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जब राष्ट्रपति चुनाव में 65 सांसदों, 479 विधायकों ने वोट ही नहीं डाला

वामपंथियों का राजेंद्र प्रसाद के खिलाफ जाने का तर्क था कि राष्ट्रपति किसी निर्दलीय व्यक्ति को ही बनाना चाहिए.

Surendra Kishore

1952 में राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए हुए मतदान में 65 सांसदों और 479 विधायकों ने भाग ही नहीं लिया था. इनमें अधिकतर कांग्रेसी थे.

उन दिनों कुछ राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा थी कि संभवतः जवाहर लाल नेहरू की अनिच्छा के बावजूद डॉ. राजेंद्र प्रसाद की उम्मीदवारी के कारण ही कुछ जन प्रतिनिधि मतदान के प्रति उदासीन हो गए थे. हालांकि अन्य सूत्रों ने बताया था कि मतदान न करने वाले जन प्रतिनिधि डॉ. प्रसाद की जीत के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थे. क्योंकि कांग्रेस के पास भारी बहुमत था.


कुछ लोगों के वोट करने या नहीं करने से कोई फर्क नहीं पड़ता था. याद रहे कि तब वामपंथी दलों की ओर से दिए गए उम्मीदवार प्रो. के.टी शाह को सिर्फ 92 हजार 827 मत मिले थे. उधर डॉ.प्रसाद को 5 लाख 7 हजार 400 वोट मिले.

वामपंथियों ने इस तर्क के आधार पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया था कि राष्ट्रपति के पद पर किसी निर्दलीय व्यक्ति को ही बैठाया जाना चाहिए. पर डॉ.राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के हैं.

राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू (Source: Getty Images)

हालांकि इस पर सफाई देते हुए डॉ.प्रसाद ने तब कहा था कि जब मैं 1950 में पहली बार राष्ट्रपति चुना गया, उसी समय मैंने यह घोषित कर दिया था कि अब मेरा कोई संबंध कांग्रेस से नहीं रहा. इस बार भी मैंने किसी पार्टी या व्यक्ति को, मुझे उम्मीदवार बनाने के लिए, न कोई दरखास्त दी और न ही कहा था. याद रहे कि 1950 में डॉ.प्रसाद सर्वसम्मति से राष्ट्रपति बनाए गए थे.

सरदार पटेल ने राजगोपालाचारी के नाम का विरोध किया था

सन् 1957 में भी डॉ. प्रसाद ही राष्ट्रपति बनाए गए. इस बार भी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने डॉ.प्रसाद के बदले इस पद के लिए डॉ.राधाकृष्णन का नाम प्रस्तावित किया था.

पर डॉ. अबुल कलाम आजाद और गोविंद बल्लभ पंत ने डॉ. प्रसाद की उम्मीदवारी के पक्ष में काम किया. डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने कांग्रेस का इतिहास लिखा है.

जब राधा कृष्णन का नाम आया तो डॉ. आजाद ने पार्टी की एक उच्चस्तरीय बैठक में कहा कि सीतारमैया की किताब में तो राधाकृष्णन का कहीं नाम ही नहीं है. याद रहे कि 1950 में सरदार पटेल ने राष्ट्रपति पद के लिए राज गोपालाचारी के नाम का इस आधार पर विरोध किया था कि उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था.

याद रहे कि तब जवाहरलाल राजा जी को राष्ट्रपति बनवाना चाहते थे. एक दूसरी खबर के अनुसार 1957 में जब डॉ.राधाकृष्णन ने देखा कि उनके बदले डॉ. प्रसाद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जा रहा है तो उन्होंने उप राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे देने की पेशकश कर दी.

पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल ने उन्हें यह कहकर बड़ी मुश्किल से इस्तीफा देने से रोका कि आपको 1962 में राष्ट्रपति अवश्य बनवाया जाएगा. वे 1962 में बनाए भी गए.

डॉ.राधाकृष्णन आसानी से जीत गए. राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए कड़ा संघर्ष 1967 और 1969 में हुआ. 1967 के आम चुनाव के बाद नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं थीं. प्रतिपक्षी दलों ने जाकिर हुसैन के खिलाफ के. सुब्बाराव को खड़ा कर दिया. सुब्बा राव सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके थे. कड़े मुकाबले में जाकिर हुसैन को 4 लाख 71 हजार और के. सुब्बा राव को 3 लाख 63 हजार वोट मिले.

