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भ्रष्ट व्यवस्था, स्वार्थी नेता और मूक जनता पर बनी थी ‘किस्सा कुर्सी का’

आपातकाल में फिल्म की प्रिंट जला दी गई थी. यह काम संजय गांधी के मारूति कारखाना परिसर में किया गया

Surendra Kishore

70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने दल के सांसद अमृत नाहटा से कहा कि ‘नाहटा जी, राजनीति में सही और गलत क्या है?’

इतना सुनना था कि नाहटा जी ने ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म बना दी. पर उस फिल्म को लेकर नाहटा को बाद में बड़ी प्रताड़ना झेलनी पड़ी. आपातकाल में फिल्म की प्रिंट जला दी गई थी. यह काम संजय गांधी के मारूति कारखाना परिसर में किया गया.


शाह आयोग ने उसके लिए संजय गांधी को दोषी माना था. याद रहे कि नाहटा दो बार कांग्रेस के टिकट पर बाड़मेर से लोकसभा के सदस्य थे. बाद में जनता पार्टी के टिकट पर पाली से सासंद बने. 70 के दशक की बात है. इंदिरा गांधी कुछ कांग्रेसी सांसदों के साथ भोजन पर बातचीत कर रही थीं.

जब इंदिरा ने भ्रष्टाचार को बताया था वर्ल्ड फेनोमेना

भ्रष्टाचार की बात चली तो प्रधानमंत्री ने कहा कि राजनीति में सही-गलत कुछ नहीं होता है. राजनीति, राजनीति होती है. इससे पहले इंदिरा यह कह चुकी थीं कि ‘मेरे पिता संत थे. मैं तो पॉलिटिशियन हूं.’ उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार सिर्फ भारत में ही थोड़ी है! यह तो वर्ल्ड फेनोमेना है.

उन दिनों प्रतिपक्ष यह आरोप लगा रहा था कि इंदिरा गांधी भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दे रही हैं. आज जब इस देश के प्रशासन और राजनीति में  भ्रष्टाचार की बाढ़ आई हुई है, इस बीमारी के शुरूआती दौर की चर्चा मौजूं होगी. उधर फिल्म निर्माता सह राज नेता नाहटा ने सोचा कि गांधी और नेहरू के देश में एक प्रधानमंत्री यह क्या कह रही हैं! इंदिरा जी की बात पर नाहटा चकित थे.उन्होंने तय किया कि इस विषय पर भी फिल्म बनाई जाए.

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उन्होंने फिल्म बनाई भी. फिल्म का विषय था स्वार्थी नेता, भ्रष्ट व्यवस्था और निरीह जनता. स्वाभाविक ही था. फिल्म को सेंसर बोर्ड से अनुमति नहीं मिली.

चूंकि मामला एक ऐसे निर्माता से था जो कांग्रेस के सांसद थे, इसलिए बोर्ड ने इस मामले को सूचना मंत्रालय को भेज दिया. इस बीच नाहटा ने 11 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर यह मांग की कि अदालत फिल्म को प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश दे.

सुप्रीम कोर्ट ने जब फिल्म देखने की इच्छा प्रकट की तो सरकार ने कहा कि फिल्म अनुपलब्ध है. तब तक देश में आपातकाल लग गया. देश में आतंक का माहौल कायम हो गया.

नाहटा ने कोर्ट से अपना मुकदमा वापस ले लिया. पर 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर अमृत नाहटा एक बार फिर सक्रिय हो गए.

उन्होंने फिल्म की प्रिंट वापस करने और पूरे मामले की सी.बी.आई जांच की मांग की. सी.बी.आई जांच शुरू हुई एसपी स्तर के अधिकारी एन.के.सिंह जांच कार्य का नेतृत्व कर रहे थे.

संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ इंदिरा गांधी

सीबीआई के पास संजय गांधी और विद्या चरण शुक्ल के खिलाफ सबूत थे

जांच के बाद संजय गांधी और विद्या चरण शुक्ल के खिलाफ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया. लोअर कोर्ट ने इस केस में संजय गांधी और विद्या चरण शुक्ल को सजा दी. पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया. पर इस बीच खूब ड्रामा हुआ. मीडिया में खूब चर्चा हुई.

इस केस के संबंध में एन.के.सिंह ने अपनी पुस्तक ‘खरा सत्य’ में लिखा है कि संजय गांधी और विद्या चरण शुक्ल के खिलाफ हमारे पास प्रथम दृष्टया सबूत थे. केंद्र सरकार की अनुमति से हमने 14 जुलाई 1977 को मुकदमा दर्ज किया था.

यह आपराधिक साजिश, विश्वासघात, फिल्म सामग्री की बर्बादी और सबूत खत्म करने का मामला था. इस उलझे मामले की जांच में हमलोग गुड़गांव, उत्तर प्रदेश, मुंबई और कोलकाता गए.

सिंह ने लिखा है कि मेरी सिफारिश पर मंत्रालय के सभी अफसर- बर्नी, त्रिपाठी, दयाल, घोष आदि को सह अपराधी गवाह बना लिया गया.

मेरा मानना था कि इनका अपना कोई इरादा नहीं दिखता था. दरअसल उन्हें यह काम करने के लिए मजबूर किया गया था.

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अफसर लोग विरोध नहीं कर सके थे. आपातकाल का आतंक जो था! सी.बी.आई ने इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे आर.के.धवन से इस सिलसिले में पूछताछ की.

सिंह के अनुसार ‘आर.के. धवन अपना बयान दर्ज कराने मेरे ऑफिस में दो बार आए. इमरजेंसी में वे कितने शक्तिशाली थे, उनके बारे में मैंने सुन रखा था. मैं यह देख कर अचंम्भित था कि उनके जैसी मानसिक योग्यता वाले व्यक्ति को देश का प्रशासन चलाने के मामले में इतने अधिकार दे दिए गए थे! मैंने यह भी महसूस किया कि वे बेहद अक्खड़ थे. डीएसपी के.एन.गुप्त को सहयोग नहीं कर रहे थे. वे कुछ समय में उनसे लड़ पड़े. चूंकि मैं वहां मौजूद था,इसलिए बुरी स्थिति नहीं आई.

संजय गांधी सवाल टालमटोल कर रहे थे

संजय गांधी से जब मैंने फोन पर बातचीत की तो वे आने के लिए तुरंत तैयार हो गए. पर वे लिखित नोटिस चाहते थे. हमने उनका आग्रह पूरा किया.

वे मेरे दफ्तर में आए. उनसे पूछताछ के दौरान मेरे डीआईजी भी मौजूद थे. संजय बहुत कम उम्र के थे और दुबले पतले थे. देखने में बहुत अपरिपक्व लगते थे. उन्हें देख कर मैं यही सोच रहा था कि देश की राजनीति में कैसे वे इतनी मजबूत स्थिति में पहुंच गए थे!

पूछताछ के दौरान वे तनाव में थे. वे काफी कोशिश करके अपना गुस्सा और आवेश नियंत्रित रखे हुए थे. उनका जवाब टालमटोल वाला था.