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बीजेपी के लिए केजरीवाल को मिटाना मुश्किल क्यों है

अरविंद केजरीवाल बीजेपी के रास्ते का सबसे बड़ा कांटा हैं लेकिन तमाम कमियों के बावजूद उनके राजनीतिक वजूद को खत्म कर पाना आसान नहीं है

Rakesh Kayasth

कठपुतलियों का खेल अब सिर्फ राजनीति में होता है. पहले हर जगह होता था. कठपुतली नचाने वाले हमारे मुहल्ले में भी आते थे और स्कूलों में भी. मंच सजता था. बादशाह, बेगम, वज़ीर और सेनापति सब धागों के सहारे एक-एक करके मंच पर उतारे जाते थे. इन्ही के साथ उतरता था, ठिगने कद का मूंछों वाला एक पुतला, जिसके गले में ताशा टंगा होता था.

आखिर में तमाम कठपुतलियों के बीच जंग छिड़ती थी. एक-एक कर सब एक-दूसरे की जान ले लेते थे. बाजा बजाने वाले पर भी तलवार चलती थी. लेकिन वह ठिगना पुतला थोड़ी देर बाद फिर से खड़ा हो जाता था और बाजा बजाने लगता था. तलवार उस पर कई बार चलाई जाती थी, लेकिन वह मरता नहीं था. हर बार उठ खड़ा होता था. अरविंद केजरीवाल बाजा बजाने वाली उसी कठपुतली का नाम है. मिटाने वाले कई हैं, लेकिन मिटा पाना आसान नहीं.


केजरीवाल क्यों हैं दुश्मन नंबर वन

अगर आप सोच रहे हों कि मैं अरविंद केजरीवाल की मार्केटिंग करने आया हूं तो यह गलतफहमी अपने दिमाग से निकाल दीजिये. मैं सिर्फ इस मुद्दे पर बात करना चाहता हूं कि केजरीवाल बीजेपी के दुश्मन नंबर वन क्यों हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें पूरी तरह मिटा पाना आसान क्यों नहीं है.

केजरीवाल सत्ता पक्ष की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं, यह बात समझने के लिए उन पर या उनके मंत्रियों पर रोजाना दर्ज हो रहे मुकदमों की लिस्ट पढ़ना जरूरी नहीं है. सरकार समर्थित मीडिया और सोशल मीडिया के घनघोर कैंपेन से आपको हकीकत का अंदाजा हो जाएगा. लेकिन क्या अरविंद केजरीवाल शुरू से बीजेपी की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे. इसका जवाब है- नहीं.

अन्ना हजारे के आंदोलन तक अरविंद केजरीवाल बीजेपी के नहीं कांग्रेस के असली दुश्मन थे. कांग्रेस पूरा जोर लगाकर उन्हें आरएसएस के एजेंट के रूप में स्थापित करने पर तुली थी. जब पहली बार आम आदमी पार्टी बनी तब भी बीजेपी ने केजरीवाल से कोई खास खतरा महसूस नहीं किया. केंद्र की मनमोहन और दिल्ली की शीला सरकार के खिलाफ कैंपेन चलाकर केजरीवाल एक तरह से बीजेपी को फायदा ही पहुंचा रहे थे. बीजेपी ने यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन केजरीवाल उसके लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन जाएंगे.

बढ़ती ताकत और महत्वाकांक्षा ने रखी दुश्मनी की नींव

केजरीवाल कांग्रेस के पतन की पदचाप सुन रहे थे. लिहाजा 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले से ही उन्होंने खुद को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने की कवायद शुरू कर दी थी. केजरीवाल पूरे पॉलिटिकल सिस्टम और तमाम पार्टियों पर एक साथ सवालिया निशान लगा रहे थे. इसी दौरान उनका चिर-परिचित जुमला `सब मिले हुए हैं जी’ सामने आया था. नरेंद्र मोदी को लगातार ललकारना और 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके खिलाफ वाराणसी जाकर लड़ना खुद को एक राष्ट्रीय विकल्प के तौर पेश करने की उनकी कोशिशों का हिस्सा था.

