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विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की विजय को 2019 से पहले सेमीफाइनल की जीत नहीं कहा जा सकता

आने वाले लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष ने अपना मुद्दा चुन लिया है परंतु बीजेपी को अभी असमंजस की स्थिति से बाहर आना बाक़ी है

Rajiv Tuli

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद इनके विषय में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका है. बीजेपी की हार और कांग्रेस की विजय इस चुनाव का लब्बोलुआब है. मीडिया के एक वर्ग ने इस विशिष्ट विचार को निष्कर्ष रूप में स्थापित कर दिया और बाकी सभी ने उसी का अनुसरण किया. कहीं भी किसी ने भी उस वैचारिक आख्यान यानी नैरेटिव को चुनौती देने की हिम्मत तो क्या, कोशिश भी नहीं की. ये कांग्रेस के लिए भी वरदान ही था कि ये आम चुनावों के ठीक पहले हुए हैं. और कांग्रेस ने जोर-शोर से इन चुनावों को वर्तमान केंद्र सरकार के काम-काज पर जनादेश का लबादा पहना दिया. कुछ मीडियाकर्मियों ने इन चुनावों को सेमी फाइनल जैसा भी करार दिया है, बिना ये सोचे कि सेमीफाइनल में हारने वाला फाइनल में नहीं जाता.

पांच में से तीन राज्यों में बीजेपी, एक में कांग्रेस और एक में क्षेत्रीय दल की सरकार थी. बीजेपी दो राज्यों में पंद्रह साल से शासननीत थी और चौथी बार उन्हीं मुख्यमंत्रियों और अधिकतर स्थानों पर उन्हीं उम्मीदवारों के साथ जाने का निर्णय उसने लिया, जो अति आत्मविश्वास का द्योतक ही है. गुजरात में चौथी बार सरकार बनने का बड़ा कारण उम्मीदवार बदलना भी था. इसके बावजूद, यहां छत्तीसगढ़ छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में बीजेपी का वोट प्रतिशत कांग्रेस से अधिक है और गुजरात की तरह का एक दृश्य यहां भी बनता दिखता था.


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बीजेपी के हार के अपने कारण रहे हैं

कोई भी विपक्षी पार्टी देश में चार बार मुख्यमंत्री रिपीट नहीं कर पाई, पिछले कुछ समय में तो नहीं. हार के अपने कारण रहे हैं. कोई कर्जमाफी और कोई अनुसूचित जाति/जनजाति पर अत्याचार से संबंधित अधिनियम को इसका कारण बता रहा है. लेकिन एक विश्लेषण उन सीटों का भी करना चाहिए जहां किसान बहुलता में हैं, मध्यप्रदेश में, खासतौर पर मंदसौर के आस-पास के क्षेत्र में बीजेपी जीती है. ध्यान रहे कि किसान आंदोलन यहीं हुआ था. हां, नोटा के कारण नुकसान अवश्य हुआ दिखता है. बीजेपी का कोर वोटर कुछ बातों से केंद्र और राज्य सरकार से कुछ स्थानों पर रुष्ट यानी नाराज दिखता है. परंतु कार्यकर्ताओं के एक बड़े वर्ग को संभवत: ऐसा भी लगता है कि केंद्र सरकार ने अपनी मूल विचारधारा संबंधित मुद्दे छोड़े हैं या इन पर बहुत अधिक काम नहीं किया. उसका खामियाजा भी इस चुनावों में राज्य सरकारों ने भुगता है.

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राजस्थान में भी कमोबेश यही स्थिति रही है. विकास तो बहुत हुआ ऐसा लोग बताते हैं और आंकड़ों से भी दिखता है. परंतु जनता ने परंपरा का पालन करते हुए सत्ता पलटी है. जो मित्र राजस्थान में जमीन पर चुनावों में काम कर रहे थे उनका आकलन है कि कार्यकर्ता और नेतृत्व के बीच संवादहीनता की स्थिति है.

छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस की वास्तविक जीत है. परंतु इसमें भी नक्सलवादियों और चर्च का कितना हाथ है देखने का विषय है. आइए, अब देखते हैं कि कांग्रेस का मिज़ोरम और तेलंगाना में क्या हाल है. मिज़ोरम में कांग्रेस सत्ताच्युत हुई और तेलंगाना में ज़बरदस्त हार मिली है. लेकिन क्योंकि कांग्रेस को हार मिली है इसलिए इन राज्यों का विश्लेषण सुनने-पढ़ने में बहुत अधिक नहीं मिला.

केवल विकास के मुद्दों पर नहीं जीता जा सकता चुनाव

इन चुनावों ने एक बात और स्पष्ट की है कि अपने देश में चुनाव केवल विकास के मुद्दे पर नहीं जीता जा सकता. बीजेपी जैसी कार्यकर्ता आधारित पार्टी के लिए तो बिलकुल नहीं. बीजेपी-संघ का कार्यकर्ता ही चुनाव जिताता या हरवाता है और उसे अपने मुद्दों पर काम होता दिखना चाहिए. भारत में वैसे भी चुनाव और शेयर बाज़ार संभावनाओं पर ज्यादा चलते हैं फ़डामेंटल्ज़ पर नहीं. इतिहास गवाह है 1952 से लेकर अब तक कोई भी चुनाव संभावनाओं और नारों के बिना नहीं जीता गया है. कभी 'ग़रीबी हटाओ' तो कभी बोफ़ोर्स और कभी मंडल-मंदिर.

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आने वाले लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष ने अपना मुद्दा चुन लिया है परंतु बीजेपी को अभी असमंजस की स्थिति से बाहर आना बाक़ी है. बीजेपी का वोटर और कार्यकर्ता दोनों इस पूर्ण बहुमत वाली सरकार से अपने कोर मुद्दों पर भी काम होते देखना चाहते हैं. जिस प्रकार संत समाज ने कम से कम राम मंदिर पर अपनी अपेक्षाएं व्यक्त की हैं सरकार को, यदि धारा 370 और समान नागरिक संहिता छोड़ भी दें तो, कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा. समय कम है विपक्ष के झूठे-सच्चे आरोप और आक्रमण बढ़ते जा रहे हैं. अपने कार्यकर्ता और कोर वोटर की देखभाल और उनकी अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना प्रत्येक राजनैतिक दल का काम है और बीजेपी को भी करना चाहिए.

(लेखक आरएसएस के दिल्ली प्रांत के प्रचार प्रमुख हैं. लेख में व्यक्त विचार निजी हैं.)