राजेन्द्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल (Source: Getty Images)

1969 में जाकिर हुसैन के आकस्मिक निधन के बाद हुए चुनाव में वी.वी. गिरि राष्ट्रपति चुने गए. उन्हें 4 लाख 20 हजार और उनके प्रतिद्वद्वी नीलम संजीव रेड्डी को 4 लाख 5 हजार वोट मिले.

पर इस चुनाव के पहले से ही कांग्रेस के अंदर अघोषित शक्ति परीक्षण जारी था. यह संघर्ष सिंडिकेट और इंदिरा के बीच था. इस चुनाव ने कांग्रेस में महाविभाजन की नींव डाल दी.

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सिंडिकेट ने 1966 में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया था

पहले तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नाम का प्रस्ताव किया. पर बाद में उन्होंने वी.वी गिरि को खड़ा कर दिया. उन्होंने सासंदों और विधायकों से अपील की कि वे पार्टी व्हिप के बदले अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार वोट करें.

तब इंदिरा गांधी कांग्रेस के भीतर के सिंडिकेट से मुक्ति चाहती थीं. तीन-चार पुराने नेताओं के एक ताकतवर गुट को सिंडिकेट कहते थे जो 1964 में नेहरू के निधन के बाद प्रधानमंत्री भी बनवाने लगा था. सिंडिकेट में कामराज, एस.के. पाटील और अतुल्य घोष जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेता थे.

इसी सिंडिकेट ने 1966 में प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी देसाई के दावे को दरकिनार करके उनकी जगह इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाया था. सिंडिकेट की समझ थी कि वह इंदिरा गांधी को दबाव में काम करवाया जा सकता है. पर उसकी समझ को इंदिरा ने बाद में गलत साबित कर दिया.

बुद्धिजीवियों और वामपंथी राजनेताओं के बड़े हिस्से ने इंदिरा गांधी को प्रगतिशील व गरीब हितैषी तथा सिंडिकेट को पुरानपंथी और पूंजीपति पक्षी के रूप में देश के सामने पेश किया था. खुद इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था. उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किए. इन सब कामों से गरीब जनता का बड़ा हिस्सा उनसे प्रभावित था.

अधिकतर लोहियावादी समाजवादी भी इस प्रचार में आ गए थे. सोशलिस्ट सांसदों और विधायकों ने भी गिरि को वोट दे दिया. हालांकि समाजवादियों के दूसरे हिस्से ने इंदिरा गांधी का यह कह कर विरोध किया था कि गरीबी हटाओ का उनका नारा झूठा है. गिरि को जितवाने के बाद इंदिरा गांधी में तानाशाही के तत्व पनप सकते हैं.

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संसोपा के राज्यसभा सदस्य और लोहिया के बाल सखा बालकृष्ण गुप्त ने पार्टी तथा कुछ अन्य लोहियावादी बुद्धिजीवियों ने पार्टी की इंदिरापक्षी लाइन का विरोध किया. पर वे लाचार थे. क्योंकि लोहियावादी पार्टी यानी संसोपा ने गिरि के पक्ष में व्हिप जारी कर दिया था.

1992 में जब केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी

बाद में समाजवादियों को इस बात पर अफसोस हुआ था. उनमें से एक नेता ने कहा था कि हमलोगों  ने यदि रेड्डी को जितवा दिया होता तो शायद बाद के वर्षों में इंदिरा गांधी देश में इमरजेंसी लगाने की पोजिशन में नहीं होतीं.

1977 में केंद्र में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो नीलम संजीव रेड्डी को जनता सरकार ने राष्ट्रपति बनवाया. वे निर्विरोध चुने गए थे.

1982 में ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति बने. इस तरह इस पद के लिए बाद के चुनावों में कोई खास बात नहीं रही. अब देखना है कि राष्ट्रपति पद के लिए इस साल होने वाले चुनाव के उम्मीदवारों को लेकर कैसी राजनीतिक मोर्चेबंदी होती है.

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