दिल्ली के नतीजों ने पक्की की दुश्मनी

प्रचंड मोदी लहर वाले 2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ महीने बाद दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव के नतीजे हर किसी के लिए अकल्पनीय रहे. आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटें जीती, जिन 3 सीटों पर वह हारी वहां भी फासला बहुत ज्यादा नहीं था. प्रधानमंत्री मोदी ने खुद इस चुनाव में जबरदस्त कैंपेन किया था. दिल्ली के नतीजों ने बीजेपी को हिलाकर रख दिया और यहीं से तय हो गया कि आनेवाले समय में पार्टी को राहुल गांधी नहीं बल्कि अरविंद केजरीवाल को लेकर रणनीति बनानी होगी.

मोदी के खिलाफ केजरीवाल के हमलावर तेवर

भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद ही ऐसी कोई और सरकार होगी, जो इतने प्रचंड बहुमत के बावजूद शुरू से ही चौतरफा परेशानियों में घिरी रही हो. सत्ता संभालते ही दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के साथ जंग शुरू हो गई. करप्शन और अनैतिकता जैसे सवालों पर अपने ही मंत्रियों को हटाना पड़ा.

कई विधायक विवादों में घिरे और मुकदमेबाजी की चपेट में आये. 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में पड़ी. मुहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार जैसे काम इन विवादों के साये में दब गये.

इतना सबकुछ होने के बावजूद केजरीवाल ने केंद्र सरकार के खिलाफ अपने हमालावर तेवर जारी रखे. कांग्रेस पार्टी की खामोशी और अपने झमेलों में फंसी बाकी विपक्षी पार्टियों की सुस्ती के बीच केजरीवाल लगातार केंद्र के खिलाफ गला फाड़ते रहे और खुद को उन्होंने एक तरह से वर्चुअल ऑपोजिशन के रूप में स्थापित कर लिया.

केजरीवाल की सिर्फ न्यूसेंस वैल्यू नहीं

केजरीवाल को काउंटर करने के लिए बीजेपी ने भी उतना ही जोर लगाया. मुकदमेबाजी और बयानबाजी से ज्यादा कारगर हथियार साबित हुआ बीजेपी का सोशल मीडिया विंग. 2014 तक सोशल मीडिया पर चलने वाले लतीफा कैंपेन के नायक राहुल गांधी हुआ करते थे. लेकिन देखते-देखते यह जगह केजरीवाल ने ले ली. उन्हें एक नौटंकीबाज और जोकर के रूप में स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. नौटंकी का सवाल अपनी जगह लेकिन बीजेपी भी जानती है कि केजरीवाल महज एक मसखरे नहीं हैं. अगर वे सिर्फ न्यूसेंस वैल्यू वाले नेता होते तो फिर उनके खिलाफ इतना जोर लगाने की जरूरत बीजेपी को क्यों पड़ती?

वैकल्पिक राजनीति की संभावना ज्यादा बड़ा डर

भारतीय राजनीति में बीजेपी के उभार के बाद आम आदमी पार्टी का उभरना सबसे बड़ी घटना थी. राम मंदिर आंदोलन बीजेपी के उभार की सबसे बड़ी वजह बना था. लेकिन सच पूछा जाये तो ताकतवर होने के पीछे राजनीतिक संघर्ष का लंबा इतिहास था. बीजेपी के उभार के पीछे आरएसएस के लाखों प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों की ताकत थी. लेकिन आम आदमी पार्टी के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं था. उसका उभार बिना किसी संगठन के और एकदम आकस्मिक था.

दम तोड़ती कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के सिमटने के दौर में आम आदमी पार्टी एक ऐसी संभावना के तौर पर उभरी जिसमें बड़े मतदाता समूह के बीच वैधता हासिल करने की क्षमता थी. इसका असर दिल्ली से बाहर भी दिखाई देने लगा. बीजेपी के डर की सबसे बड़ी वजह यही है. आम आदमी पार्टी की आयडियोलॉजिकल पोजिशन कुछ ऐसी है कि इसमें लेफ्ट राइट सेंटर सब समा सकते हैं.

केजरीवाल दिन में पांच बार वंदे-मारतम और भारत माता की जय बोलते हैं, पाकिस्तान को गालियां देते हैं और झुग्गी झोपड़ी वालों से हमदर्दी भी रखते हैं. उनकी पार्टी में अलग-अलग विचारधाराओं से निकले लोग हैं, जिनमें धुर दक्षिणपंथी से लेकर चरम वामपंथी तक हैं. इतने बड़े समूह को खुद में समेटने की क्षमता एक दौर में कांग्रेस पार्टी में ही थी.

आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा एडवांटेज ये था कि वो करप्शन विरोधी आंदोलन के जरिये राजनीति में आई थी. ये तमाम बातें उसे एक मजबूत राष्ट्रीय विकल्प बनाने में सहायक हो सकती थी. केजरीवाल को राजनीतिक रूप से मिटा देने की बीजेपी की मंशा और मजबूरी की सबसे बड़ी वजह यही है.

केजरीवाल के बचे रहने की संभावना क्यों है

केजरीवाल और मोदी के बीच पिछले तीन साल से टेनिस की लंबी रैली चल रही है. इधर से सर्विस जाता है और उधर से तगड़ा रिटर्न आता है. मोदी पर लगाये गये केजरीवाल के आरोपो के पुलिंदे अब तक जुबानी जमा-खर्च साबित हुए हैं. बदले में केंद्र सरकार ने उनके खिलाफ साम-दाम दंड भेद यानी हर मुमकिन हथकंडे आजमाये हैं. इन हथकंडों के बावजूद अभी केजरीवाल का कुछ बहुत ज्यादा नहीं बिगड़ा है.

आखिर ऐसा क्यों है?

बड़ी वजह यह है कि पुरजोर कोशिशों के बावजूद केंद्र सरकार केजरीवाल या उनके करीबी उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के खिलाफ अब तक कोई ऐसा ठोस निजी मामला नहीं बना पाई है, जिससे उनकी विश्वसनीयता खतरे में आये.

विधायकों को संसदीय सचिव बनाने जैसे अनाड़ी फैसलों के अलावा दिल्ली सरकार पर भी अब तक कोई ऐसा सीधा इल्जाम नहीं लगा है, जिसमें बहुत ज्यादा दम हो. जिन मंत्रियों पर आरोप लगे उन्हें तत्काल हटाकर केजरीवाल ने पाप धो लिया.

लेकिन आम आदमी पार्टी के भीतर तख्ता-पलट करवाने की कोशिशें जारी हैं. कपिल मिशन मिश्रा फेल होने के बाद ये मामला फिलहाल टल गया लगता है. लेकिन हमेशा के लिए टल जाएगा, इसका दावा नहीं किया जा सकता है.

21 विधायकों की सदस्यता पर तलवार लटक रही है. अगर सदस्यता गई और बीजेपी अंसतुष्टों में बगावत करवाने में कामयाब रही तो आनेवाले वक्त में सरकार गिर भी सकती है. लेकिन क्या ऐसा करना बीजेपी के लांग टर्म पॉलिटिक्स को सूट करेगा और आम आदमी पार्टी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी?

जिस तरह इस वक्त देश में नरेंद्र मोदी का कोई दमददार विकल्प नजर नहीं आता, उसी तरह प्रतिपक्ष के तौर अरविंद केजरीवाल के अलावा कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आता जिसके पास राष्ट्रीय अपील हो. केजरीवाल ने अतीत में कई गलतियां की और उनके वोटरों उन्हें हर बार माफ किया. जिस दिल्ली ने केजरीवाल को 67 सीटें दी, वही दिल्ली अचानक केजरीवाल को गड्ढे में दफना देगी यह बात तर्कसंगत नहीं है.

आम आदमी पार्टी के नेता दिलीप तिवारी और दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन

बीजेपी के दबाव से बेअसर

विपक्ष इस समय ऐतिहासिक रूप से कमजोर ही नहीं बल्कि अलग-अलग वजहों से दबाव में भी है. प्रधानमंत्री ने यूपी की एक जनसभा में बाकायदा चेतावनी दी थी कि केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने से पहले विपक्षी नेता सोच लें क्योंकि सबकी कुंडली उनके पास है.

याद कीजिये बिहार चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव के रहस्यमय तेवर, अपने ही समधी लालू यादव के खिलाफ उम्मीदवार खड़े करना और बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाना. राहुल गांधी का अचानक महीनों तक लिए गायब हो जाना. नीतीश कुमार का केंद्र सरकार को बीच-बीच में खुला समर्थन, लालू और मायावती पर लगे करप्शन के ढेरों इल्जाम.

