चुनावी धांधली का जिस तरह का आरोप मायावती ने अब लगाया है, उससे भी अधिक सनसनीखेज आरोप भारतीय जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने 1971 के लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद लगाया था.
याद रहे कि प्रोफेसर मधोक तब नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में इंदिरा कांग्रेस के शशि भूषण से चुनाव हार गए थे. उससे पहले वह दो बार सांसद चुने गए थे.
जनसंघ के संस्थापकों में से एक मधोक ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की भी स्थापना की थी.
मधोक को जनसंघ ने पार्टी से किया था निष्काषित
जनसंघ के राष्ट्रीय नेतृत्व से मतभेद के कारण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे मधोक को बाद में पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था.
उससे पहले उन्हें यह शिकायत रही कि उन्हें दरकिनार करके अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी में आगे बढ़ाया गया था. मिजाज से मधोक भी मायावती की तरह ही अतिवादी थे जबकि वाजपेयी मध्यमार्गी. जनसंघ पर संघ के प्रभाव को मधोक कम करना चाहते थे.
हालांकि उन दिनों यह अपुष्ट खबर भी आती रहती थी कि मधोक को इस बात पर एतराज रहता था कि अटल बिहारी वाजपेयी मुसलमानों के साथ चाय भी क्यों पीते हैं?
1971 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के तत्काल बाद मधोक ने यह कह कर देश को चौंका दिया था कि ‘मुझे शशि भूषण ने नहीं हराया है, बल्कि अदृश्य स्याही ने हराया है. मैं कुछ ऐसा रहस्य खोलने जा रहा हूं जिससे सारा देश हिल जाएगा.’
गाय-बछिया निशान पर लगी थी अदृश्य स्याही?
मधोक ने आरोप लगाया था कि इस चुनाव के मतपत्रों पर अदृश्य स्याही लगी हुई थी. इस अदृश्य स्याही से गाय-बछिया के सामने पहले से ही निशान लगा हुआ था.
उनके आरोप के अनुसार यह निशान मत पत्रों के मतपेटियों में जाने के बाद कुछ समय के बाद अपने-आप उभर आता था. दूसरी ओर मतदाता द्वारा लगाया गया निशान अपने आप मिट जाता था. याद रहे कि तब इंदिरा कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय-बछिया था.
1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा कांग्रेस बड़े बहुमत से जीत गई थी. मधोक के इस बयान से देश में सनसनी फैली थी.
इस संबंध में मधोक ने अपने दल के नेताओं के साथ-साथ सहयोगी दल संगठन कांग्रेस के नेता एस. निजलिंगप्पा से भी भेंट की थी.
मायावती के ताजा बयान पर जिस तरह की प्रतिक्रिया अखिलेश यादव की आई हैं, लगभग उसी तरह की प्रतिक्रिया निजलिंगप्पा ने भी व्यक्त की थी.
निजलिंगप्पा ने कहा था कि ‘मधोक साहब ऐसा कुछ कह तो रहे थे, पर मैं नहीं जानता सच्चाई क्या है?’ ऐसा कह कर उन्होंने भी रहस्य को कायम रखा.
याद रहे कि निजलिंगप्पा ने यह नहीं कहा कि मधोक का आरोप पहली नजर में गलत है.
तब जनसंघ के एक वरिष्ठ नेता ने कांग्रेस पर चुनावी धांधली का आरोप लगाया और इन दिनों जनसंघ के परिवर्ती स्वरूप बीजेपी की सरकार पर बीएसपी नेता मायावती ने ऐसा ही आरोप लगा दिया.
तब विपक्ष क्यों थी चुप?
निष्पक्ष लोगों ने न तो मधोक के आरोप पर तब विश्वास किया और न ही आज मायावती के आरोप पर अब विश्वास कर रहे हैं.
हां, ऐसी खबर नहीं है कि 1971 में जनसंघ के बड़े नेताओं ने मधोक के आरोप को सार्वजनिक रूप से बकवास बताया था. क्या इस रहस्य को बनाए रखना उन्हें भी अच्छा लगता था?
यदि तब बकवास बता दिया होता तो राजनीति में ऐसे उलजलूल आरोप कम लगते.
दरअसल तब मधोक के बयान से चुनाव में करारी हार की लीपापोती करने में कुछ प्रतिपक्षी नेताओं को सुविधा हुई थी. लगता है कि आज उसी तरह की सुविधा मायावती चाहती हैं.
कई नेता कई बार अपने दल की हार के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहरा देते हैं. ऐसा करके वे अपने कार्यकर्ताओं हिम्मत पस्त होने से बचाना चाहते हैं.
कांग्रेस में हुआ था महाविभाजन
याद रहे कि 1969 में कांग्रेस का महाविभाजन हुआ था. तब अविभाजित कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा थे.
महाविभाजन के बाद कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी. मूल कांग्रेस का नाम संगठन कांग्रेस पड़ा और इंदिरा गांधी के दल का नाम कांग्रेस ही रहा. निजलिंगप्पा संगठन कांग्रेस में थे.
पार्टी में महाविभाजन के बाद लोक सभा में इंदिरा सरकार का बहुमत समाप्त हो गया था. कम्युनिस्टों के समर्थन से वह सरकार चला रही थीं.
इंदिरा गांधी ने अपना जन समर्थन बढ़ाने के लिए ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया.
इसी नारे के तहत ही उन्होंने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. राजाओं-महा राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त कर दिए. उन्होंने आम लोगों को बताया कि इससे गरीबों को फायदा मिलेगा. बड़ी संख्या में गरीब उनके साथ हो लिए.
दूसरी ओर मधोक जैसे प्रतिपक्षी नेता इंदिरा गांधी के ऐसे प्रगतिशील कदमों के खिलाफ थे जिस तरह प्रतिपक्ष ने मोदी सरकार की नोटबंदी का विरोध किया. आम जन मानस को न तो 1971 में मधोक जैसे नेता समझ सके और न ही आज मायावती समझ सकीं.
सोवियत संघ से मंगाई गई थी स्याही?
इसी पृष्ठभूमि में 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ तो इंदिरा गांधी बड़े बहुमत से चुनाव जीत गईं. 1971 में ऐसे -ऐसे नेता चुनाव हार गए जिनकी हार की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.
उस हार से बौखलाए मधोक ने प्रचार किया कि सोवियत संघ से मंगाई गई अदृश्य स्याही की मदद से इंदिरा गांधी ने चुनाव में प्रतिपक्ष को हरवा दिया.
यह और बात है कि समय बीतने के साथ न तो इंदिरा गांधी का 'गरीबी हटाओ' का नारा असली साबित हुआ, न ही मधोक का आरोप.
1971 के चुनाव में मिली भारी सफलता के बाद प्रधानमंत्री आम लोगों की गरीबी हटाने की जगह अपने पुत्र संजय गांधी के निजी मारुति कार कारखाने के विकास जैसे कामों में लग गईं.
इंदिरा गांधी पर एकाधिकारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जन आंदोलन शुरू हुआ. उसे दबाने के लिए 1975 में आपातकाल लगाया गया और 1977 के जब चुनाव हुआ तो इंदिरा गांधी को जनता ने सत्ता से हटा दिया.