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इमरजेंसी का दौर: 1977 के चुनाव की निष्पक्षता को लेकर जेपी भी थे आशंकित

इमरजेंसी पूरी तरह खत्म किए बगैर इंदिरा गांधी ने आम चुनाव का ऐलान किया, जिससे जयप्रकाश नारायण सहित ज्यादातर प्रतिपक्ष नेताओं को यह डर था कि चुनाव निष्पक्ष नहीं होगा

Surendra Kishore

1977 की जनवरी में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी. उन्होंने कहा कि मार्च में चुनाव होंगे. इंदिरा गांधी ने यह ऐलान इमरजेंसी पूरी तरह खत्म किए बगैर किया था. लिहाजा प्रतिपक्षी दल थोड़ी देर के लिए हतप्रभ हो गए थे क्योंकि प्रतिपक्ष चुनाव की निष्पक्षता को लेकर सशंकित था.

इमरजेंसी की ज्यादतियों और धांधलियों के कारण सरकार पर प्रतिपक्ष का विश्वास नहीं था. जय प्रकाश नारायण से लेकर जॉर्ज फर्नांडिस तक... सबने आशंकाएं जाहिर की थीं. जेपी के साथ मैंने जॉर्ज की चर्चा इसलिए की क्योंकि जॉर्ज गैर अहिंसक तरीके से इमरजेंसी का विरोध कर रहे थे.


गैर अहिंसक इसलिए क्योंकि उनके भूमिगत अभियान में भी किसी की जान लेने की योजना नहीं थी. आपातकाल में तरह-तरह की सरकारी जोर-जबर्दस्ती के कारण प्रतिपक्ष की आशंकाएं निराधार नहीं थी.

क्या था माहौल?

बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे के सिलसिले में देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद जॉर्ज फर्नांडिस ने तो चुनाव के बहिष्कार के पक्ष में ही अपनी राय दे दी थी. हालांकि जनता पार्टी की कौन कहे, सोशलिस्ट घटक के भी अन्य नेता जॉर्ज से असहमत थे.

बाद में जनता पार्टी ने जॉर्ज को मुजफ्फरपुर से उम्मीदवार बनाया और वे भी भारी मतों से जीते. चुनाव की घोषणा के बाद प्रेस सेंसरशीप में ढिलाई जरूर दे दी गई थी. राजनीतिक बंदियों की रिहाई शुरू हो गयी थी. पर रिहाई की रफ्तार काफी धीमी थी.

25 जून 1975 की रात में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो उसके साथ देश भर के करीब सवा लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं-नेताओं सहित कुछ अन्य लोगों को बिना किसी सुनवाई के बिना जेलों में ठूंस दिया गया था. कुछ पत्रकार भी बंदी बना लिए गए थे.

लोगों के मौलिक अधिकार की कौन कहे, जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था. यानी प्रतिपक्षी दलों के पास चुनावी तैयारी के लिए समय बहुत कम था. पर जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ तो जनता पार्टी के पक्ष में भारी जन समर्थन की खबरें दूर-दूर से आने लगीं.

क्या कहा था जेपी ने?

उससे पहले चुनाव की घोषणा के तत्काल बाद जयप्रकाश नारायण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि ‘सरकार सोचती है कि उसे चुनाव में बहुमत मिलेगा.

क्योंकि विरोधी दलों को चुनाव की तैयारी करने के लिए कोई समय नहीं दिया गया है. सत्तारूढ़ दल ने आपातकाल को पूरी तरह खत्म न करने और हजारों बंदियों को न छोड़ने का अपना इरादा साफ कर दिया है. इसलिए यदि कांग्रेस जीत जाती है तो आगे क्या होगा, यह बात भी लोगों के सामने स्पष्ट हो जानी चाहिए.’

साथ ही मीडिया से बातचीत में तब के आंदोलन के शीर्ष नेता जेपी ने हालांकि यह भी कहा कि ‘लोगों को इतनी आसानी से धोखा नहीं दिया जा सकता है. उन्होंने कठिन रास्ते से यह सीख लिया है कि केवल प्रजातांत्रिक तरीके से ही गरीब लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं. अधिकारों के दुरुपयोग से लोगों के मन में विरोध की भावना पैदा हो गई है. इसी कारण उनकी सहानुभूति विरोधी दलों के साथ है.’

