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डिफेंस ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क: सरकार के इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में क्यों हो रही है देरी

रक्षा सेवाओं के लिए शुरू किया जाने वाला सरकार का महत्वाकांक्षी ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क कुछ विशेष कारणों से लेटलतीफी का शिकार हो गया है.

Yatish Yadav

रक्षा सेवाओं के लिए शुरू किया जाने वाला सरकार का महत्वाकांक्षी ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क कुछ विशेष कारणों से लेटलतीफी का शिकार हो गया है. जबकि, इस प्रोजेक्ट के लिए बीएसएनएल यानि भारत संचार निगम लिमिटेड ने खर्च किए जाने वाले फंड की सीमा भी काफी बढ़ा दी थी. ऑप्टिकल फाइबर की इस सुविधा का मकसद देश की रक्षा संस्थानों को एक वैकल्पिक संचार-संवाद का साधन मुहैया करना था. इस प्रोजेक्ट में कई बहुराष्ट्रीय वेंडर यानि विक्रेता शामिल हैं.

इस प्रस्ताव को सबसे पहले दिसंबर 2009 में मंजूरी दी गई थी, लेकिन इसे कई स्तर पर दिक्कतों का सामना करना पड़ा. सरकार ने भी इस आशय पर सहमति जताते हुए कहा था कि ये प्रोजेक्ट समय और पैसा दोनों ही स्तर पर महंगा साबित हो रहा है, जिसका साफ मतलब ये था कि योजना के स्तर पर जितना पैसा लगाने की बात हुई थी, असल में वो उससे कहीं ज्यादा हो गया और जिसके कारण पहले से ही देर हो चुका ये प्रोजेक्ट और देरी झेलने को मजबूर.


योजना की शुरुआत में ये तय किया गया था कि ये प्रोजेक्ट जुलाई 2015 में पूरा कर लिया जाएगा. फ़र्स्टपोस्ट को इससे संबंधित कागजातों का अध्ययन करने के बाद पता चला है कि रक्षा सेवाओं ने 2002 से पहले, 60+60 मेगाहर्ट्ज़ स्पेक्ट्रम, अपनी सेवा को स्थानांतरित करने के लिए बिना किसी वैकल्पिक नेटवर्क की मांग किए बगैर ही जारी कर दिया था.

साल 2009 में, एंपावर ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स पैनल द्वारा दिए गए सुझावों पर अमल करते हुए, रक्षा मंत्रालय ने सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय के साथ एक समझौता किया. जिसके तहत 1700 – 2000 मेगाहर्ट्ज़ सब-बैंड पर, 65 मेगाहर्ट्ज़ स्पेक्ट्रम छोड़ने का रोडमैप तैयार किया गया.

सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय स्पेक्ट्रम के बदले तीन पेशकश की थी. पहला, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा एक विशेष तौर पर बनाया गया समर्पित ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क जिसके ज़रिए मौजूदा रक्षा प्रक्रियाओं का स्थानांतरण किया जा सके. दूसरा, एक ख़ास डिफेंस बैंड और डिफेंस इंट्रेस्ट ज़ोन की घोषणा और तीसरा रक्षा ज़रूरतों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्पेक्ट्रम पर कोई शुल्क नहीं लगाना.

एक सरकारी अधिकारी के अनुसार, ‘बीएसएनएल द्वारा लागू किए गए इस प्रोजेक्ट को कई भागों में बांट दिया गया है, लेकिन नवंबर 2012 में ही जब इससे संबंधित पहला टेंडर जारी किया गया था, तभी से इसे कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. नवंबर 2012 में जारी किए गए टेंडर को फरवरी 2013 में रद्द करना पड़ा. अब, इसमें थोड़ी प्रगति हुई है और उन लोगों ने फिर से वो सभी टेंडर, नए वेंडरों को आवंटित कर दिया है, और परचेज ऑर्डर जारी कर दिया है. हालांकि, काफी समय बीत जाने के कारण एक बार फिर से इसकी कीमत पहले से कहीं ज़्यादा हो गई है, लेकिन इसके साथ ही इसके पूरा होने की भी उम्मीद है.’

बीएसएनएल के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर अनुपम श्रीवास्तव को भेजे गए विस्तृत प्रश्नपत्र का कोई जवाब नहीं मिला. इस बारे में जो भी जानकारियां फ़र्स्टपोस्ट को मिली हैं, उससे ये पता चलता है कि ये प्रोजेक्ट यूपीए शासन के दौरान अपनाई गई लचर नीतियों की भेंट चढ़ गया, और 2014 के एनडीए शासन के दौरान भी बदस्तूर जारी रहा. ये बेहद आश्चर्यजनक है कि जिस प्रोजेक्ट का फाइल एक दशक पहले पास कर दिया गया था, वो आज तक पूरा नहीं हो पाया है.

इस योजना से जुड़े कागजातों की जांच से पता चलता है, ‘टेलीकॉम सेक्टर की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, रक्षा विभाग साल 2009 में कुल 65 मेगाहर्ट्ज़ स्पेक्ट्रम रिलीज करने के लिए तैयार थी. (इनमें से 40 मेगाहर्ट्ज़ 2जी बैंड की श्रेणी में और 25 मेगाहर्ट्ज़ 3जी बैंड की श्रेणी में था). इस 65 मेगाहर्ट्ज़ स्पेक्ट्रम को 1700 – 2000 मेगाहर्ट्ज़ सब-बैंड में छोड़ा जाना था.

