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महाभारत युद्ध की मर्यादाओं के साथ 1988 में लड़ा गया था इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव

तनाव, उत्तेजना और तरह-तरह की नारेबाजियों के बीच हुए उपचुनाव में वी.पी सिंह ने सुनील शास्त्री को बड़े मतों से पराजित कर दिया. निर्दलीय वी.पी सिंह को 2 लाख 2 हजार वोट मिले जबकि कांग्रेस के सुनील शास्त्री को मात्र 92 हजार वोट मिले

Surendra Kishore

भारत में उपचुनाव तो होते ही रहते हैं पर लोकसभा का जैसा उपचुनाव वर्ष 1988 में इलाहाबाद में हुआ, वैसा इस देश में कभी नहीं हुआ. वो उपचुनाव 2 मुंहबोले भाइयों के बीच था. वी.पी. सिंह और सुनील शास्त्री महाभारत युद्ध की परंपरा और मर्यादाओं के निर्वाह में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.

एक दूसरे के खिलाफ बोलना तो दूर, चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे का नाम भी जुबान पर नहीं लाते थे. याद रहे कि सुनील शास्त्री के पिता लाल बहादुर शास्त्री वी.पी सिंह को अपना पांचवां बेटा मानते थे. उस उपचुनाव में एक साथ कई खास बातें देखने को मिलीं. उससे आगे की राजनीति के कुछ संकेत भी मिले. इलाहाबाद में जन मोर्चा की ओर से निर्दलीय उम्मीदवार विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था, ‘जिस तरह विचार और नीति के लिए महाभारत लड़ा गया था, उसी तरह मैं यह चुनाव लड़ रहा हूं.’


वीपी के खिलाफ इलाहाबाद में कांग्रेस ने सुनील शास्त्री को खड़ा किया था 

इस चुनाव में बीजेपी से लेकर वाम दल तक पूरा विपक्ष वी.पी. के साथ था. याद रहे कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स और भ्रष्टाचार के अन्य मामलों पर राजीव सरकार से मतभेद के कारण 1987 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. बाद में उन्हें कांग्रेस से निकाल भी दिया गया था. अमिताभ बच्चन के इस्तीफे के कारण खाली हुई इलाहाबाद लोकसभा सीट से वी.पी. सिंह 1988 में उपचुनाव लड़ रहे थे. उनके खिलाफ कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को खड़ा किया था. लाल बहादुर शास्त्री इसी सीट से विजयी हुआ करते थे.

लाल बहादुर शास्त्री (फोटो: गेटी इमेज)

दोनों उम्मीदवारों के बीच अपनापन देखिए. वी.पी सिंह को कांग्रेस से निकाले जाने के विरोध स्वरूप सुनील शास्त्री ने भी उत्तर प्रदेश सरकार से इस्तीफा दे दिया था. उधर ‘राजा मांडा’ यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट को अपनी बड़ी संपत्ति दान में दे दी थी.

यानी दोनों परिवारों के बीच मधुर संबंध का यह इतिहास था. ऐसे में जब कांग्रेस ने सुनील शास्त्री को उम्मीदवार बनाया तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. सुनील शास्त्री को लगा कि अमिताभ बच्चन के डमी के रूप में मुझे खड़ा किया जा रहा है. पर कांग्रेस की रणनीति यह थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे वी.पी. के खिलाफ ऐसी हस्ती यानी शास्त्री जी के बेटे को ही खड़ा कर दिया जाए जो ईमानदारी के प्रतीक माने जाते थे.

इस तरह कांग्रेस इलाहाबाद के मतदाताओं को उलझन में डालना चाहती थी.

तनाव, उत्तेजना और तरह-तरह की नारेबाजियों के बीच हुए उपचुनाव में वी.पी. सिंह ने सुनील शास्त्री को बड़े मतों से पराजित कर दिया. निर्दलीय वी.पी. सिंह को 2 लाख 2 हजार वोट मिले जबकि कांग्रेस के सुनील शास्त्री को मात्र 92 हजार वोट मिले.

उपचुनाव में BSP के रूप में नई राजनीतिक शक्ति के उदय को देखा

हां, इस उपचुनाव के साथ बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के रूप में एक नई राजनीतिक शक्ति के उदय को भी लोगों ने देखा. इस उपचुनाव से भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को मजबूती मिली. भ्रष्टाचार के मुख्य मुद्दे पर लड़े गए इस कड़े मुकाबले के बीच भी बीएसपी के उम्मीदवार कांसीराम 69 हजार 517 वोट पाने में सफल हो गए.

कांसी राम का नारा था, ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा.. नहीं चलेगा’

इस उपचुनाव में बीएसपी और खासकर कांसीराम एक ऐसे मजबूत ताकत के रूप में उभरे कि लोगों ने उसके बाद उन पर गंभीरता से गौर करना शुरू कर दिया. उधर जन मोर्चा का मुख्य नारा था, 'वी.पी सिंह का एक सवाल, पैसा खाया कौन दलाल?’ वी.पी सिंह के अनुसार, 'मैंने राजीव गांधी से कहा था कि आपके दरबार में मेरे लिए न्याय नहीं है, इसलिए मैं न्याय के लिए अपने घर इलाहाबाद आ गया हूं.'

विश्वनाथ प्रताप सिंह

इसके जवाब में कांग्रेस का नारा था, ‘शत्रु फंसा शिकंजे में, मोहर लगाएं पंजे में.’ उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह कहते थे कि ‘वी.पी सिंह को राजनीतिक रूप से समाप्त कर देने का यही मौका है.’ सुनील शास्त्री ने मतदाताओं से कहा कि ‘आजादी के वक्त कोयला इंजन चलता था. मेरे पिता ने 18 माह में उसे डीजल इंजन में बदल दिया. इंदिरा जी ने बिजली का बनाया. राजीव जी इसे जेट इंजन में तब्दील कर देंगे.’

जन मोर्चा के वी.पी सिंह की इस जीत के साथ ही 1989 के लोकसभा चुनाव नतीजे का संकेत भी मिल गया. उस नतीजे से लगा कि अधिकतर मतदातागण जात-पात से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में वी.पी. सिंह का साथ देने को तैयार हैं. इलाहाबाद उपचुनाव के नतीजे ने कांग्रेस को पस्त हिम्मती की स्थिति में ला दिया. पहले से ही वो बचाव की मुद्रा में थी. वैसे भी इतने छोटे चुनाव में इतने बड़े मुद्दे इससे पहले कभी दांव पर नहीं थे.

चिकमंगलूर को छोड़कर इलाहाबाद उपचुनाव का मुकाबला कोई न कर सका

याद रहे कि बाद में यानी वर्ष 1989 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद वी.पी सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए. इस देश में आजादी के बाद लोकसभा के कई चर्चित उपचुनाव हुए पर 1978 में कर्नाटक के चिकमंगलूर को छोड़कर इलाहाबाद उपचुनाव का मुकाबला कोई न कर सका. तब तनावपूर्ण मुकाबले में चिकमंगलूर में इंदिरा गांधी ने वीरेंद्र पाटील को हराया था.

इंदिरा गांधी

वैसे 1963 के वो उपचुनाव भी चर्चित हुए थे जिनके जरिए डॉ. राम मनोहर लोहिया (फर्रूखाबाद) और जे.बी कृपलानी (अमरोहा) जीत कर लोकसभा में गए थे. हालांकि दीन दयाल उपाध्याय तब जौनपुर में हार गए थे.