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मोदी सरकार का विरोध करने से पहले कांग्रेस 1971 का चुनाव याद करे

कांग्रेस मोदी सरकार के विधानसभा और लोकसभा चुनाव एकसाथ करवाने का विरोध कर रही है. जबकि इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा चुनाव समय से पूर्व करवाए थे

Surendra Kishore

यदि कांग्रेस के मीडिया प्रमुख रणदीप सिंह सुरजेवाला के मौजूदा तर्क को सही माना जाए तो 1971 में लोकतंत्र का अपमान ही तो हुआ था. क्या कांग्रेस ने इसके लिए अपनी गलती स्वीकारी है?

अब जब उसी गलती को सही करने की कोशिश एनडीए सरकार कर रही है तो कांग्रेस उसके पक्ष में नहीं है. बल्कि उसकी ही गलती सुधारने की मोदी सरकार की कोशिश को कांग्रेस लोकतंत्र का अपमान करार दे रही है. याद रहे कि बीजेपी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ का नारा दिया है. याद रहे कि चौथा आम चुनाव 1967 में हुआ था.


1980 में इंदिरा गांधी जब फिर से सत्ता में आ गईं

1952 से 1967 तक इस देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ हुए थे. कायदे से पांचवीं लोकसभा का 1972 में चुनाव होना तय था. पर इस बीच कांग्रेस ने 1971 में ही लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करवा दिया.

यानी तब खुद कांग्रेस ने सुरजेवाला के शब्दों में ‘लोकतंत्र का अपमान’ किया. 1971 में गठित लोकसभा का कार्यकाल 1976 में समाप्त होने वाला था, लेकिन कांग्रेस सरकार ने पांचवी लोकसभा का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया.

इस बढ़ी हुई एक साल की अवधि को अवैध मानते हुए समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से 1976 में इस्तीफा दे दिया था. तब ये दोनों नेता भी जेल में थे.

पर अब सुरजेवाला कह रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना लोकतंत्र का अपमान होगा. हाल में उन्होंने कहा कि कांग्रेस लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के प्रस्ताव का विरोध करती है. संसद और विधानसभाओं के तय कार्यकाल होते हैं.

सरकार के विश्वास मत खोने या अप्रत्याशित स्थिति में ही बीच में चुनाव कराने का प्रावधान है. निर्वाचित लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल की कटौती नहीं की जा सकती है. ऐसा तर्क देते समय कांग्रेस अपना ही अतीत भूल गई. अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए कुछ चीजों को भूल जाना नेताओं के लिए आम बात है.

तस्वीर- रघु राय

याद रहे कि 1980 में इंदिरा गांधी जब फिर से सत्ता में आ गईं तो उन्होंने उन राज्यों की विधानसभाओं को समय से पहले भंग करवा दिया जहां गैर कांग्रेसी सरकारें थीं.

यही काम जब 1977 में जनता पार्टी सरकार ने किया था तो कांग्रेस ने उसका कड़ा विरोध किया था. उन दिनों यह तर्क दिया गया था कि विधानसभाओं ने जनादेश खो दिया है. पर 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद केंद्र की एनडीए सरकार ने जनादेश खोने के तर्क का इस्तेमाल नहीं किया. यानी किसी कांग्रेसी राज्य सरकार को बर्खास्त नहीं किया.

मान लिया कि 1976 में देश में आपातकाल था और इसलिए उसे कांग्रेस अप्रत्याशित स्थिति मान रही थी. यानी 1976 में लोकसभा का चुनाव यदि कांग्रेस सरकार ने टाल दिया तो एक हद तक बात समझ में आती है. पर 1971 में कौन सी अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न हो गई थी?

उन दिनों यह आरोप लगा था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं को मिल रहे प्रिवी पर्स की समाप्ति के इंदिरा सरकार के फैसले का चुनावी लाभ कांग्रेस जल्द से जल्द उठा लेना चाहती थी. देर करने पर शायद जनता के दिलो-दिमाग से उसका असर गायब हो जाने का डर था. सन् 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद इंदिरा गांधी की सरकार का लोकसभा में बहुमत समाप्त हो गया था. वह कम्युनिस्टों पर निर्भर हो गई थी. यह निर्भरता इंदिरा जी को पसंद नहीं थी. समय से पहले चुनाव का एक कारण यह भी था.

इसीलिए 1971 में लोकसभा के चुनाव को विधानसभा के चुनावों से अलग कर दिया गया. इससे इस गरीब देश में चुनाव का सरकारी खर्च भी काफी बढ़ गया. सरकारी खजाने पर अरबों रुपए का अनावश्यक बोझ पड़ गया.

1971 में कांग्रेस की गलती का परिणाम है अलग-अलग चुनाव

आज जब केंद्र सरकार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवा कर सरकारी धन बचाना चाहती है तो कांग्रेस उसके लिए तैयार नहीं है.

अलग-अलग चुनाव होने के कारण शासन का ध्यान विकास और कल्याण कार्यों से कुछ समय के लिए अलग हो जाता है. ऐसा लगभग हर साल होता है. इसका नुकसान भी आम लोगों को ही उठाना पड़ता है.

होना तो यह चााहिए था कि 1971 में जो गलती कांग्रेस सरकार ने की, उसे सुधारने के काम में आज कांग्रेस केंद्र सरकार का सहयोग करती. ऐसा करके वह अपनी गलती का प्रायश्चित भी कर लेती, लेकिन जानकार सूत्र बताते हैं कि एक साथ चुनाव करा देने से राज्यों की कुछ सरकारें कांग्रेस के हाथों से निकल जाने का खतरा है. उसके विरोध का यही सबसे बड़ा कारण लगता है.

चुनाव का खर्च जनता से मिले टैक्स के पैसों से तो आ ही जाएगा! कांग्रेस को उसकी क्या चिंता! उसकी बची खुची राज्य सरकारें बनी रहनी चाहिए.