फौज के लिए काम करने वाली 2जी और 3जी बैंड वाले दूरसंचार सिस्टम को वायर या ओएफसी मीडियम में बदला जाना था. सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय तब इस बात को राजी हो गया था कि वो तीनों रक्षा सेवाओं ‘आर्मी, नेवी और एयरफोर्स’, को ‘प्रोजेक्ट नेटवर्क फॉर स्पेक्ट्रम’ (एनएफएस) के नाम से देशभर में फैला हुआ एक कम्यूनिकेशन इंफ्रास्ट्रक्चर बना कर देगा. इसके बदले में डिफेंस सर्विसेज उन्हें 2जी और 3जी स्पेक्ट्रम मुहैय्या कराएगी.

इस संबंध में रक्षा मंत्रालय और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय के बीच 22 मई 2009 को एक समझौता भी हुआ था, जिसमें स्पेक्ट्रम छोड़े जाने की बात कही गई थी. कागजातों की जांच पर पता चलता है कि रक्षा सेवाओं द्वारा जहां पर स्पेक्ट्रम रिलीज की बात कही गई है, वहीं पर उसका संबंध प्रोजेक्ट ‘एनएफएस’ से भी दिखाया गया है.

इसके बाद के कागजातों में कहा गया है, ‘अगस्त 2012 में केंद्रीय कैबिनेट ने 13,334 करोड़ की कीमत वाली प्रोजेक्ट ‘एनएफएस’ को मंजूरी दे दी है जिसे जुलाई 2015 तक पूरा करने को कहा गया है.

कागज़ातों के मुताबिक इस प्रोजेक्ट की ख़ास बातों में-412 मिलिट्री स्टेशनों को ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क से जोड़ना था. इसमें करीब 60,000 किमी की दूरी तक ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने का काम था. इस नेटवर्क के चार मुख्य भाग थे - कोर नेटवर्क का बैकबोन या आधार, आर्मी की पहुंच वाला नेटवर्क, नेवी की पहुंच वाला नेटवर्क और एयरफोर्स की पहुंच वाला नेटवर्क था.’

2016-2017 के अपने आउटकम बजट में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने इस योजना को पूरा करने के लिए नई समयसीमा तय की, जो सितंबर- 2017 था. लेकिन, इसमें सावधानी पूर्वक इस बात का भी ज़िक्र कर दिया गया कि योजना तभी सफल हो पाएगा जब बीएसएनएल से जो सामान खरीदने हैं, अगर वो पूरा हो जाता है तभी.

‘इस पूरे प्रोजेक्ट को 9 हिस्सों में बांटा गया है. ओएफसी कंपोनेंट के लिए पर्चेज़ ऑर्डर जारी कर दिए गये हैं. बीएसएनएल इसके लिए ज़रूरी अन्य पुर्ज़ों के खरीदारी के लिए ऑर्डर निकालने की तैयारी में है. अब ये प्रोजेक्ट कब पूरा हो पाता है इसके बारे में तभी पता चल पायेगा जब बीएसएनएल सभी पर्चेज़ ऑर्डर जारी कर देती है.

प्रोजेक्ट पर कितना खर्चा आएगा उसके बारे में तभी पता चल पाएगा जब विभिन्न टेंडरों की न्यूनतम राशि और अनुमानित खर्च की जानकारी हो जाए. टेलीकॉम मंत्रालय ने ये तय किया है कि नई समय-सीमा और नए संशोधित बजट के आवेदन को योग्य अधिकारियों के सामने तभी मंजूरी के लिए रखा जाएगा, जब बीएसएनएल द्वारा जो पर्चेज ऑर्डर जारी किए गए हैं, उनकी राशि के बारे में पता चल जाएगा.’

हालांकि, विभागों ने इस संदर्भ में पहले दिलचस्प तरीके से बीएसएनएल के बैंडविथ पर ये कहते हुए चिंता ज़ाहिर की थी कि, एयरफोर्स का एनएफएस एक्सेस नेटवर्क सही तरीके से काम नहीं कर रहा है. दस्तावेजों के अनुसार, ‘ये नेटवर्क इस समय बीएसएनएल से किराए पर लिए गए बैंड-विथ पर काम कर रहा है. लेकिन, ये पाया गया है कि बीएसएनएल मीडिया से जो लिंक हमें प्राप्त होता है, उसे लेकर काफी गंभीर चिंताए जाहिर की गई हैं, और यही कारण है कि एयरफोर्स अभी तक अपने क्रिटिकल एयर डिफेंस कम्यूनिकेशन कंपोनेंट्स को नॉन रेडियेटिंग मीडिया में स्थानांतरित नहीं कर पाया है.’

यहां ये कहना जरूरी हो जाता है कि सेल्यूलर सेवाओं में स्पेक्ट्रम के कमर्शियल इस्तेमाल में आई बढ़ोतरी से बहुत पहले से, हमारी सुरक्षा में लगे सुरक्षा बल ही, इस पूरे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम सेवाओं सबसे बड़े उपभोक्ता थे. जैसे-जैसे कमर्शियल जरूरतों के लिए स्पेक्ट्रम की मांग बढ़ने लगी, वैसे ही ये जरूरत सामने आई कि कमर्शियल और रक्षा जरूरतों के लिए स्पेक्ट्रम का जो इस्तेमाल किया जाता है उसके बीच एक रेखा खींचा जाना जरूरी है. ताकि, हमारे देश के डिफेंस वायरलेस सिस्टम के कामकाज में किसी तरह की कोई बाधा न आए, और वो अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो.

एक स्वतंत्र डिफेंस बैंड का आइडिया साल 2006 में ही रख दिया गया था. एक विशेष डिफेंस बैंड बनाने के पीछे का मुख्य मकसद ये तय करना था कि डिफेंस स्पेक्ट्रम की जो जरूरत है वो स्पेक्ट्रम के कुछ खास हिस्सों तक ही सीमित होनी चाहिए, जिससे कमर्शियल वायरलेस सेवाओं के लिए भी जगह बनाई जा सके, जो उस समय जरूरी था.