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विपक्षी दल पुरानी दुश्मनी भुला सरकार के खिलाफ खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं...

विपक्षी दल पुरानी दुश्मनी भुला सरकार के खिलाफ खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं.

सुरेश बाफना

नोटबंदी का सवाल अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राजनीतिक जीवन-मरण का सवाल बन गया है. पिछले तीन दिनों के दौरान जापान, कर्नाटक, गोवा के बाद उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में हुए मोदी के भाषण से स्पष्ट है कि वे इस मुद्दे पर विपक्षी दलों के साथ सीधी राजनीतिक लड़ाई के मैदान में खड़े हो गए हैं.

दूसरी तरफ माकपा-तृणमूल कांग्रेस और सपा-बसपा अपनी पारंपरिक राजनीतिक दुश्मनी को दरकिनार करके प्रमुख विपक्षी कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं.


राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद के कार्यालय में नोटबंदी के खिलाफ हुई बैठक में कई विपक्षी दलों की मौजूदगी इस बात का संकेत है कि संसद के शरद सत्र में मोदी सरकार को पहली बार एकजुट विपक्षी हमले का सामना करना पड़ेगा.

भाजपा गठबंधन में शामिल शिवसेना और अकाली दल ने भी नोटबंदी के खिलाफ अपनी नाराजगी प्रकट करके प्रधानमंत्री मोदी की परेशानी बढ़ा दी है. भाजपा के भीतर भी नोटबंदी से असहमत नेताअों की संख्या कम नहीं है, लेकिन वे फिलहाल रणनीतिक चुप्पी साधे हुए हैं. सभी जानते हैं कि पंजाब में अकाली दल और भाजपा के बीच रिश्ते तनावपूर्ण है. यदि पंजाब में इन दोनों दलों के बीच गठबंधन टूट जाए तो आश्चर्य नहीं होगा.

नोटबंदी होगा चुनावी मुद्दा

प्रधानमंत्री मोदी ने गहरी व मोटी राजनीतिक लकीर खींच दी है कि जो भी लोग उनके इस कदम का विरोध कर रहे हैं, वे आम आदमी की परेशानी की आड़ में काले धन वालों का समर्थन कर रहे हैं. नोटबंदी के मुद्दे पर मोदी सरकार और विपक्षी दलों के बीच किसी तरह के संवाद की संभावना पूरी खत्म हो चुकी है. अब यह मुद्दा पूरी तरह राजनीतिक हो गया है.

गाजीपुर में हुए मोदी के भाषण का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि भाजपा अगले साल के आरंभ में होनेवाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में नोटबंदी और काले धन के खिलाफ लड़ाई को मुख्य मुद्दा बनाएगी. इसलिए विपक्षी दलों के लिए भी लाजिमी है कि वे भाजपा की इस योजना का मुकाबला करने की योजना बनाए.

नोटबंदी का सबसे अधिक राजनीतिक असर उन राज्यों में देखा जा रहा है, जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, कांग्रेस के साथ भाजपा के भी कई नेताअों का अर्थतंत्र सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है. पंजाब में अकाली दल भी मुश्किल में दिखाई दे रहा है. यह कोई रहस्य नहीं है कि लगभग सभी राजनीतिक दल काले धन के माध्यम से ही चुनाव लड़ते हैं. केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी इस सच्चाई को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर चुके हैं.

संसद के शीतकालीन सत्र में मोदी-विरोधी राजनीतिक दलों के बीच पहली बार एकजुटता दिखाई देगी, जिसमें बसपा भी शामिल होंगी. राज्यसभा में जीएसटी से जुड़े विधेयकों का पारित होना बेहद मुश्किल हो जाएगा. यदि नोटबंदी को लेकर आम लोगों को अगले तीन-चार दिनों के भीतर राहत नहीं मिली तो मोदी सरकार को संसद के भीतर विपक्ष के संयुक्त हमले का सामना करना पड़ेगा. इस हमले में वे दल भी शामिल होंगे, जो एक-दूसरे के राजनीतिक शत्रु हैं.

मोदी के खिलाफ एकजुट हुआ विपक्ष

नोटबंदी पर एक तरफ विपक्षी दलों के बीच एकता का इंडेक्स काफी मजबूत हो गया है, वही भाजपा गठबंधन और भाजपा के भीतर बेचैनी दिखाई दे रही है. नरेंद्र मोदी अकेले ही एकजुट विपक्ष के हमलों का जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं. बैंकों के सामने बढ़ती लोगों की भीड़ और परेशानी से भाजपा सांसद भी चकित दिखाई दे रहे हैं.

नोटबंदी पर मोदी जिस मुकाम पर पहुंच गए हैं, वहां भीषण राजनीतिक टकराव के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. यह टकराव अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों में महसूस किया जाएगा. अब बहस इस बात पर नहीं है कि नोटबंदी देश के हित में है या नहीं? बहस इस बात पर है कि इससे किसको चुनावी लाभ मिलेगा? इसके लिए हमें विधानसभा चुनावों के नतीजों का इंतजार करना पड़ेगा.