सही निकला अंदाजा

जेपी का यह अनुमान बाद में सही निकला था. यानी 1977 के चुनाव नतीजों ने इसे सही साबित कर दिया था. हालांकि उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में कांग्रेस को काफी अधिक सीटें मिली थीं.

उधर चुनाव की घोषणा करने के तुरंत बाद इंदिरा गांधी ने रिक्त स्थानों को देखते हुए कांग्रेस संसदीय बोर्ड को पुनर्गठित किया. राज्यों को निर्देश दिया कि वे उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश भेजें.

प्रधानमंत्री की पहली चुनावी सभा कानपुर में हुई. बहुत बड़ी भीड़ थी. इंदिरा गांधी ने वहां लोगों से अपील की कि ‘मुझे उम्मीद है कि आप लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संगठनों को नष्ट करने वाली शक्तियों को प्रोत्साहित नहीं करेंगे. क्योंकि ये शक्तियां आपकी कठिनाइयां बढ़ाएंगी. प्रगति बाधित करेंगी.’

इंदिरा गांधी का इशारा जेपी और नव गठित जनता पार्टी की ओर था. इस बीच चार गैर कांग्रेसी दलों - जनसंघ, संगठन कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय लोकदल ने मिल कर जनता पार्टी बना ली थी.

उससे पहले इन दलों के विलयन में जब कुछ नेताओं ने अड़चन डालने की कोशिश की तो जेपी ने उन्हें चेताया कि यदि आप ऐसा करेंगे तो हम अलग दल बना लेंगे. फिर तो वे लाइन पर आ गए.

मजबूत हुई जनता पार्टी

जनता पार्टी के अध्यक्ष मोरारजी देसाई और चरण सिंह उपाध्यक्ष चुने गए. युवा तुर्क चंद्रशेखर का गुट भी जनता पार्टी में शमिल हो गया था. मेारारजी देसाई ने घोषणा की कि जनता पार्टी अच्छे उम्मीदवार खड़ा करेगी. उसका भरसक पालन हुआ.

जेपी ने लोगों से अपील की थी कि वे जनता पार्टी को उदारतापूर्वक दान दें ताकि चुनाव का खर्च उठाया जा सके. पर इमरजेंसी से ऊबे अधिकतर मतदाताओं में जनता पार्टी के पक्ष में इतना अधिक उत्साह था कि जनता पार्टी का अधिकतर चुनावी खर्च आम जनता ने ही उठा लिया था.

उस चुनाव में मुख्य रूप से कांग्रेस के साथ सीपीआई थी तो, जनता पार्टी के साथ सीपीएम और अकाली दल. जग जीवन राम के नेतृत्व वाली कांग्रेस फाॅर डेमोक्रेसी ने जनता पार्टी के साथ चुनावी तालमेल किया.

बिहार में मार्क्सवादी समन्वय समिति के लिए जनता पार्टी ने धनबाद सीट छोड़ दी थी. जनता पार्टी से टिकट न मिलने पर पूर्व रक्षा मंत्री जगजीवन राम ने अपनी समधिन सुमित्रा देवी को विद्रोही उम्मीदवार के रूप में बिहार के बलिया संसदीय क्षेत्र से खड़ा कर दिया था.

1979 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार गिर गई थी

सुमित्रा देवी को मात्र 31 हजार मत आए. वहां भी जनता पार्टी उम्मीदवार की जीत हुई थी.सुमित्रा देवी की जमानत जब्त हो गई. इस नतीजे के साथ ही जगजीवन राम के समर्थकों का यह दावा भी खत्म हो गया कि चुनाव की घोषणा के बाद जगजीवन राम के कांग्रेस छोड़ने के बाद ही जनता पार्टी के

पक्ष में चुनावी हवा बनी.

1977 के चुनाव में जनता पार्टी को लोकसभा की 295 और कांग्रेस को 154 सीटें मिलीं. मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने. सरकार ठीक-ठाक चल रही थी. पर जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण मोरारजी सरकार अपना कार्य काल पूरा नहीं कर सकी.