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शाकाहारी भारत! बीजेपी की सवर्ण मानसिकता का प्रतीक है ये बैन

ऐसा नहीं कि शाकाहार की तरफ धकेलना केवल मुसलमानों या बीफ खाने वालों पर ही हमला है.

Monobina Gupta

शाकाहार के माध्यम से राज्य सरकारों विशेषकर भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य सरकारों द्वारा अपनाए जा रहे कठोर न्यायिक और न्यायेतर उपायों के तेजी से बढ़ते हुए मामले कम से कम कहने के लिए सही, मगर बेहद खतरनाक हैं. धरातल पर तमाम विसंगतियों के बावजूद बिना किसी सूक्ष्म विचार-विमर्श के व्यापक रूप से गैर-शाकाहारी देश पर शाकाहार थोपना पागलपन का एक अजीब तरीका प्रतीत होता है.

भोजन की आदतों पर जबरदस्ती करना एक तरह का सांस्कृतिक अतिक्रमण है, जो सीधे-सीधे किसी व्यक्ति की पसंद या आजादी के चलन के मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने जैसा है. हम तेजी से एक टकराव की तरफ बढ़ रहे हैं. हम खुद को उस हद तक ले जा रहे हैं, जहां यह तय किया जायेगा कि हम क्या पहनें और हमारे व्यवहार की आचार संहिता क्या हो.


सरकार का आश्वासन है कि उसकी नीतियां किसी विशेष समुदाय के खिलाफ नहीं है, लेकिन जब रोजाना हम शाकाहार की वकालत वाले बयान सुनते हैं और ऐसी नीतियां देखते हैं जहां मांस की दुकानों को बंज किया जा रहा है.

यदि योगी ने मांस की दुकान और पशुवध करने वाले मालिकों की आजीविका छीनने के लिए कानूनी आधार का इस्तेमाल किया है, तो उनके गुजराती समकक्ष विजय रुपानी ने गुजरात को शाकाहारी राज्य घोषित करने का इरादा जता दिया है. अपने इरादों को न्यायोचित ठहराते हुए रूपानी ने गुजरात को एक ऐसे ‘अनूठे राज्य’ के रूप में दर्शाने की कोशिश की है, 'जिसमें महात्मा गांधी की अहिंसा तथा सत्य को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई गई है.'

द इंडियन एक्सप्रेस में रूपानी के बयान को उद्धृत करते हुए बताया गया है, 'यह गांधी का गुजरात है, यह सरदार(वल्लभभाई पटेल) का गुजरात है तथा नरेंद्र मोदी का गुजरात है.'

रणनीतिक रूप से सुविधाजनक गांधी वंदन बेशक गुजरात के मुख्यमंत्री के कद को नहीं बढ़ाता है.

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राज्य के पशु संरक्षण विधेयक को संशोधित करते हुए विगत शुक्रवार को गुजरात विधानसभा ने गोवध की स्थिति में अधिकतम आजीवन कारावास तथा न्यूनतम 10 साल की सज़ा का प्रावधान किया है. इससे पहले इस पर तीन से सात साल की सजा का प्रावधान था. इसके अलावे, गोवध के आरोप को गैर जमानती अपराध बना दिया गया है. यहां याद दिलाया जा सकता है कि वह गुजरात की ऊना नगरपालिका ही थी, जहां आठ महीने पहले गाय की सुरक्षा करने वाले गोरक्षा दल के सदस्यों ने सात दलितों को बुरी तरह पीटा था.

कहीं कोई पीछे नहीं छूट जाए, इस विचार से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी इस पूरे शोर-शराबे में कूद पड़े हैं. जिस दिन रूपानी ने बयान दिया, ठीक उसी दिन रमन सिंह ने एक उत्तेजनापूर्ण बयान जारी कर दिया. मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से घोषित करते हुए कहा कि जो कोई भी ‘गोहत्या’ करते हुए पाया जायेगा, उसे ‘फांसी पर लटका’ दिया जायेगा.

जरा पीछे जाएं और 2015 पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि बीजेपी शासित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी राज्य के मिड-डे मील कार्यक्रम में अंडे परोसने पर पाबंदी लगा दी थी.

मुख्यमंत्री का यह एलान राज्य के उन बच्चों के पोषण के साथ एक तरह का खिलवाड़ था, जो अपनी छह साल की उम्र पूरी करने से पहले तक सामान्यत: कम वजन के होते हैं.

यह उस मुख्यमंत्री का ऐलान था, जो स्वयं को अपने राज्य के प्रमुख से ज्यादा हिंदूवादी कहलाना पसंद करते हैं.

असल में इस तरह की शाकाहार को बढ़ावा देने की बीजेपी की यह सोच उसकी सवर्ण हिंदू अवधारणा से जुड़ी निष्ठा में अंतर्निहित है (इससे तो यही लगता है कि दलित सिर्फ़ चुनावी गणना में ही बीजेपी के लिए मायने रखता है.)

विचारकों के लिए शाकाहार तो सांस्कृतिक शुद्धता का ही एक रूप है. शाकाहार का इस्तेमाल केवल मुसलमानों में भय पैदा करने का हथियार ही नहीं है, बल्कि सभी गैर-शाकाहारियों के बीच भी इस भय को विस्तार देना वास्तव में तानाशाही व्यवस्था का ही एक रूप है.

भारत को एक शाकाहारी देश में बदलने का तरीका चाहे पिछले दरवाजे की नीति हो या कानूनी बदलाव हो, इतना तो तय है कि नागरिक अधिकारों और भारतीय लोकतंत्र पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा.

कुछ समय पहले द टेलिग्राफ के सितंबर 2015 में छपे एक आलेख में इतिहासकार मुकुल केसवन ने लिखा था, 'शाकाहार हिंदू धर्म में अंतर्निहित है; अब कोशिश है कि इसे राष्ट्रीय सदाचार के रूप में प्रोत्साहित किया जाए.' ऐसे में लेखक पूछता है, 'तो क्या गणराज्य के प्रमुख गुण के रूप में सौम्य बहुलतावाद की जगह हिंदू देशभक्ति लेने लग गया है? ऐसा कहना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि मोदी के शासन ने ऐसे विचारों को स्वीकार कर उन्हें गंभीरता प्रदान की है.'

बदकिस्मती से नागरिक समाज प्रतिक्रिया जताते के मामले में पीछे है. ऐसा नहीं कि शाकाहार की ओर धकेलना केवल मुसलमानों या बीफ खाने वालों पर ही हमला है. वास्तव में यह भारत के बहुसांस्कृतिक बहुलतावाद पर एक ऐसा हमला है जिसे लेकर हर नागरिक की चिंता जरूरी है, इस मामले में यह मायने नहीं रखता कि कौन मांस खाना चाहता है और कौन नहीं.