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जनरल रावत इन्हें माफ करना, वाम दल समझ नहीं रहे कि वो क्या कह रहे हैं

पार्टी शायद भूल गई कि सेना जब सरकार की नाफरमानी करना शुरू करती हैं तो क्या हश्र होता है

Sanjay Singh

देश के सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने सोचा भी न होगा कि कभी प्रतिद्वंद्वी के रूप में सीपीआई (एम) के पूर्व प्रमुख प्रकाश करात का सामना करना होगा.

भारतीय सेना को दुनिया की सबसे पेशेवर सेनाओं में एक माना जाता है. हमारी सेना अपनी राजनीतिक तटस्थता और वीरता के मामले में समय की कसौटी पर खरी उतरी है. लेकिन सीपीएम को कुछ और ही लगता है.


पीपल्स डेमोक्रेसी के हालिया अंक में प्रकाशित संपादकीय में, जिसके बारे में अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे संपादक प्रकाश करात ने ही लिखा होगा, वर्तमान सेना प्रमुख बिपिन रावत की कड़ी आलोचना करते हुए आरोप लगाया गया है कि वे 'नागरिक सरकार की बातें आंख मूंदकर मानते' जा रहे हैं.

संपादकीय का फैसला सुनाता है कि 'मौजूदा नेतृत्व में भारतीय सेना के पेशेवराना ऊंचे आदर्शों की चमक फीकी' हुई है और भविष्यवाणी के अंदाज में कहा गया है कि सेना को 'इसका बड़ा घाटा होगा जिसकी भरपाई नहीं की जा सकेगी.'

अहम है सीपीएम की टिप्पणी

अगर बात को बहुत घटाकर कहें तो भी कहना होगा कि संपादकीय का तेवर और मिजाज सेना के प्रति अपमानजनक और उसके मनोबल को कम करने वाला है. सीपीआई (एम) के मुखपत्र का यह संपादकीय ‘सेना की छवि को नुकसान’ शीर्षक से छपा है और इसे पार्टी की औपचारिक लाईन के रुप में देखा जा सकता है.

प्रकाश करात की सेना के कामकाज की उपहास उड़ाती टिप्पणी और नौजवान मेजर नितिन गोगोई के कश्मीर में उठाये कदम की निंदा बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि एक तो करात खुद ही सीपीआई (एम) की आगे की पांत के नेता है, दूसरी सीपीआई (एम) देश की सात राष्ट्रीय पार्टियों में एक है और उसकी दो राज्यों में सरकार है. प्रकाश करात या फिर उनकी पार्टी की टिप्पणी की किसी छुटभैये वामपंथी मंच का गैर-जिम्मेवाराना ख्याल कहकर अनदेखी नहीं की जा सकती.

संपादकीय की शुरुआत ही सेना प्रमुख के मान को घटाने वाले वाक्य से हुई है. इसमें कहा गया है कि 'सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने अपने साक्षात्कार में कश्मीर के नागरिक प्रदर्शनकारियों से निबटने के बारे में जो बातें कही हैं उससे पता चलता है कि कश्मीर के हालत से निबटने के मामले में मोदी सरकार क्या कुछ गलत कर रही है.'

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लगता है सीपीएम को इस बात का गुस्सा है कि कश्मीर घाटी में पत्थरबाज, आतंकियों के विरुद्ध की जा रही सैन्य कार्रवाई में बाधा पहुंचाने के लिए बड़ी संख्या में आ निकलते हैं तो सेना उनके साथ रहमदिली का बर्ताव क्यों नहीं करती. वामपंथी पार्टियां हुर्रियत की समर्थक रही हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य कहिए कि वाममोर्चे के शीर्ष के नेताओं के प्रति हुर्रियत ने कभी दोस्तदिली नहीं दिखायी.

पिछले साल सितंबर में हुर्रियत के उग्रपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने सीपीएम के प्रमुख सीताराम येचुरी और सीपीआई के डी राजा तथा उनके साथ गये अन्य लोगों से मिलने से साफ इनकार करते हुए उन्हें अपने श्रीनगर के घर के गेट से ही लौटा दिया था. वाममोर्चे के नेता अपने अपमान को पचा गए और अलगाववादियों के समर्थन में बदस्तूर जुटे रहे.

अब तक बहुत संयमित रही है सेना

सीपीएम के मुखपत्र में प्रकाशित संपादकीय की बातें निश्चित ही पाकिस्तान को बड़ी भली लगेंगी और तय बात है कि इसको लेकर पाकिस्तान के अखबारों में सुर्खियां लगेंगी और बहस गर्म होगी. सीपीएम के नेता इतने भोले नहीं कि अपने सोच-विचार के अपने तौर-तरीके या फिर ठीक-ठीक शब्दों में कहें तो सेना के खिलाफ जाते अपने सोच-विचार के लिखित रुप से होने वाले नुकसान को ना भांप सकें. सैन्य-बलों को कश्मीर घाटी में सबसे कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और पाकिस्तानी शह पर पत्थर उठाने वाले लोगों के तमाम उकसावे के बावजूद सेना ने संयम की मिसाल कायम की है.

मेजर गोगोई ने पलक झपकते नायाब फैसला लिया था. पत्थरबाजों में शामिल जान पड़ते एक शख्स को उसने जीप के बोनट से बांधा और पत्थरबाजी पर उतारू उग्र भीड़ के सामने से उसे घुमाया ताकि चुनाव कराने के लिए आए अधिकारियों, अर्ध-सैन्यबलों और सेना के जवानों के जान की हिफाजत की जा सके. उन्होंने भीड़ पर कोई गोली नहीं चलाई और उसका यह फैसला प्रशंसा के काबिल है.