लेकिन केजरीवाल का मामला इन सबसे अलग रहा है. दबाव का बहुत ज्यादा असर उन पर नहीं दिखा. वे संभवत: इकलौते ऐसे विपक्षी नेता हैं, जो केंद्र के खिलाफ लगातार मुखर रहे हैं. देश का एक बहुत बड़ा वोटर समूह जो बीजेपी को वोट नहीं देना चाहता और कांग्रेस को भी नापसंद करता है, आखिर उसके लिए विकल्प क्या है? केजरीवाल के बचे रहने की संभावनाएं इसी सवाल में छिपी हुई हैं.

बचे भी रहे तो क्या कर लेंगे केजरीवाल?

अब आखिरी लेकिन लाख टके का सवाल? अगर केजरीवाल बीजेपी और केंद्र सरकार की तरफ से किये जा रहे चौतरफा हमलों में भी अपना वजूद बचाये रख पाने में कामयाब हो गये तो क्या होगा? आखिर आगे वे क्या कर लेंगे? जवाब बहुत मुश्किल है, पिछले पौने तीन साल में उन्होंने जो किया है, उसके आधार पर तो और भी मुश्किल. यह सच है कि अपने वोटरों के बीच भी केजरीवाल की इमेज एक ऐसे नेता की बनती जा रही है जो सिर्फ निगेटिव पॉलिटिक्स करता है. दूसरो पर इल्जाम लगाता है और खुद कभी सफाई नहीं देता.

दिल्ली की सड़कों पर घूमने और लोगों से बातचीत करने का कुल जमा अनुभव यही है कि लोग ये मानते हैं कि केजरीवाल ने अपना जरूरत से ज्यादा वक्त नरेंद्र मोदी का पीछा करने में खर्च किया है. केंद्र सरकार के कथित अड़ंगों के बावजूद उनके पास करने को बहुत कुछ था. लेकिन उन्होंने उतना कुछ किया नहीं और जो किया वो भी दिखा नहीं.

पार्टी के भीतर लोगों की राय ये है कि सत्ता आते ही केजरीवाल पर गुरूर हावी हो गया, उन्होंने अपने लोगों से मिलना बंद कर दिया. विधायकों तक के लिए अब उनके पास वक्त नहीं है.

आलोचक केजरीवाल को एक ऐसे अनाड़ी राजनेता के रूप में देखते हैं जो आंदोलनकारी वाले तेवर से अब तक बाहर नहीं आ पाया है. ये बात एक हद ठीक है. लेकिन अनाड़ी कहना सही नहीं होगा, हां अवसरवादी जरूर माना जा सकता है. लोकप्रियता हासिल करने और जनाधार पक्का करने के लिए उन्होंने उसी पॉपुलरिज्म का सहारा लिया है, जो क्षेत्रीय पार्टियों का हथियार हुआ करती है. इसका नतीजा ये हुआ कि एक राजनीतिक मूल्यों पर आधारित एक पार्टी वाली आप की इमेज धीरे-धीरे मिटती चली गई.

विरोधियों को साथ लेकर चलने का हुनर केजरीवाल पिछले तीन साल में बिल्कुल नहीं सीख पाये. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे लोगों के निकाले जाने का असर राजनीतिक तौर पर भले ही ना हुआ हो, लेकिन परसेप्शन के लिहाज से बहुत बुरा हुआ, खासतौर पर पढ़े लिखे शहरी मध्यमवर्ग के बीच.

भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक अपराध नहीं है. इसे बड़े फलक पर देखे जाने की जरुरत है. करप्शन का सीधा संबंध हमारे जीवन मूल्यों से है. अन्ना हजारे के आंदोलन के समय ऐसा लगा था कि पूरा देश इन मूल्यों को बदलना चाहता है और इसके लिए एक राजनीतिक विकल्प तलाश में है.

विकल्प मिल गया लेकिन नतीजा क्या हुआ? वैकल्पिक राजनीति का कोई और चेहरा नहीं है, इसलिए केजरीवाल का वजूद बना रहेगा, लेकिन वे आगे करेंगे क्या? अपनी बड़बोले शैली के विपरीत पिछले कुछ अरसे से वे खामोश हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बारे में गहन चिंतन कर रहे होंगे.