस्था को इस कदम से नुकसान ही हुआ है और लगता है कि इन अस्थिर हालात को सही से संभाला भी नहीं जा रहा है. नोटबंदी की घोषणा के एक हफ्ते बाद एक पल आया था जब इसे वापस लिया जा सकता था. यह उस समय की बात है, जब इस मामले पर अदालत में सुनवाई शुरू हुई और ज्यादातर पुराने नोट जनता के ही हाथ में थे.

अब वह मौका निकल गया है. वह पैसा व्यवहारिक तौर पर अब गायब हो गया है, यानी आरबीआई या बैंकों के खजाने में चला गया है और नए नोट सिस्टम के जरिए पूरी तरह लोगों तक पहुंचे नहीं हैं.

इलाहाबाद में शनिवार को पैसा निकालने के लिए लाइन में लगे लोग. (फोटो: पीटीआई)

सरकार का कहना है कि हालात सामान्य होने में अभी एक महीन और लगेगा यानी जनवरी के मध्य तक का समय. अगर इस बात को मान भी लिया जाए तो सिर्फ नोट छाप लेने का यह मतबल यह नहीं होता कि अर्थव्यवस्था में वे आ भी गए हैं. नगदी को पूरी सिस्टम में वितरित करना पड़ता है और इस बात का कोई सही सही अनुमान नहीं है कि इसमें कितना समय लगेगा.

नोटबंदी पर विपक्ष का नाकारापन

चंद ही लोगों को यकीन है कि अब आगे कोई परेशानी नहीं होगी. इनमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं, जिन्होने नोटबंदी पर अपनी ताजा तकरीर में हमें इस बारे में चेतावनी दी है. यह ऐसा अवसर है, ऐसा मौका है, जिसका फायदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी विपक्ष उठा लेता. एक कदम जिससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो गई, बल्कि महीनों तक लाखों करोड़ों लोगों को परेशानी रहेगी. यह तो विपक्ष के लिए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाला मौका है.

लेकिन हैरत की बात है कि नोटबंदी के शुरुआती हफ्तों में सरकार इसका फायदा उठाने में कामयाब रही. उस वक्त मीडिया भी नोटबंदी के हक में था और देश के भले के लिए और कालाधन और आतंकवाद के खिलाफ लोगों को खुशी-खुशी लाइन में लगे हुए दिखाया गया.

कांग्रेस ने कहा कि वह नोटबंदी का समर्थन करती है लेकिन इसका प्रबंधन बेहतर तरीके से होना चाहिए ताकि आम लोगों को तकलीफ न हो. इस रुख में आत्मविश्वास की एक कमी दिखाई दी.

फोटो: पीटीआई

इससे भी बढ़कर आगे आने वाली परिस्थितियों की लेकर समझ का आभाव दिखा. यह बात सही है कि विशेषज्ञों समेत बहुत सारे लोगों को भी इसकी भनक नहीं लगी कि आगे हालात क्या करवट लेंगे. लेकिन कांग्रेस के पास केंद्र और राज्य स्तर पर इस देश पर शासन करने का दशकों का अनुभव है.

निश्चित रूप से उसके पास पर्याप्त जानकारी और आंकड़े होंगे जिनके जरिए उसे हालात का अंदाजा लग जाना चाहिए था. और अगर उसे अंदाजा नहीं लग पाया, तो वह नाकारा है.

केजरीवाल और ममता ने समझी नब्ज

कांग्रेस की बजाय, जमीन से जुड़े दो नेताओं अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी ने सबसे पहले बिना शर्त नोटबंदी का विरोध किया. उन्हें शायद पता चल गया था कि यह फैसला बहुत कठोर है और इसके प्रति जनता का समर्थन धीरे धीरे खत्म हो जाएगा.

लंबी लंबी कतारों और लोगों की परेशानियों ने जोश को ठंडा करना शुरू कर दिया. यह वजह है कि जो पहले लक्ष्य काले धन पर हमला करने का था, वह अब अर्थव्यवस्था को डिजिटल बनाने में तब्दील होता जा रहा है.

दिल्ली में शनिवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. (फोटो: पीटीआई)

यह कांग्रेस और राहुल गांधी की लाचारी ही है कि वे नोटबंदी की मार से परेशान लोगों की मुश्किलों पर मौलिक नारे नहीं गढ़ पाए. चुनावी राजनीतिक में समर्थन हासिल करने में नारों का बहुत बड़ा योगदान होता है. गांधी इस काम में माहिर थे और उन्होंने अंग्रेजों की नाक में खूब दम किया.

मोदी भी इसमें पीछे नहीं है, जो हमारे दौर के सबसे प्रतिभावान राजनेता हैं. कांग्रेस में ऐसी कोई काबलियत नहीं है और वह बस अपने आप में बड़बड़ाती नजर आती है. एक बड़ा कीमती राजनीतिक अवसर उसके हाथ लगा है लेकिन उसे पता ही नहीं है कि इसका फायदा कैसे उठाए.

सरकार के दांव-पेंच के सामने लाचार विपक्ष

जिस तरह राहुल गांधी इस संकट को देखते हैं, उससे कुछ हासिल होता नहीं दिखता. पहले तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि क्या करें, फिर उन्होंने कांग्रेस के एकतरफा कदम के जरिए विपक्ष की एकता को तोड़ दिया.

उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निजी भ्रष्टाचार को उजागर करने की धमकी दी और जब आखिरकार उनकी मोदी से मुलाकात हुई तो मुद्दे को बदलकर वह किसानों की मुश्किलों की बात करने लगे. उनकी सोच में कोई अनुशासन और रणनीति नहीं दिखती. बहुत ही कम लोगों को विश्वास होगा कि प्रधानमंत्री निजी तौर पर भ्रष्ट हैं. यह ऐसा आरोप नहीं है कि आप यूं ही हल्के में लगा दें.

कुल मिलाकर इस सरकार के खड़े किए सबसे बड़े संकट में हम लोग घिरे हैं. एक ऐसा संकट जो आम लोगों से जुड़ा है और उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर असर डाल रहा है. एक ऐसा संकट जो लगता है कि आम लोगों के स्तर पर नए साल के कुछ शुरुआती हफ्तों तक जारी रह सकता है जबकि अर्थव्यवस्था के स्तर पर कई महीने और खिंच सकता है. इस संकट को सरकार सही तरह से नहीं संभाल पा रही है और इस मामले में विपक्ष का हाल तो और भी बुरा नजर आता है.