मेजर गोगोई को पुलिस और सेना की जांच का सामना करना पड़ा. लेकिन उसके उठाये कदम को लेकर अभी विवाद थमा भी नहीं था कि सेना प्रमुख ने उसकी सराहना करने का फैसला किया. इस तरह सेना प्रमुख ने मेजर गोगोई और भारतीय सेना के मनोबल को बढ़ाने का काम किया. यह एक सराहनीय फैसला था. इस फैसले का संकेत था कि सरकार और सेना दोनों ने अब तय कर लिया है कि पत्थरबाजों से निबटने में नरमी का बरताव नहीं किया जायेगा.

लेकिन सीपीएम ने सेना-प्रमुख और मेजर गोगोई की उनकी कार्रवाई के लिए आलोचना की है. सीपीएम ने मेजर गोगोई के नायाब फैसले को ‘सदमा पहुंचाने वाला’, ‘गलत’ और ‘गंभीर उल्लंघन’ करार दिया है.

संपादकीय में जनरल रावत के साक्षात्कार के उस हिस्से का हवाला दिया गया है जहां वे कहते हैं कि 'यह एक छद्मयुद्ध है... इसे बड़े गंदे तरीके से खेला जा रहा है... और नायाब युक्तियां ऐसे ही मौके पर सूझती हैं. आप एक गंदे खेल से ऐसी ही नायाब युक्तियों से निबटते हैं.' इस हवाले के बाद संपादकीय में कहा गया है कि: फारुख अहमद डार श्रीनगर के उपचुनाव में वोट डालने गया था लेकिन उसे पत्थरबाजों को रोकने के ख्याल से जिस तरह पकड़कर जीप से बांधा गया वह बड़ा स्तब्ध करने वाला है. सेना प्रमुख ने इसकी सराहना करके फौज के ऊंचे पेशेवराना आदर्शों को नीचा दिखाने का काम किया है.'

राजनीतिक प्रतिरोध या राष्ट्रविरोध?

मेजर गोगोई ने यह आपातकालिक फैसला जिन हालात में किया उसके बारे में वाममोर्चा के विचारकों के पास कहने के लिए एक शब्द भी नहीं है. लगता है, वामपंथी पार्टियां सोचती हैं कि पत्थर चलाना और किसी की जिंदगी को खतरे में डालने के करतब करना कश्मीरी प्रदर्शनकारियों का जन्मसिद्ध अधिकार है और सेना का यही कर्तव्य बनता है कि वह किसी पुराने जमाने की फौज की नैतिकता का पालन करते हुए अपने जवान गंवाती रहे, साजो-सामान के नुकसान सहती रहे मगर अपनी आत्मरक्षा में भी कोई कार्रवाई न करे.

जनरल रावत ने साक्षात्कार में चेतावनी के स्वर में कहा कि जो लोग सेना की कार्रवाई का समर्थन नहीं करते या मुठभेड़ के दौरान उसे बाधा पहुंचाते हैं उन सबको सेना ‘आतंकवादियों का प्रत्यक्ष कार्यकर्ता’ मानकर बर्ताव करेगी.

सीपीएम के पूर्व प्रमुख सेनाध्यक्ष की इस चेतावनी पर भी बौखलाहट में हैं. सेना प्रमुख ने कहा कि फौज पर पत्थर चलाने वालों के मुकाबले उस पर हथियार चलाने वाले से निबटना आसान है क्योंकि तब हमें पता होता है कि क्या किया जाना चाहिए. सेना प्रमुख की यह बात भी सीपीएम को ‘गैरजरूरी उकसावा’ लगती है.

संपादकीय में इसे एक 'ऐसी मनोवृत्ति का संकेतक बताया गया है जो किसी वरिष्ठ सैन्य अधिकारी को शोभा नहीं देता.' सीपीएम मानकर चल रही है कि कश्मीर में आतंकवादी और पत्थरबाज हिंसा पर उतारू हैं तो यह कोई राष्ट्रविरोधी गतिविधि नहीं बल्कि राजनीतिक प्रतिरोध का हिस्सा है.

सरकार के खिलाफ नहीं जा सकती सेना

सीपीएम एक तरफ सेना प्रमुख की आलोचना कर रही है कि उन्होंने पत्थरबाजों को बेजरूरत उकसावा देने वाली बात कही तो दूसरी तरफ उसने सेना पर निशाना साधा है कि आखिर मोदी सरकार और हिंदुस्तानी फौज कश्मीर की मौजूदा स्थिति से निबटने के मामले में एक ही सुर-ताल में क्यों नजर आ रहे हैं.

सीपीएम के मुखपत्र में कहा गया है कि 'दुर्भाग्य से, सेना के प्रमुख मोदी सरकार की सोच की नुमाइंदगी कर रहे हैं. मोदी सरकार राजनीतिक प्रतिरोध जाहिर करते कश्मीरी आवाम को ताकत के इकलौते इस्तेमाल के जरिए दबाना चाहती है. कश्मीर की जनता ही नहीं, आम नागरिकों के साथ सख्ती से निबटने पर तुली सरकार की अंधभक्ति से सेना को भी ऐसा नुकसान उठाना पड़ेगा जिसकी भरपाई मुश्किल होगी.'

सशस्त्र सेनाएं नागरिक सरकार की नाफरमानी करना शुरू करती हैं तो क्या हश्र होता है, इसके बारे में शायद सीपीएम कल्पना नहीं कर पा रही. सीपीएम को इस मामले में पाकिस्तान के उदाहरण से समझना चाहिए लेकिन इस पार्टी के नेता केंद्र की मोदी सरकार के प्रति अपनी नफरत में इतने अंधे हो रहे हैं कि उन्हें सेना पर भी अंगुली उठाने से परहेज नहीं.